Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तोसरा अध्ययन - प्रथम उद्देशक - कर्मों से उपाधि
१२५ 888888888888888888888888888888888888888888888888 ही है, इसलिए कर्म ही उपाधि का कारण है। जो सर्वथा कर्ममुक्त (अकर्म) हो जाता है उसके लिए नारक आदि व्यवहार (संज्ञा) नहीं होता।
कर्म से उपधि होती है। उपधि तीन प्रकार की कही है - १. आत्मोपधि २. कर्मोपधि और ३. शरीरोपधि। जब आत्मा विषय कषाय आदि में दुष्प्रयुक्त होती है तब आत्मोपधिआत्मा परिग्रह रूप लेता है। जब आत्मोपधि होती है तब कर्मोपधि का संचय होता है और कर्म से शरीरोपधि होती है। शरीरोपधि को लेकर नैरयिक, मनुष्य आदि व्यवहार (संज्ञा) होता है।
__'अकम्मस्स ववहारो ण विज्जइ' का अर्थ है - मोक्षमार्ग पर गतिशील साधक समस्त कर्म बंधनों को तोड़ देता है और आठ कर्मों से मुक्त व्यक्ति फिर से संसार में नहीं आता अर्थात् कर्म बंधन से मुक्त आत्मा फिर से संसार में अवतरित नहीं होती, कर्म युक्त आत्मा ही जन्म मरण के प्रवाह में बहती रहती है। क्योंकि जन्म मरण का मूल कारण कर्म है और सिद्ध अवस्था में कर्म का सर्वथा अभाव है इसलिए परमात्मा या ईश्वर के अवतरित होने की कल्पना नितांत असत्य एवं कपोल कल्पित है। वस्तुतः कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने पर आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप में रमण करती है फिर वह संसार में नहीं भटकती है।
(१७६) कम्मं च पडिलेहाए, कम्ममूलं च जं छणं।
भावार्थ - कर्म को प्रत्युपेक्षण (पर्यालोचन) कर उसे नष्ट करने का प्रयत्न करे। कर्म का मूल कारण मिथ्यात्व आदि और जो हिंसा है उसको जान कर त्याग करे।
विवेचन - "कम्ममूलं च जं छणं' के स्थान पर "कम्ममाहूयं जं छणं च" इस प्रकार पाठान्तर मिलता है। उसका भावार्थ यह है कि जिस क्षण अज्ञान, प्रमाद आदि के कारण कर्मबन्धन की हेतु रूप कोई प्रवृत्ति हो जाय तो सावधान साधक तत्क्षण उसके मूल कारण की खोज करके उससे निवृत्त हो जाय। ..' कर्म के मूल कारण हैं - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इन कर्मों के मूल कारणों को जाने और इनका त्याग कर दे।
(१७७) पडिलेहिय, सव्वं समायाय दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे।
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