Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीसरा अध्ययन - तृतीय उद्देशक - अहिंसा-पालन
१३७ 事事串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串串
अहिंसा-पालन
(१९४) आयओ बहिया पास, तम्हा ण हंता ण विघायए।
कठिन शब्दार्थ - आयओ - अपनी आत्मा के समान ही, बहिया - बाह्य जगत् कोदूसरी आत्माओं को, विधायए - घात करे। ___ भावार्थ - अपनी आत्मा के समान ही दूसरी आत्माओं को देख अर्थात् सभी जीवों को मेरे समान ही सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है इसलिए किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये और न ही दूसरों के द्वारा प्राणियों का घात कराना चाहिये। - विवेचन - मनुष्य भव, उत्तम कुल, धर्मश्रवण आदि दुर्लभ अंगों को प्राप्त करके विवेकी पुरुष को आत्मकल्याण की ओर प्रवृत्ति करने में किञ्चिन्मात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिये। सभी प्राणी सुख के अभिलाषी हैं अतः किसी भी प्राणी का वध नहीं करना चाहिये और न दुःख देना चाहिये।
(१९५) ___जमिणं अण्णमण्णवितिगिच्छाए पडिलेहाए ण करेइ पावं कम्मं किं तत्थ मुणी कारणं सिया? समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसायए।
कठिन शब्दार्थ - अण्णमण्णवितिगिच्छाए - परस्पर की आशंका से, पडिलेहाए - प्रतिलेखन करके, समयं - समता.को, विप्पसायए - प्रसन्न रखे। - भावार्थ - जो परस्पर एक दूसरे की आशंका से, भय से या लज्जा से प्रतिलेखन - विशेष रूप से देख कर पाप कर्म नहीं करता है क्या उसमें मुनि होना कारण है? वहां समभाव का या आगम का पर्यालोचन - विचार कर अपनी आत्मा को प्रसन्न रखे, संयम में सावधानी रखे।
विवेचन - मुनित्व का संबंध भावना से है। मुनित्व भाव पूर्वक किए गए त्याग में हैं। केवल लोकलज्जा या लोकभय की दृष्टि से किसी पाप में प्रवृत्त नहीं होना ही मुनित्व नहीं है। जिस साधक के जीवन में समता - समभाव है जो आगम के अनुरूप संयम साधना में संलग्न है, जो इन्द्रिय और मन का गोपन करके अपनी आत्मा में केन्द्रित होता है, आत्मद्रष्टा बनता है, वही मुनि है।
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