Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रथम अध्ययन - चतुर्थ उद्देशक - अग्निकाय की सजीवता 888888888888888888@@@@@@@@@@@@@@@888888888888
कठिन शब्दार्थ - दीहलोगसत्थस्स - दीर्घलोक शस्त्र (अग्निकाय) का, खेयण्णे - क्षेत्रज्ञ - जानकार-स्वरूप को जानने वाला, असत्थस्स - अशस्त्र अर्थात् संयम का।
भावार्थ - जो दीर्घलोक शस्त्र - अग्निकाय के स्वरूप को जानता है वह अशस्त्र - संयम का स्वरूप भी जानता है। जो संयम का स्वरूप जानता है वह दीर्घलोक शस्त्र - अग्निकाय का स्वरूप भी जानता है।
विवेचन - संसार में जितने भी एकेन्द्रिय प्राणी हैं उन सब से वनस्पति अर्थात् वृक्ष ही बड़ा होता है। क्योंकि वनस्पति की अवगाहना एक हजार योजन झाझेरी है। शेष चार स्थावरों की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र ही है। इसलिए उसे 'दीर्घलोक' कहा है। अग्नि उसे जला डालती है अतः अग्नि को 'दीर्घलोक शस्त्र' कहा गया है। वनस्पति के लिए अग्नि . शस्त्र रूप है। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३५ गाथा १२ में तो कहा है -
‘णत्थि जोइसमें सत्थे तम्हा जोइं ण दीवए'
:: अर्थात् अग्नि के समान अन्य कोई तीक्ष्ण शस्त्र नहीं है। संयम ही एक ऐसी वस्तु है . जिससे किसी भी प्राणी का घात नहीं होता है अतः उसे 'अशस्त्र' कहा है। नियुक्तिकार ने अग्निकाय के शस्त्रों का उल्लेख इस प्रकार किया है -
१. मिट्टी या धूलि - इससे वायु निरोधक वस्तु कंबल आदि भी समझना चाहिये।
२. जल ३. आर्द्र वनस्पति ४. सप्राणी ५. स्वकाय शस्त्र - एक अग्नि दूसरी अग्नि का शस्त्र है ६. परकाय शस्त्र - जल आदि ७. तदुभयमिश्रित - जैसे तुष-मिश्रित अग्नि दूसरी अग्नि का शस्त्र है ८. भाव शस्त्र - असंयम, यहाँ असंयम को भावशस्त्र बताया है अतः उसका विरोधी संयम - अशस्त्र अर्थात् जीव मात्र का रक्षक है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'खेयण्णे' शब्द के संस्कृत में दो रूप बनते हैं - १. क्षेत्रज्ञः और २. खेदज्ञः। दोनों शब्दों का अर्थ करते हुए टीकाकार लिखते हैं -
'क्षेत्रज्ञो निपुणः अग्निकार्य वर्णादितो जानातीत्यर्थः। खेदज्ञो वा खेदः तद्व्यापारः सर्व सत्वानां दहनात्मकः पाकायनेक शक्ति कलापोपचितः प्रवरमणिरिव जाज्वल्यमानो लब्धाग्नि व्यपदेशो यतीनामनारम्भणीयः तमेवंविधं खेदं अग्नि व्यापारं जानातीति खेदज्ञः।' ___अर्थात् - अग्नि को वर्णादि रूप से जानने वाले को क्षेत्रज्ञः कहते हैं और अग्नि के दहनादि रूप व्यापार का नाम खेद है और उसका परिज्ञाता खेदज्ञ कहलाता है।
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