Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 888888888888888@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ घाती कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय) का क्षय कर चुके हैं अतः वे न तो सर्वथा बद्ध है और न ही सर्वथा मुक्त है क्योंकि उनके चार भवोपग्राही कर्म (आयुष्य, वेदनीय, नाम, गोत्र) शेष हैं।
(१६१) से जं च आरभे जं च णारभे। अणारद्धं च ण आरभे।
भावार्थ - उन कुशल पुरुषों ने जिसका आचरण किया है और जिसका आचरण नहीं किया है, यह जान कर साधक उनके द्वारा अनाचरित (आचरण नहीं की हुई) प्रवृत्ति का .. आचरण नहीं करे।
- (१६२) छणं छणं परिण्णाय लोगसण्णं च सव्वसो।
भावार्थ - हिंसा और हिंसा के कारणों को जान कर उसका त्याग कर दे और सर्व प्रकार से लोक संज्ञा (विषय सुख की इच्छा और परिग्रह) को भी छोड़ दे। '
विवेचन - केवलियों ने तथा विशिष्ट मुनियों ने मोक्ष प्राप्ति के लिए जो आचरण किया है, मोक्षार्थी पुरुष को वैसा ही आचरण करना चाहिए। जिन कार्यों से हिंसा होती है तथा जिस कार्य का आचरण ज्ञानियों ने निषिद्ध बतलाया है उसका कदापि आचरण न करे।
(१६३) उद्देसो पासगस्स णत्थि। कठिन शब्दार्थ - उद्देसो - उपदेश की, पासगस्स - पश्यकस्य - यथा द्रष्य को।
भावार्थ - यथार्थ द्रष्टा - सत्य का सम्पूर्ण दर्शन करने वाले के लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं है।
विवेचन - जो वस्तु स्वरूप को देखने वाला है उसे 'पश्यक' कहते हैं अथवा केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को जानने वाले तीर्थंकर भगवान् और उनकी आज्ञा में चलने वाले पुरुष . 'पश्यक' कहलाते हैं। इन सबके लिए उपदेश की कोई आवश्यकता नहीं है। वे स्वतः ही अहित से निवृत्ति और हित में प्रवृत्ति करते हैं।
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