Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दूसरा अध्ययन - छठा उद्देशक - एक काय के आरंभ से, छहों कायों का आरंभ १०५
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बीअं अज्झयणं छडोद्देसो द्वितीय अध्ययन का छठा उद्देशक
पांचवें उद्देशक में बताया गया है कि साधक निर्दोष आहारादि लेकर संयम का निर्वाह करे। छठे उद्देशक में बताया गया है कि मुनि को गृहस्थ के साथ ममत्व नहीं करना चाहिये । आसक्ति से होने वाले दुःखों को समझ कर साधक किसी प्रकार का पाप कार्य न करे। पांचों महाव्रतों का एक दूसरे के साथ संबंध रहा हुआ है। एक में दोष लगने पर दूसरा दूषित हुए बिना नहीं रहता। इस बात को भी इस उद्देशक में स्पष्ट किया गया है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
(१४१)
से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए तम्हा पावकम्मं णेव कुजा, ण 'कारवेज्जा ।
भावार्थ वह साधक हिंसक चिकित्सा के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जान कर आदानीय यानी ग्रहण करने योग्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र में समुद्यत हो जाता है अतः वह स्वयं पाप न करे और दूसरों से भी न करवाए।
विवेचन - पांचवें उद्देशक के अंतिम सूत्र में बताया है कि काम एवं हिंसक चिकित्सा अनेक दोषों से युक्त है। अतः साधु को उसके दुष्परिणाम को जान कर रत्नत्रयी में प्रवृत्ति करते हुए समस्त पाप कार्यों से बच कर रहना चाहिये अर्थात् सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मोक्ष मार्ग में रमण करने वाला अनगार स्वयं सावद्य कार्य न करे, दूसरों से भी न करवावे और करते हुए को भला भी न जाने ।
एक काय के आरंभ से, छहों कायों का आरंभ
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(१४२)
सिया तत्थ एंगयरं विप्परामुसइ, छसु अण्णयरंसि, कप्पड़ ।
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