Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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कठिन शब्दार्थ - समायाय
अदृश्यमानः - दिखाई नहीं देता हुआ ।
भावार्थ
इन सबका सम्यक् निरीक्षण करके, समस्त उपदेश पूर्वक संयम ग्रहण करके साधक दो अंतों से - रागद्वेष से अदृश्यमान रहे अर्थात् राग द्वेष से निवृत्त बने । विवेचन - 'रागो य दोसो वि य कम्मबीयं' (उत्तरा० अ० ३२ गा० ७ )
राग और द्वेष कर्मबंध के बीज हैं। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में मुख्य रूप से इन दोनों के त्याग का उपदेश दिया गया है।
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) ❀❀❀❀❀❀❀
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कठिन शब्दार्थ - विइत्ता लोगसण्णं - लोक संज्ञा को
ग्रहण करके, अंतेहिं
चूर्णि में 'पडिलेहिय सव्वं समायाय' के स्थान पर 'पडिलेहेहि य सव्वं समायाए' पाठ दिया है जिसका भावार्थ है - भलीभांति निरीक्षण-परीक्षण करके पूर्वोक्त कर्म और उसके सब उपादान रूप तत्त्वों का निवारण करे ।
(१७८)
तं परिण्णाय मेहावी विइत्ता लोगं, वंता लोगसण्णं से मइमं परक्कमिज्जासित्ति बेमि ।
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॥ पढमोद्देसो समत्तो ॥
जानकर, लोगं लोक - विषय कषाय रूप लोक को, विषयासक्ति को ।
भावार्थ - कर्म और राग द्वेष को जानकर (ज्ञ परिज्ञा से जान कर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर) मेधावी पुरुष लोक को जाने और लोक संज्ञा का त्याग कर संयम में पुरुषार्थ करे । ऐसा मैं कहता हूं।
विवेचन - कर्म और कर्म के मूल कारणों को जान कर बुद्धिमान् पुरुष इनका त्याग करे और शुद्ध संयम अनुष्ठान में प्रयत्न करे ।
कुछ प्रतियों में 'मइमं' के स्थान पर 'मेहावी' पाठ भी मिलता है। दो बार प्रयुक्त 'मेहावी' शब्द का भावार्थ इस प्रकार हैं- जो पुरुष मर्यादा में स्थित रहता है वही आत्मविकास कर सकता है, संयम में प्रवृत्त हो सकता है, ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में पंडित एवं बुद्धिमान् होता है।
॥ इति तृतीय अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
राग और द्वेष को अदिस्समाणे
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