Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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. आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) .. RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR88888888888888888888
विवेचन - पृथ्वीकाय तथा पृथ्वी के आश्रित और तृण, पत्र, काष्ठ, गोबर तथा कचरे के आश्रित जीव एवं पतंग, भ्रमर, मक्खी, मच्छर आदि उड़ने वाले जीव अग्नि का स्पर्श पाकर घायल हो जाते हैं, मूर्छित हो जाते हैं और जल कर भस्म हो जाते हैं। अतः अग्नि के आरम्भ को छह काय जीवों का घातक होने से पाप का कारण जान कर उसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।
एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेए आरंभा अपरिण्णाया भवंति एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेए आरंभा परिण्णाया भवंति।
भावार्थ - इस प्रकार अग्निकायिक जीवों पर शस्त्र का समारम्भ करने वाला पुरुष वास्तव में इन आरम्भों - हिंसा संबंधी प्रवृत्तियों के कटु परिणामों एवं जीव की वेदना से अपरिज्ञात - अनजान है। जो इन. अग्निकायिक जीवों पर शस्त्र का प्रयोग नहीं करता वह इन आरम्भों का ज्ञाता होता है।
विवेचन - अग्निकाय (तेजस्काय) जीव है इसलिए उसका आरम्भ करना पाप का. कारण है, यह जब तक जीव नहीं जानता है तब तक उसका त्याग नहीं कर सकता है। जो पुरुष अग्निकाय के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानता है वही अग्निकाय के आरम्भ का त्यागी हो सकता है। आरम्भ में लगा पुरुष हिंसा संबंधी प्रवृत्तियों के कटु परिणामों से अनजान होता है तथा जो हिंसा संबंधी प्रवृत्तियों एवं जीवों की वेदना का ज्ञाता होता है वह हिंसा से मुक्त होता है।
अग्निकायिक जीव हिंसा का निषेध - - (३७)
. तं परिण्णाय मेहावी व सयं अगणिसत्थं समारंभेजा, णेवण्णेहिं अगणिसत्थं समारंभावेजा, अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे ण समणुजाणेजा। जस्स एए अगणिकम्मसमारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि।
___॥ पढमं अज्झयणं चउत्थोईसो समत्तो॥ __ भावार्थ - बुद्धिमान् पुरुष तेउकाय (अग्निकाय) के आरम्भ-समारम्भ को कर्म बन्ध का
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