Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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कभी कभी भी
ॐ श्री
विवेचन
आहार आदि पदार्थ ग्रहण करते समय केवल सदोषता- निर्दोषता का ज्ञान करना ही पर्याप्त नहीं है अपितु उसके परिमाण का भी ज्ञान आवश्यक है। सामान्यतया भोजन की मात्रा साधु के लिए बत्तीस कवल प्रमाण और साध्वी के लिए अट्ठाईस कवल प्रमाण आगमों में भगवान् ने बताई है । साधु साध्वी को इससे कुछ कम मात्रा में ही आहार करना चाहिये ताकि प्रमाद नहीं हो और रत्नत्रयी की सम्यक् साधना हो सके ।
'मात्रा' शब्द को आहार के अतिरिक्त वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों के साथ भी जोड़ना चाहिये अर्थात् प्रत्येक ग्राह्य वस्तु की आवश्यकता को समझे और जितना आवश्यक हो उतना ही ग्रहण करे ।
आचारांग सूत्र ( प्रथम श्रुतस्कन्ध )
ॐ ॐ ॐ ॐ ४ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ४ श्री
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ममत्व - परिहार (१२)
लाभुत्ति ण मज्जिजा, अलाभुत्ति ण सोइज्जा, बहुपि लद्धुं ण णिहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसंकिज्जा, अण्णहा णं पासए परिहरिज्जा ।
कठिन शब्दार्थ - लाभुत्ति लाभ होने पर, मज्जिज्जा - मद (अहंकार) करे, अलाभुत्तिलाभ नहीं होने पर, सोइज्जा - शोक करे, णिहे - संग्रह ( संचय) करे, अवसंकिज्जा दूर रखे, परिहरिज्जा - वर्जन (त्याग) करे ।
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भावार्थ आहार आदि इच्छित मात्रा में प्राप्त हो जाने पर साधु गर्व न करे और लाभ न होने पर शोक न करे। यदि अधिक मात्रा में प्राप्त हो तो उसका संग्रह न करे। परिग्रह से अपने को दूर रखे। परिग्रह को अन्य प्रकार से देखे ( जिस प्रकार गृहस्थ परिग्रह को ममत्व भाव से देखते हैं उस प्रकार से न देखे) और परिग्रह का त्याग करे ।
विवेचन 'लाभुत्ति ण मज्जिज्जा...' सूत्र से सूत्रकार ने साधक को अभिमान, शोक और परिग्रह इन तीन मानसिक दोषों से बचने का निर्देश दिया है।
किसी समय साधु को पर्याप्त आहार आदि मिल जाय तो गर्व नहीं करे कि 'मैं बड़ा ही भाग्यवान् हूँ' तथा आहारादि न मिले तो यह शोक नहीं करे कि 'मैं कैसा अभागा हूँ जो समस् वस्तुओं को देने वाले दाता के विद्यमान होते हुए भी मैं कुछ प्राप्त नहीं कर सकता ।' किन्तु "साधु लाभालाभ में समभाव रखे। यदि कभी साधु को आहार आदि अधिक मात्रा में मिल जाय तो उनका संचय - संग्रह (परिग्रह) नहीं करे ।
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