Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 888888888888888888888
(१८३) अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिच्छिंदिया णं णिक्कम्मदंसी।
कठिन शब्दार्थ - अग्गं - अग्र यानी भव को ग्रहण कराने वाले चार अघाती कर्मों को, मूलं - मूल यानी चार घाती कर्मों को, विगिंच - दूर कर, पलिच्छिंदिया - छेदन (काट) कर, णिक्कम्मदंसी - निष्कर्मदर्शी - कर्म रहित सर्वदर्शी।
भावार्थ - हे धीर! तू अग्र - अघाती कर्मों को और मूल - घाती कर्मों को दूर कर। धीर पुरुष तप संयम आदि के द्वारा रागादि बंधनों को काट कर निष्कर्मदर्शी हो जाता है।
विवेचन - निष्कर्मदर्शी के चार अर्थ हो सकते हैं -
१. कर्मरहित शुद्ध आत्मदर्शी २. राग द्वेष के सर्वथा छिन्न होने से सर्वदर्शी ३. वैभाविक क्रियाओं के सर्वथा न होने से अक्रियादर्शी और ४. जहां कर्मों का सर्वथा अभाव है ऐसे मोक्ष का द्रष्टा। संयमी आत्मा की विशेषताएं
(१८४) एस मरणा पमुच्चइ से हु दिट्ठभए मुणी, लोयंसी परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिए सहिए सयाजए कालकंखी परिव्वए।
कठिन शब्दार्थ - दिट्ठभए - भयों को देखने वाला, परमदंसी - परमदर्शी - परम (मोक्ष या संयम) को देखने वाला, विवित्तजीवी - विविक्तजीवी - विविक्त (द्रव्य से स्त्री, पशु, नपुंसक रहित और भाव से राग द्वेष रहित) जीवन जीने वाला, उवसंते - उपशांत, समिए - समित - समितियों से युक्त, सहिए - ज्ञानादि सहित, जए - संयत - यत्नावान्, कालकंखी - काल - पंडित मरण का आकांक्षी, परिव्वए - संयम का पालन करे।
भावार्थ - वह निष्कर्मदर्शी मरण (मृत्यु) से मुक्त हो जाता है। वह मुनि सभी भयों को देखने वाला है। वह लोक में परम - सबसे श्रेष्ठ मोक्ष या संयम को देखने वाला, विविक्तरागद्वेष रहित जीवन जीने वाला, उपशांत, पांच समितियों से समित, ज्ञान आदि से सहित सदा यत्नवान् (संयत) रहता है। ऐसा साधु पंडित मरण की आकांक्षा करता हुआ शुद्ध संयम का पालन करे।
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