Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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___ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) @@@@@ @@@@RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE श्रमण के उपर्युक्त तीनों विशेषण बहुत सार्थक हैं। ___निर्दोष आहार ग्रहण .
. (१२४) .. • सव्वामगंधं परिण्णाय णिरामगंधो परिव्वए।
कठिन शब्दार्थ - सव्वामगंधं - सर्व प्रकार के अशुद्ध और आधाकर्मादि दोषों से दूषित अग्रहणीय आहार को, णिरामगंधो - निर्दोष आहार के लिए। । भावार्थ - साधु सर्व प्रकार के अशुद्ध और आधाकर्म आदि दोषों से दूषित अग्रहणीय आहार को ज्ञपरिज्ञा से जान कर तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा त्याग कर निर्दोष आहार ग्रहण करता हुँमा संयम में विचरे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'सव्वामगंध' और "णिरामगंधो' शब्दों में आये हुए 'आम' और 'गंध' शब्दों का अर्थ इस प्रकार है - "आम" का अर्थ है - अविशोधिकोटि नामक मूल गुण के दोष तथा 'गंध' का अर्थ है - विशोधिकोटि रूप उत्तर गुण के दोष। इस प्रकार मूल गुण और उत्तरगुण रूप दोषों से रहित चारित्र का पालन करना "णिरामगंधो" कहा जाता है। दोनों प्रकार के दोषों का होना "सव्वामगंध" कहा जाता है। स्थानांग सूत्र के 6 वें स्थान में नव-कोटियों का वर्णन किया गया है वह इस प्रकार हैं। . १, २, ३ किणण कोटि - स्वयं खरीदना, दूसरों से खरीदवाना तथा खरीदने वालों का अनुमोदन करना।
४, ५, ६ हनन कोटि - स्वयं हिंसा करना, दूसरों से हिंसा करवाना तथा हिंसा करने वाले का अनुमोदन करना।
७, ८, ६ पचन कोटि - आहार आदि को स्वयं पकाना, दूसरों से पकवाना तथा पकाने वालों का अनुमोदन करना। __ उपर्युक्त नव-कोटि में से किणण कोटि को विशोधिकोटि कहा जाता है। हनन कोटि और पचन कोटि को अविशोधिकोटि कहा जाता है। श्रमण निर्ग्रन्थों को उपर्युक्त नव कोटि से . परिशुद्ध आहार आदि ग्रहण करना चाहिये।
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