Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीसरा अध्ययन - प्रथम उद्देशक - दुःखों का मूल-आरंभ
१२३ 來來來參參參參參參參參非部部脚部部聯華帶來來來參參參參參幹幹幹嘛聯華華華華藝傘傘
भावार्थ - यह दुःख आरंभजनित है, ऐसा जान कर आरंभ रहित बनने का प्रयत्न कर। मायावी और प्रमादी पुरुष बार बार गर्भ को प्राप्त होता है अर्थात् माया और प्रमादवश जीव बारबार जन्म लेता है। शब्द और रूप आदि विषयों में राग द्वेष नहीं करने वाला जीव ऋजु (सरल) होता है। वह मृत्यु से सदा आशंकित रहता है और मृत्यु से (मृत्यु के भय-दुःख से) मुक्त हो जाता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि सभी दुःखों का मूल स्रोत - आरंभहिंसा जन्य प्रवृत्ति है। प्रमादी व्यक्ति कषायों के वश होकर आरम्भ - हिंसा करता है और परिणाम स्वरूप अशुभ कर्मों का बंध करके नरक, तिर्यंच आदि दुर्गतियों में नाना प्रकार के दुःखों को भोगता है तथा जन्म, जरा और मरण को प्राप्त करता रहता है। इससे विपरीत जो अप्रमत्त और जागृत साधक होता है वह शब्दादि विषयों में राग द्वेष नहीं करता हुआ संयम पालन में सजग रहता है और अपनी साधना के बल पर एक दिन मरण भय से या दुःख से मुक्त हो जाता है।
(१७३) - अप्पमत्तो कामेहिं, उवरओ पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते जे खेयण्णे।
भावार्थ - जो कामभोगों के प्रति अप्रमत्त है, पाप कर्मों से उपरत है वह पुरुष वीर, आत्मगुप्त (आत्मा की रक्षा करने वाला) और खेदज्ञ (प्राणियों को अथवा स्वयं को होने वाले खेद का ज्ञाता) है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में शब्द रूप आदि कामभोगों में सावधान एवं जागृत रहने वाले तथा हिंसा आदि विभिन्न पाप कर्मों से मन, वचन और काया से विरत साधक को वीर, आत्मगुप्त और खेदज्ञ कहा है।
(१७४) .. जे पजवजायसत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे, जे असत्थस्स खेयण्णे, से पजवजाय सत्थस्स खेयण्णे।
कठिन शब्दार्थ - पज्जवजायसत्थस्स - पर्यवजातशस्त्रस्य - शब्दादि विषयों की प्राप्ति के लिये किये जाने वाले हिंसा आदि सावध अनुष्ठानों का, खेयण्णे - खेदज्ञ - खेद का जानकार, असत्थस्स - अशस्त्र - संयम का, सस्थस्स - शस्त्र - असंयम का।
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