Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध)
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उससे छिन लेते हैं या वह नष्ट-विनष्ट हो जाती है अथवा कभी घर में आग लग जाने से जल जाती है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि जो धन वैभव आज दिखाई दे रहा है वह कल विनष्ट हो सकता है। धन संपत्ति के नष्ट होने के अनेक कारण उपस्थित हो सकते हैं जैसे बेटे पोते आदि उस संपत्ति को बंटा लेते हैं, चोर चुरा लेते हैं, राजा उसे छिन लेते हैं, आग लगने से धन जल कर समाप्त हो जाता है आदि। इस प्रकार संपत्ति के स्थिर रहने का कोई निश्चय नहीं है। .
(६६) इइ से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण संमूढे विप्परियासमुवेइ। ___ कठिन शब्दार्थ - परस्स अट्ठाए - दूसरों के लिए, कुराई - क्रूर, कम्माई- कर्म, पकुव्वमाणेकरता हुआ, संमूढे - सम्मूढ-विवेक शून्य, विप्परियासमुवेइ - विपर्यास भाव को।
' भावार्थ - इस प्रकार वह अज्ञानी पुरुष दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ उस पाप से उत्पन्न दुःख से मूढ बन कर विपर्यास भाव को प्राप्त हो जाता है, कर्तव्याकर्त्तव्य के विवेक से हीन हो जाता है।
विवेचन - अज्ञानी पुरुष धनोपार्जन के निमित्त नाना प्रकार का आरंभ करते हैं किन्तु वह धन उनके लिए त्राण और शरण रूप नहीं होता।
(६७)
मुणिणा हु एवं पवेइयं। . भावार्थ - मुनि-तीर्थंकर देव ने यह प्रतिपादन किया है कि अज्ञानी (मूढ) जीव क्रूर कर्म करके सुख के स्थान पर बार-बार दुःख प्राप्त करता है।
(६८) अणोहंतरा एए, णो य ओहं तरित्तए, अतीरंगमा एए, णो य तीरं गमित्तए। अपारंगमा एए णो य पारं गमित्तए।
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