Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दूसरा अध्ययन - छठा उद्देशक - कर्म, दुःख का कारण
१११ पीवीवीपी
आज्ञा का आराधक
(१५१) एस वीरे पसंसिए, अच्चेइ लोयसंजोयं।
कठिन शब्दार्थ - पसंसिए - प्रशंसित, अच्चेइ - छोड़ देता है, मुक्त हो जाता है, लोयसंजोयं - लोक-संयोग को।
भावार्थ - भगवान् की आज्ञानुसार चलने वाला वीर पुरुष प्रशंसनीय होता है। वह लोक के संयोग से दूर हट जाता है (बंधनों से मुक्त हो जाता है)।
विवेचन - वीतराग आज्ञा की आराधना करने वाला मुनि सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है - और वह वीर होता है, कर्मों की विदारणा करने में समर्थ होता है।
भगवान् की आज्ञा की आराधना करने वाला मुनि लोक - संसार के संयोगों से मुक्त हो जाता है। संयोग दो प्रकार के हैं - १. बाह्य संयोग - धन, भवन, पुत्र, परिवार आदि २. आभ्यंतर संयोग - राग, द्वेष, कषाय, आठ कर्म आदि। इन दोनों संयोगों से आज्ञा का आराधक मुनि मुक्ति हो जाता है।
कर्म, दुःख का कारण
(१५२) एस णाए पवुच्चइ, जं दुक्खं पवेइयं इह माणवाणं, तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति।
कठिन शब्दार्थ - एस. - यही, णाए - न्याय मार्ग - सन्मार्ग, परिणं - जान कर उसको त्याग करने का, उदाहरंति - उपदेश देते हैं।
भावार्थ - यही न्याय मार्ग (तीर्थंकरों का मार्ग) कहा गया है। इस संसार में मनुष्यों के जो दुःख (या दुःख के कारण) बताये हैं। कुशल पुरुष उस दुःख को जान कर उसको त्याग करने का उपदेश देते हैं अर्थात् दुःख से मुक्त होने का मार्ग बताते हैं।
(१५३) इइ कम्मं परिण्णाय सव्वसो।।
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