Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 80804808888888888
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लोभ परित्याग
(७६) विमुत्ता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो लोभं अलोभेण दुगुंछमाणे लद्धे कामे णाभिगाहइ, विणा वि लोभं णिक्खम्म एस अकम्मे जाणइ पासइ। पडिलेहाए णावकंखइ, एस अणगारेत्ति पवुच्चइ।
कठिन शब्दार्थ - विमुत्ता - विमुक्त, पारगामिणो - पारगामी, लोभं - लोभ को, अलोभेण - अलोभ (संतोष) से, दुगुंछमाणे - घृणा (तिरस्कार) करते हुए, णाभिगाहइ - सेवन नहीं करते हैं, णिक्खम्म - दीक्षा ले कर, अकम्मे - अकर्म - कर्म मल से रहित, पडिलेहाए - प्रतिलेखना कर, णावकंखइ - नहीं चाहता है।
__ भावार्थ - जो कामभोगों के दलदल से पारगामी हैं अर्थात् जिन्होंने रत्नत्रयी को प्राप्त कर लिया है वे ही वास्तव में मुक्त हैं। अलोभ (निर्लोभता-संतोष) से लोभ को जीतता हुआ साधक कामभोगों के प्राप्त होने पर भी उनका सेवन नहीं करता है। जो लोभ से निवृत्त होकर दीक्षित होता है वह अकर्म/कर्म से रहित हो कर सब कुछ जानता देखता है। जो प्रतिलेखना कर विषय-कषायों आदि के परिणाम का विचार कर उनकी इच्छा नहीं करता है, वही अनगार कहलाता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि लोभ का त्याग करने वाला ही साधना पथ पर आगे बढ़ सकता है। यहां लोभ की तरह कषाय के अन्य तीन भेदों - क्रोध, मान, माया को भी समझ लेना चाहिये। लोभ को अलोभ से, क्रोध को क्षमा से, मान को मृदुता से और माया को ऋजुता से जीतना चाहिये। जैसा कि कहा है -
यथाहारपरित्यागः ज्वरितस्यौषधं तथा। लोभस्यैवं परित्यागः असंतोषस्य भेषजम्॥
अर्थ - जिस प्रकार बुखार वाले व्यक्ति के लिये आहार त्याग (उपवास) करना औषधि है इसी प्रकार लोभ का त्याग करना तृष्णा (असंतोष) की औषधि है। ___विणा वि लोभं' का आशय है कि जो पुरुष लोभ रहित हो कर दीक्षित होते हैं वे भरत चक्रवर्ती की तरह शीघ्र ही केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त कर अव्याबाध सुखों के स्वामी बन
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