Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) ®®RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE
कठिन शब्दार्थ - जे - जो, गुणे - शब्दादि गुण हैं, से - वह, मूलट्ठाणे - मूल स्थान, गुणट्ठी - गुणार्थी-विषयों का अभिलाषी, महया - महान्, परियावेणं - परिताप से, वसे पमत्ते - प्रमाद में वसता है, मे - मेरी, माया - माता, पिया - पिता, भाया - भाई, भइणी - बहिन, भज्जा - स्त्री, पुत्ता - पुत्र, धूया - पुत्री, सुण्हा-हुसा - पुत्र-वधू, सहि-सयण-संगथ-संथुया - मित्र, स्वजन, संबंधी, परिचित हैं, विवित्तोवगरण परिवट्टण भोयणच्छायणं - विविक्तोपकरण परिवर्तन भोजनाच्छादनं - विविध प्रकार के उपकरण हाथी घोड़े आदि वाहन परिवर्तन, भोजन और वस्त्र आदि, इच्चत्थं - इत्येवमर्थ - इस प्रकार के अर्थों में, गहिए लोए - आसक्त अज्ञानी जीव, वसे पमत्ते - प्रमत्त होकर निवास करता है।
भावार्थ - जो गुण (शब्दादि विषय) हैं वे ही कषाय रूप संसार के मूल स्थान हैं। जो मूल स्थान है वह गुण है। इस प्रकार विषयार्थी पुरुष महान् परिताप से पुनः पुनः प्रमत्त होकर संसार में निवास करता है।
वह सोचता है कि - "मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहिन है, मेरी स्त्री है, मेरे पुत्र हैं, मेरी पुत्री है, मेरी पुत्रवधू है, मेरे मित्र हैं, स्वजन हैं, संबंधी हैं, परिचित हैं मेरे विविध प्रकार के उपकरण (हाथी घोड़े रथ आदि) परिवर्तन (देने लेने की सामग्री), भोजन और वस्त्र हैं।"
इस प्रकार इन वस्तुओं को अपनी समझ कर, मेरे पन (ममत्व) में आसक्त हुआ अज्ञानी पुरुष प्रमत्त होकर निवास करता है।
विवेचन - प्रथम अध्ययन के पांचवें उद्देशक के सूत्र क्रमांक ३६ 'जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे' में गुण (पांच इन्द्रियों के विषय) को आवर्त कहा है और प्रस्तुत सूत्र में 'गुण' को 'मूलस्थान' कहा है। रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द, ये पांच गुण हैं। इनमें मनोज्ञ में राग
और अमनोज्ञ में द्वेष उत्पन्न होता है। रागद्वेष की जागृति से कषाय की वृद्धि होती है अतः ये राग द्वेष ही संसार के मूल कारण हैं। इसी बात को दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ८ की गाथा ४० में इस प्रकार कहा है -
कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभी य पव्वहुमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइं पुणब्भवस्स॥ ४०॥
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उमाणा। .
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