Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) @@RRRR@@@@@@@@@@@@@REG888888888888888888888888 सूत्रकार ने कहा है - 'पंतं लूहं सेवंति' वह साधक शरीर से धर्म साधना करने के लिए रूखासूखा, निर्दोष विधि से यथा प्राप्त भोजन का सेवन करे।
'समत्तदंसिणो' के स्थान पर 'सम्मत्तदंसिणो' पाठ भी मिलता है टीकाकार शीलांकाचार्य ने इसका पहला अर्थ 'समत्वदर्शी' तथा वैकल्पिक दूसरा अर्थ 'सम्यक्त्वदर्शी' किया है। यहाँ नीरस भोजन के प्रति समभाव' का प्रसंग होने से समत्वदर्शी अर्थ अधिक संगत लगता है।
आज्ञा का अनाराधक
(१५०) दुव्वसु मुणी अणाणाए, तुच्छए गिलाइ वत्तए।
कठिन शब्दार्थ - दुव्वसु - दुर्वसु - मोक्ष गमन के अयोग्य, अणाणाए - अनाज्ञयाःआज्ञा के बिना, तुच्छए - तुच्छ - ज्ञानादि से हीन, गिलाइ - ग्लानि का अनुभव करता है, . वत्तए - उत्तर देने, धर्म का कथन करने में असमर्थ।
भावार्थ - जो पुरुष वीतराग की आज्ञा का पालन नहीं करता वह दुर्वसु - मोक्ष गमन के अयोग्य, ज्ञानादि रत्नत्रयी से रहित है। वह ज्ञानादि से हीन होने के कारण प्रश्न का उत्तर देने में अथवा धर्म का निरूपण करने में ग्लानि का अनुभव करता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में आज्ञा की आराधना नहीं करने वाले मुनि के विषय में बताया है। जो साधक वीतराग की आज्ञा की आराधना नहीं करता वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप धन से दरिद्र हो जाता है क्योंकि 'आणाए मामगं धम्म' भगवान् की आज्ञा में ही धर्म कहा गया है। जहाँ आज्ञा पालन है, वहीं धर्म है। आज्ञा विपरीत आचरण का अर्थ है - संयम विरुद्ध आचरण। संयम से हीन पुरुष धर्म की प्ररूपणा करने में ग्लानि (लज्जा) का अनुभव करने लगता है। क्योंकि जब वह स्वयं धर्माचरण नहीं करेगा तो धर्मोपदेश का साहस कैसे कर सकेगा? अथवा ज्ञानादि से हीन होने के कारण जब कोई श्रावक आदि उससे कुछ प्रश्न पूछता है तब वह अपनी अज्ञानता के कारण उसका उत्तर देने में समर्थ नहीं होता है। इस कारण से भी इसके मन में ग्लानि उत्पन्न होती है। इसीलिए कहा है कि अनाराधक - भगवान् की आज्ञा की अवहेलना करने वाला, अपनी इच्छानुसार आचरण करने वाला पुरुष मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है।
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