Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध)
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अग्निकाय की सजीवता
(२८) से बेमि-णेव सयं लोयं अन्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइक्खेजा, जे लोयं अन्भाइक्खड़, से अत्ताणं अन्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोयं अब्भाइक्खइ।
भावार्थ - मैं कहता हूँ कि बुद्धिमान् पुरुष (मुनि) स्वयं लोक यानी अग्निकाय के जीवों के अस्तित्व का अपलाप न करे तथा न अपनी आत्मा का अपलाप करे। जो पुरुष लोक का यानी अग्निकायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप करता है वह आत्मा का अपलाप करता है
और जो आत्मा का अपलाप करता है वह लोक - तेजस्कायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप करता है।
विवेचन - यहाँ 'लोक' शब्द से अग्निकाय रूप 'लोक' लिया गया है। प्रस्तुत सूत्र में अपनी आत्मा एवं अग्निकायिक जीवों की आत्मा के साथ तुलना करके तेजस्काय-अग्निकाय में चेतना-सजीवता है, इस बात को सिद्ध किया है। किसी सचेतन की सचेतना अस्वीकार करना अर्थात् उसे अजीव मानना अभ्याख्यान दोष है, उसकी सत्ता पर झूठा दोषारोपण करना है तथा दूसरे की सत्ता का अपलाप - अस्वीकार अपनी आत्मा का ही अपलाप है। ____ उष्णता और प्रकाश, ये दोनों गुण अग्नि की सजीवता के परिचायक हैं। इसके अलावा अग्नि वायु के बिना जीवित नहीं रह सकती। भगवती सूत्र शतक १६ उद्देशक १ में कहा भी है'ण विणा वाउणाएणं अगणिकाए उज्जालइ' यदि अग्नि निर्जीव होती तो अन्य निर्जीव पदार्थों की तरह वह भी वायु के अभाव में अपने अस्तित्व को स्थिर रख पाती। किन्तु ऐसा होता नहीं है। अतः अग्नि की सजीवता स्पष्ट प्रमाणित होती है।
तेजस्काय की सजीवता को प्रमाणित करके अब आगमकार अग्नि के आरंभ से निवृत्त होने का उपदेश देते हुए कहते हैं -
(२६) जे दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे, जे असत्थस्स खेयण्णे, से दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे।
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