Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीसरा अध्ययन - तृतीय उद्देशक - आत्म-निग्रह
१४१ 參參參參事事串串串串串串串串串串串串串参事都事事奉部整部整部部脚部學部學部學華藝事
विवेचन - रति और अरति अर्थात् हर्ष और विषाद अज्ञानियों को हुआ करते हैं। ज्ञानी पुरुष तो सभी अवस्थाओं में समभाव रखते हैं और शुद्ध संयम का पालन करते हैं।
तू ही तेरा मित्र
(२०२) पुरिसा! तुममेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि?
भावार्थ - हे पुरुष! हे आत्मन्! तू ही तेरा मित्र है। बाह्य मित्र की इच्छा क्यों करता है? अर्थात् फिर बाहर अपने से भिन्न मित्र क्यों ढूंढ रहा है?
विवेचन - शास्त्रकार फरमाते हैं कि हे आत्मन्! तू ही तेरा मित्र है। बाह्य मित्र की तू क्यों इच्छा करता है?. कुमार्ग पर चलती हुई यह आत्मा ही आत्मा की शत्रु है और सुमार्ग पर चलती हुई आत्मा ही आत्मा का मित्र है।
(२०३) जं जाणिजा उच्चालइयं तं जाणिज्जा दूरालइयं, जं जाणिज्जा दूरालइयं तं जाणेजा उच्चालइयं। ___कठिन शब्दार्थ - उच्चालइयं - उच्चभूमिका पर स्थित, विषय संग को दूर करने वाला, कर्मों को दूर करना, दूरालइयं - अत्यंत दूर - मोक्ष मार्ग में स्थित। . भावार्थ - जिस पुरुष को, विषय के संग को दूर करने वाला, कर्मों को दूर करने वाला
जानो उसे मोक्ष मार्ग का पथिक समझो और जिसे मोक्ष मार्ग का पथिक समझो, उसे कर्मों को दूर करने वाला समझो।
आत्म-निग्रह
(२०४) पुरिसा! अत्ताणमेवं अभिणिगिज्झ एवं दुक्खा पमुच्चसि। कठिन शब्दार्थ - अत्ताणमेवं - अपनी आत्मा को ही, अभिणिगिज्झ - निग्रह कर।
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