Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सीओसणिज्जं णाम तइयं अज्झयण
शीतोष्णीय नागक तृतीय अध्ययन उत्थानिका - प्रथम अध्ययन में बताये हुए महाव्रतों से युक्त और दूसरे अध्ययन में वर्णित संयम में स्थिर तथा कषाय आदि का विजय किये हुए मोक्षार्थी मुनि को यदि कभी अनुकूल और प्रतिकूल परीषह उत्पन्न हो तो वह समभाव से उनको सहन करे। यह उपदेश करने के लिए इस तृतीय अध्ययन का आरम्भ हुआ है। इस अध्ययन में यह बतलाया जायगा कि साधु को शीत और उष्ण एवं अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को समभाव पूर्वक. सहन करना चाहिये। इसलिए इसे शीतोष्णीय अध्ययन कहते हैं। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है - तइयं अज्झयणं पठमो उदेसओ तृतीय अध्ययन का प्रथम उद्देशक
सुप्त और जागृत
(१६५) सुत्ता अमुणी सया मुणिणो सया जागरंति।
कठिन शब्दार्थ - सुत्ता - सुप्त - सोये हुए, .अमुणी - अमुनि - अज्ञानी, सया - सदा, मुणिणो - मुनि - ज्ञानी, जागरंति - जागते हैं। ___ भावार्थ - अमुनि (अज्ञानी) सदा सोये हुए हैं, मुनि (ज्ञानी) सदा जागते रहते हैं।
विवेचन - शयन यानी सोना दो प्रकार का कहा गया है - १. द्रव्य शयन और २. भाव शयन। इनमें निद्रा रूप शयन द्रव्य शयन हैं और मिथ्यात्व तथा अज्ञानमय शयन भाव शयन है। भाव शयन, समस्त दुःखों का कारण है। जो जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि हैं वे द्रव्य से जागते हुए भी भाव से सोये हुए हैं क्योंकि वे उत्तम ज्ञान के अनुष्ठान से रहित हैं। जो उत्तम ज्ञान से सम्पन्न और मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति करने वाले मुनि हैं वे द्रव्य से सोते हुए भी भाव से सदा जागते हैं।
88 पाठान्तर - सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरंति।
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