Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 鄉鄉鄉事事部部聯部部帶來率部參參參參參參*部***事*參參參參事部举办华邵邵邵华密密事部部 उत्पन्न हो जाते हैं। जिन माता-पिता, स्त्री, पुत्रादि के लिए मनुष्य जी जान लड़ा कर तथा अनेकों कष्टों की परवाह न करके धन का उपार्जन करता है वे आत्मीयजन उस मनुष्य की रोगावस्था में त्राण-शरण रूप नहीं हो सकते।
(१०४) जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं।
भावार्थ - प्रत्येक प्राणी को अपना-अपना दुःख और सुख भोगना पड़ता है ऐसा, जान कर रोगों से नहीं घबराए और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे।
(१०५)
भोगामेव अणुसोयंति इहमेगेसिं माणवाणं, तिविहेण, जावि से तत्थ मत्ता भवइ-अप्पा वा, बहुया वा, से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोयणाए।
कठिन शब्दार्थ - अणुसोयंति - शोक करते हैं, माणवाणं - मनुष्यों को।
भावार्थ - कुछ मनुष्य भोगों के विषय में ही सोचते रहते हैं। तीन करण तीन योग से अल्प या बहुत मात्रा में एकत्रित की हुई धन संपत्ति के उपभोग के लिए वह मनुष्य अत्यंत आसक्त रहता है।
(१०६) तओ से एगया विपरिसिढे संभूयं महोवगरणं भवइ, तंपि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से हरइ, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सइ वा से, विणस्सइ वा से, अगारदाहेण वा से डज्जइ।
भावार्थ - तदनन्तर किसी समय धनोपार्जन करते हुए उस पुरुष के लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से भोग के बाद बची हुई विपुल सम्पत्ति के कारण वह महान् उपकरण (वैभव) वाला हो जाता है किन्तु कभी ऐसा समय आता है जब उस संपत्ति को दायाद - भाई बन्धु आदि बांट लेते हैं अथवा चोर उसे चुरा लेते हैं राजा उसे छीन लेते हैं अथवा अन्य प्रकार से उसकी संपत्ति नष्ट-विनष्ट हो जाती है, गृह दाह आदि से जलकर भस्म हो जाती है।
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