Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दूसरा अध्ययन - चौथा उद्देशक - भोगेच्छा, दुःख का कारण
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. . (१०७) इइ से बाले परस्स अट्ठाए कूराणि कम्माणि पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ।
भावार्थ - इस प्रकार दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ वह बाल अज्ञानी उस पाप से उत्पन्न दुःख से मूढ बन कर विपर्यास भाव को प्राप्त होता है-कर्त्तव्याकर्त्तव्य के विवेक से हीन हो जाता है।
विवेचन - अज्ञानी पुरुष धनोपार्जन के लिए नाना प्रकार का आरम्भ करता है किन्तु वह धन उसके लिए त्राण शरण रूप नहीं होता। वह अपने कृत कर्मों के कारण विविध प्रकार के दुःखों को भोगता है।
. (१०८) आसं च छंदं च विगिंच धीरे।
कठिन शब्दार्थ - आसं - आशा को, छंदं - स्वच्छंदता को, विगिंच - त्याग दो, धीरे - हे धीर पुरुष!
भावार्थ:- हे धीर पुरुष! तुम आशा और स्वच्छंदता (मनमानी करने) का त्याग कर दो।
विवेचन - हिताहित के ज्ञान में दक्ष धीर पुरुष को लक्ष्य करके शास्त्रकार कहते हैं कि हे धीर! तुम, आशा को यानी विषय तृष्णा एवं स्वेच्छाचारिता को छोड़ दो। क्योंकि आशा से केवल दुःख ही प्राप्त होता है परन्तु भोग प्राप्त नहीं होते। भोगेच्छा, दुःख का कारण
(१०६) तुमं चेव तं सल्लमाटु। भावार्थ - उस भोगेच्छा रूप शल्य का सर्जन तुमने स्वयं ने किया है। ।
(११०) जेण सिया तेण णो सिया। भावार्थ - जिस भोग सामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख नहीं भी होता है।
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