Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) ORRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRES बाहर के बंधनों को तोड़ता है वैसे विषय कषायादि आंतरिक बंधनों को भी तोड़ता है। अर्थात् साधक के जीवन में बाहर भीतर की एकरूपता होना अनिवार्य है।
(१३६) से मइमं परिणाय माय हु लालं पच्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावायए।
कठिन शब्दार्थ - मइमं - मतिमान्, परिण्णाय - जान कर, लालं - लार' को, ... पच्चासी - प्रत्याशी-सेवन करे, तिरिच्छं - प्रतिकूल, अप्पाणं - अपनी आत्मा को, तेसु - उन में, मा - मत, आवायए - फंसाए, स्थापन करे, अनुकूल करे।
भावार्थ - वह बुद्धिमान् पुरुष उक्त विषयों को जान कर तथा त्याग कर मुख के लार को न चाटे यानी वमन किये हुए भोगों का पुनः सेवन न करे। अपनी आत्मा को प्रतिकूल मार्ग में न फंसाए अर्थात् सम्यग् ज्ञानादि मार्ग से आत्मा को प्रतिकूल न करे और. अज्ञान, अविरति, मिथ्यादर्शन आदि के तिर्यक् मार्ग के अनुकूल आत्मा को न करे। .
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि बुद्धिमान् पुरुष विषयभोगों के कटु .. परिणाम को जान कर उनका त्याग कर देवें और उन त्यागे हुए विषयों को पुनः भोगने की इच्छा . न करे। छोड़े हुए विषयों का पुनः सेवन करना थूके हुए को, वमन किए हुए को चाटना है। __जैसे बालक अविवेकी होने के कारण अपने मुंह से निकल कर बाहर लटकते हुए लार को खा जाता है उसी तरह अविवेकी पुरुष विषय भोग को त्याग कर के भी फिर उसे भोगने की इच्छा करता है।
रत्नत्रयी (ज्ञान,दर्शन, चारित्र) का मार्ग सरल व सीधा है। इसके विपरीत मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय आदि का मार्ग तिरछा-तिर्यक्-टेढा है। अतः आगमकार ने 'मा तेसु तिरिच्छं' से सरल मार्ग का त्याग कर तिर्यक् मार्ग में न जाने की प्रेरणा की है।
(१३७) कासंकसे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई, कडेण मूढे, पुणो तं करेइ लोहं वेरं व इ अप्पणो।
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