Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चौथा अध्ययन - प्रथम उद्देशक - लोकैषणा-त्याग
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लोकैषणा-त्याग
(२२६) . णो लोगस्सेसणं चरे। भावार्थ - लोकैषणा न करे, लोकैषणा में न भटके।
विवेचन - लोगस्सेसणं - लोकैषणा अर्थात् इष्ट विषयों के संयोग और अनिष्ट विषयों के वियोग की लालसा। यह विषयेच्छा कर्मबंध एवं दुःखों की परम्परा को बढ़ाने वाली है, जीवन को गिराने वाली है, अतः साधक को लोकैषणा का त्याग करने के लिए कहा गया है।
(२२७) जस्स णत्थि इमा णाई अण्णा तस्स कओ सिया? कठिन शब्दार्थ - णाई - ज्ञाति-बुद्धि, अण्णा - अन्य, कओ - कैसे? भावार्थ - जिसको यह लोकैषणा बुद्धि नहीं है उसको अन्य - सावध प्रवृत्ति कैसे होगी? ..
. (२२८) ... दिलु सुयं मयं विण्णायं, जं एयं परिकहिजइ।
कठिन शब्दार्थ - दिटुं - देखा हुआ, सुयं - सुना हुआ, मयं - माना हुआ, विण्णायंविज्ञात - विशेषता से जाना हुआ, परिकहिजइ - कहा जा रहा है।
- भावार्थ - यह जो मेरे द्वारा कहा जा रहा है वह दृष्ट - देखा हुआ, श्रुत - सुना हुआ, मत - माना हुआ और विशेष रूप से ज्ञात - जाना हुआ है।
(२२६) समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाइं पकप्पंति।
कठिन शब्दार्थ - समेमाणा - भोगों में आसक्त, पलेमाणा - इन्द्रिय विषयों में लीन, जाई- जाति को, पकप्पंति - प्राप्त करते हैं।
भावार्थ - जो पुरुष भोगों में अत्यंत आसक्त और मनोज्ञ इन्द्रिय सुखों में तल्लीन हैं वे बार-बार एकेन्द्रिय आदि जाति को प्राप्त करते हैं अर्थात् बार-बार जन्म लेते रहते हैं।
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