Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दूसरा अध्ययन - तृतीय उद्देशक - प्रमादजन्य दोष
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कठिन शब्दार्थ - तवो - अनशन आदि तप, दमो - दम-इन्द्रिय-निग्रह, प्रशमभाव, णियमो - नियम-अहिंसादिव्रत, जीविउकामे - असंयम जीवन की इच्छा करता हुआ, लालप्पमाणे - भोगों के लिए प्रलाप करता हुआ, विप्परियासमुवेइ - विपर्यास - विपरीत भाव - सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है। . भावार्थ - भोगासक्त परिग्रही पुरुष, 'इस संसार में तप, दम और नियमों का कुछ भी फल दिखाई नहीं पड़ता है' इस प्रकार कहता हुआ बाल-अज्ञानी जीव असंयम जीवन की कामना करता है और विषय भोगों के लिए अत्यंत प्रलाप करता हुआ वह मूढ विपर्यास - सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है।
विवेचन - सम्यग्ज्ञान से रहित विषयासक्त प्राणी कर्मजन्य फल को नहीं जानते हैं अतः वे तप, संयम, नियम आदि पर विश्वास नहीं करके भौतिक सुख साधनों में ही आसक्त रहते हैं और उन्हीं में सुख की अनुभूति करते हुए विपरीत बुद्धि को प्राप्त होते हैं।
(६०) इणमेव णावकंखंति, जे जणा धुवचारिणो। जाइमरणं परिणाय, चरे संकमणे दढे।
कठिन शब्दार्थ - णावकंखंति - इच्छा नहीं करते हैं, धुवचारिणो - ध्रुवचारी-मोक्ष साधक .- रत्नत्रयी का सम्यक् आचरण करने वाले, जाइमरणं - जन्म और मरण को, परिणाय - जान कर, संकमणे - संयम-चारित्र में, दढे - दृढ़ होकर। . भावार्थ - जो पुरुष ध्रुवचारी-मोक्ष साधक हैं वे ऐसे असंयमी जीवन की चाहना नहीं करते हैं अतः जन्म मरण के चक्र को जानकर संयम में दृढ़ता पूर्वक विचरे। - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'धुवचारिणो' का अर्थ है - 'ध्रुवो मोक्षस्तत्कारणं च ज्ञानादि ध्रुवं तदाचरितुंशीलं येषां ते' अर्थात् - ध्रुव नाम मोक्ष का है अतः उस के साधन भूत ज्ञानादि साधन भी ध्रुव कहलाते हैं। उनका सम्यक्त्या आचरण करने वाला 'ध्रुवचारी' कहलाता है। इसके अतिरिक्त 'धूतचारिणो' पाठान्तर भी मिलता है। इसका अर्थ है - "धुनातीति धूतं चारित्रं तच्चारिणः" अर्थात् कर्म रज को धुनने-झाड़ने वाले साधन को ‘धूत' कहते हैं। सम्यक् चारित्र से कर्म रज की निर्जरा होती है। अतः सम्यक् चारित्र को धूत कहा है और उसकी आराधना करने वाले मुनि को 'धूतचारी' कहा गया है।
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