Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दूसरा अध्ययन - पांचवाँ उद्देशक - अनगार के तीन विशेषण
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अनगार के तीन विशेषण
(१२३)
समुट्ठिए अणगारे आरिए आरियपण्णे, आरियदंसी, अयं संधित्ति, अदक्खु, आर्य बुद्धि वाला,
से जाइए, णाइआवए, णाइयंते समणुजाण ।
आर्य प्रज्ञ
कठिन शब्दार्थ - आरिए - आर्य, आरियपणे आरियदंसी - आर्यदर्शी, संधि - संधि - भिक्षा काल अथवा सुअवसर ।
भावार्थ - संयम साधना में तत्पर आर्य, आर्यप्रज्ञ और आर्यदर्शी अनगार प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करता है । ऐसा साधु भिक्षा के समय को देख कर भिक्षा के लिए जावे । वह सदोष आहार स्वयं ग्रहण न करे, दूसरों से भी ग्रहण न करावे और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करे।
विवेचन गृहस्थ अपने लिए अथवा अपने संबंधियों के लिए अनेक प्रकार का भोजन तैयार करते हैं। भोग निवृत्त गृह त्यागी श्रमण के लिए शरीर निर्वाहनार्थ भोजन की आवश्यकता होती है अतः अनगार, गृहस्थों के लिए बने हुए भोजन में से निर्दोष भोजन यथासमय यथाविधि प्राप्त करे ।
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गृहस्थ के घर जिस समय भिक्षा प्राप्त हो सकती है, उस अवसर का ज्ञान अनगार के लिए होना बहुत आवश्यक है। अलग-अलग देश और काल में भिक्षा का समय अलग-अलग होता है। जिस देश काल में भिक्षा का जो उपयुक्त समय हो, वही भिक्षाकाल माना जाता है। दशवैकालिक सूत्र के पांचवें पिण्डैषणा नामक अध्ययन में भिक्षाचरी का काल, विधि दोष आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। जिज्ञासुओं को वहाँ से देख लेना चाहिए।
प्रस्तुत सूत्र में अनगार के लिए प्रयुक्त तीन विशेषणों का अर्थ इस प्रकार हैं
१. आर्य - श्रेष्ठ आचरण वाला अथवा गुणी । शीलांकाचार्य के अनुसार आर्य का अर्थ है - जिसका अंतःकरण निर्मल हो ।
२. आर्यप्रज्ञ - जिसकी बुद्धि परमार्थ की ओर प्रवृत्त हो, वह आर्यप्रज्ञ है।
३. आर्यदर्शी - जिसकी दृष्टि गुणों में सदा रमण करे अथवा न्यायमार्ग का द्रष्टा आर्यदर्शी कहलाता है।..
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