Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भावार्थ इस प्रकार अप्कायिक जीवों पर शस्त्र का समारम्भ करने वाला पुरुष वास्तव में इन आरम्भों -हिंसा संबंधी प्रवृत्तियों के कटु परिणामों एवं जीवों की वेदना से अपरिज्ञातअनजान है। जो इन अप्कायिक जीवों पर शस्त्र का प्रयोग नहीं करता वह इन आरम्भों का ज्ञात होता है।
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प्रथम अध्ययन - चतुर्थ उद्देशक
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बुद्धिमान् पुरुष अप्काय के आरम्भ समारम्भ को कर्मबन्ध का कारण जान कर स्वयं अप्काय का समारम्भ न करे, न दूसरों से अप्काय का समारम्भ करवाएं और अप्काय का समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करे ।
जिसने अप्काय के समारम्भ को जान कर त्याग दिया है वही मुनि परिज्ञातकर्मा होता है - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन
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अप्काय जीव है, इसलिए उसका आरम्भ करना पाप का कारण है, यह जब तक जीव नहीं जानता है तब तक उसका त्याग नहीं कर सकता है। जो हिंसा संबंधी प्रवृत्तियों एवं जीवों की वेदना का ज्ञाता होता है वह हिंसा से मुक्त होता है । प्रस्तुत उद्देशक का सार यही है कि अप्कायिक जीवों पर किये जाने वाले शस्त्र प्रयोग से उन जीवों को वेदना होती है और यह कर्मबंध का कारण है ऐसा जान कर मुमुक्षु प्राणी तीन करण तीन योग से अप्कायिक जीवों की हिंसा का त्याग करे।
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'त्तिबेमि' अर्थात् श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना था उसी प्रकार मैं तुम्हें कहता हूँ ।
॥ इति प्रथम अध्ययन का तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ पढमं अज्झयणं चउत्थो उद्देसओ
प्रथम अध्ययन का चतुर्थ उद्देशक
प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देशक में अप्कायिक जीवों की सजीवता का बोध करा कर उनको अभयदान देने की प्रेरणा की गयी है। प्रस्तुत चतुर्थ उद्देशक में सूत्रकार तेजस्काय ( अग्निकाय) की सजीवता का वर्णन करते हैं जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है
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