Book Title: Stutividya
Author(s): Samantbhadracharya, 
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 匠气西 स्वामी समन्तभद्र Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jalinelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्या वीरमेवामन्दिर अन्यमाला श्रीमत्स्वामिसमन्तभद्राचार्यविरचिना स्तुतिविद्या (जिनशतक) [समन्तभद्र-भारतीका एक अंग] श्रीवसुनन्द्याचार्यकृत संस्कृतटीकासे अलंठत तथा हिन्दी अनुवादसे युक्त अनुवादक साहित्याचार्य पं. पन्नालाल जैन 'वसन्त' अध्यापक 'गणेश-दिगम्बर जैन-संस्कृविद्यालय' सागर प्रस्तावनालेखक जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' प्रधान सम्पादक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' प्रकाशक वीर-सेवा-मन्दिर देहली (दरियागंज) प्रथमावृत्ति ! वीर-शामन-जयन्ती, संवत १६ १००० प्रनि । वि० सं० २००७, ३० जुलाई २६ द्वितियावृत्ति वि. सं. २०४८, ३० जुलाई १९१२ १५०० . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रम - 1 6 MY x x x १. प्रकाशकीय वनाव्य २. धन्यवाद ३. अनुवादकके दो शब्द ४. प्रस्तावना प्रन्थनाम प्रन्थ-परिचय प्रन्थरचनाका उद्देश्य (स्पष्टीकरण-सहित) वीतरागमे प्रार्थना क्यों ? (ससाधान-सहित) प्रन्थकार-परिचय टीकाकारादि-परिचय ५. मंगलाचरण ६. स्तुतिविद्या सटीक और सानुवाद १-१४२ ७. स्तुतिविद्याके पद्योंका वोऽनुक्रम १४३ ८. परिशिष्ट १४६ -१५६ चित्रालङ्कार-विषयक कुछ सामान्य नियम १४६ काव्य-चित्रोंके कुछ उदाहरण ( परिचायक सूचनाओंके साथ) १४७-१५६ ६. अशुद्धि-संशोधन Mi कुल पृष्ठसंख्या - २०२ राजहंस प्रेस. सदर बाजार, देहली AMAAN PRINTING PRESS, Nanpura, Surat. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य सन् १९४० में स्वामी समन्तभद्रके सभी उपलब्ध ग्रन्थोंका एक बहुत बढ़िया संस्करण : .'समन्तभद्रभारती' के नामसे, विशिष्ट हिन्दी अनुवादादिके साथ, वीर-सेवा-मन्दिरसे निकालनेका विचार मेरे मनमें उत्पन्न हुआ था, जिसे अनेक विद्वानोंने बहुत पसन्द किया था। इस ग्रन्थराजका कार्य सुचारु रूपसे शीघ्र सम्पन्न होनेके लिये जब विद्वानोंके सामने सहयोगकी योजना रखी गई तो कई विद्वानोंने बिल्कुल सेवा. भावसे स्वामी समन्तभद्रके ऋणसे कुछ उऋण होनेके खया. लसे-एक-एक ग्रन्थके अनुवाद कार्यको बाँट लिया। चुनाँचे अक्तबर सन् १९४० के 'अनेकान्त' की कि ण १२ में जब वीर सेवामन्दिरकी विज्ञप्ति-द्वारा 'समन्तभद्रभारतीकी प्रकाशनयोजना' प्रकट की गई और उसकी सारी रूप-रेखा स्पष्ट की गई तब उसमें बड़ी प्रसन्नताके साथ यह घोषणा की गई थी कि:___ "पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्यने 'बृहत् स्वयम्भूस्तोत्र' का, पं० फूलचन्द्रजी शास्त्रीने 'युक्त्यनुशासन' का, पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यने 'जिनशतक' नामकी स्तुतिविद्याका और न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने 'देवागम' नामक प्राप्तमीमांसाका अनुवाद करना सहर्ष स्वीकार किया है-कई विद्वानोंने अपना अनुवादकार्य प्रारम्भ भी कर दिया है। अबशिष्ट 'रत्नकरण्डक' नामक उपासकाध्ययनका अनुवाद मेरे हिस्से में रहा हैं, प्रस्तावना तथा जीवन-चरित्र लिखनेका भार भी मेरे ही भर रहेगा, जिसमें मेरे लिये अनुवादकों तथा दूसरे विद्वानोंका सहयोग भी वांछनीय होगा।" Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या पं० वंशीधरजीने अनुवाद-कार्य प्रारम्भ जरूर किया था। और उसका कुछ नमूना मुझे देखने आदिके लिये भेजा भी था। पं० फूलचन्द्रजी और पं० महेन्द्रकुमारजीने अपना-अपना अनुवादकार्य प्रारम्भ किया या कि नहीं, यह मुझे कुछ मालुम नहीं हो सका, परन्तु ये तीनों ही विद्वान अपनी-अपनी कुछ परिस्थितियोंके वश नियत अनुवादको प्रस्तुत करके देने में समर्थ नहीं हो सके, जिसका मुझे बड़ा अफसास रहा। और इस लिये 'रत्नकरण्डक' का अनुवाद समाप्त करने के कुछ अर्से बाद मैंने स्वयम्भूस्तोत्र के अनुवाद को स्वयं अपने हाथमें लिया और प्रतिज्ञाबद्ध होकर नियमसे उसका कुछ-न-कुछ कार्य प्रतिदिन करता ही रहा। साथ ही उसे अनेकान्तमें 'समन्तभद्रभारतीके कुछ नमूने' शीर्षकके नीचे प्रकाशित करना भी प्रारम्भ करदिया, जिससे कहीं कुछ भूल हो तो वह सुधरजाय । उसकी समाप्तिके बाद 'युक्त्यनुशासन' के अनुवाद को भी हाथमें लिया गया । यह अनुवाद अभी एक तिहाईके करीब ही हो पाया था कि कानपुरमें दि० जैनपरिषद्के अधिवेशनपर अपने बाक्सके चोरी चले जानेपर वह भी साथमें चला गया ! उसके इस प्रकार चोरी चले जानेपर चिचको बहुत श्राघात पहुँचा और फिर अर्से तक उस अनुवाद कार्य में प्रवृत्ति ही नहीं हो सकी। आखिर अपनी एक वर्षगांठके अवसर पर उस अनुवाद की भी प्रतिज्ञा लोगई और तबसे वह नियमित रूपसे बराबर होता रहा तथा समाप्त हो गया । उसे भी अनेकान्तमें प्रकाशित किया जाता रहा है। इस तरह मेरे द्वारा तीन ग्रन्थोंका अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। 'देवागम' का अनुवाद भी अब मुझे ही करना है; क्योंकि इस बीचमें एक दूसरे विद्वानको भी उसका अनुवाद दिया गया था परन्तु कई वर्ष हो जाने पर भी वे उसे करके नहीं दे सके; तब उसका भी अनुवाद स्वयं ही करनेका Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य विचार स्थिर किया गया। पं० पन्नालालजी 'वसन्त' अपना वह अनुवाद बहुत वर्ष पहले ही भेज चुके थे जो इस प्रन्थ के साथ प्रकाशित हो रहा है। कितने ही वर्षतो यह समन्तभद्रभारतीके अन्य ग्रन्थोंके अनुवाद. की प्रतीक्षामें पड़ा रहा और जब विद्वानोंके सहयोगाभाव तथा प्रेस और कागजकी कुछ परिस्थितियोंके वश समन्तभद्रभारतीका अभी उस रूपमें प्रकाशित करना अशक्य जान पड़ा जिसरूपमें उसके प्रकाशनकी सूचना उक्त विज्ञप्तिमें की गई थी तब समन्तभद्रभारतीके ग्रन्थोंको प्रारम्भमें अलग-अलग प्रकाशित करनेका ही निश्चय करना पड़ा । तदनुसार सबसे पहले 'स्वयम्भूस्तोत्र' को प्रेसमें दिया गया। यह ग्रन्थ अर्सेसे प्रेसमें ही छपा हुआ रक्खा है । इसकी अभीष्ट प्रस्तावना लिखनेका मुझे अभी तक अवसर नहीं मिल सका, इसीसे प्रकाशमें नहीं लाया जा सका। अब इस ग्रन्थके बाद जल्दी ही प्रकाशमें पाएगा और उसके अनन्तर 'युक्त्यनुशासन' तथा 'समीचीन धर्मशास्त्र' नामसे रत्नकरण्डक भी अपने भाष्यसहित प्रकाशमें लाया जाएगा। पिछले ग्रन्थकी ४-५ कारिकाओंके भाष्यका नमूना अनेकान्तमें प्रकाशित हो चुका है , और इससे अनेक सज्जन उस भाष्यको देखने के लिये भी बहुत ही उत्कंठित हैं। प्रेस तथा कागज आदिकी कुछ परिस्थितियोंके वश प्रस्तुत ग्रन्थ अभी तक प्रेसमें नहीं दिया जासका था और इसके कारण अनुवादकजीको कितनी ही प्रतीक्षा करनी पड़ी, जिसका मुझे खेद है । साथ ही उनका यह धैर्य प्रशंसनीय है और इसके लिये मेरे हृदय में स्थान है। अपने इस अनुवादके लिये वे समाजके धन्यवाद-पात्र हैं। इस ग्रन्थका एक संस्करण आजसे कोई ३८ वर्ष पहले सन् १९१२ में स्वर्गीय पं० पन्नालालजी बाकलीवालने पं० लालारामजी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या के अनुवादके साथ काशीसे प्रकाशित किया था, जो आजकल प्रायः अप्राप्य है । उस संस्करणसे वर्तमान संस्करण अनुवादके अलावा पाठ-शुद्धि, प्रस्तावना, पद्यानुक्रम और चित्रालंकारों के स्पष्टीकरण आदिकी दृष्टिसे अपनी खास विशेषता रखता है और अधिक उपयोगी बन गया है। अन्तमें मुझे यह प्रकट करते हुए बड़ा ही खेद होता है कि प्रफरीडिंगमें बहुत कुछ सावधानो रक्खे जानेपर भी परावीनताके अभिशापरूप तीन पेजके करीबका शुद्धिपत्र लगाना पड़ा है। अस्तु ; कुछ प्रकाशक अपनी छपाईके दोषको छिपानेके लिये साथमें शुद्धिपत्रका लगाना पसंद नहीं करते जबकि उनके प्रकाशनोंमें बहुत कुछ अशुद्धियाँ होती हैं परन्तु अपनेको वैसा करके दूसरोंको अंधेरेमें रखना इष्ट नहीं है और इसीसे 'अशुद्धि-संशोधन'का साथमें लगाना आवश्यक समझा गया है। देहली (दरियागंज) ता० २३ जुलाई १९५० जुगलकिशोर मुख़्तार अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 口全全全全全全全全全全全全全全全会公 paddindi n g धन्यवाद ___ समन्तभद्र-भारतीके अंगस्वरूप 'स्तुतिविद्या' नामक इस सुन्दर ग्रन्थके प्रकाशनका श्रेय श्रीमान् बाबू नन्दलालजी जैन सुपुत्र सेठ रामजीवनजी सरावगी कलकत्ताको प्राप्त है, जिन्हों. ने श्रत-सेवाकी उदार भावनाओंसे प्रेरित होकर दो वर्ष हुए वीरसेवामन्दिरको अनेक ग्रन्थों के अनुवादादि-सहित प्रकाशनार्थ दस हज़ार र रुपयेकी सहायता प्रदान की थी और जिससे अन्य दो ग्रन्थोंके अलावा श्रीविद्यानन्दस्वामीका 'आप्तपरीक्षा' नामका महान् ग्रन्थ संस्कृत स्वोपज्ञटीका और हिन्दी अनुवादादिके साथ प्रकाशित हो चुका है। यह ग्रन्थ भी उसी आर्थिक सहायतासे प्रकाशित हो रहा है। अतः प्रकाशनके इस शुभ अवसरपर आपका साभार स्मरण करते हुए आपको हार्दिक धन्यवाद समर्पित है। जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर BeekKARRRRRRREED Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादकके दो शब्द श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और श्रीसमन्तभद्रस्वामी ये दोनों महात्मा वर्तमान दिगम्बर जैन साहित्य के प्राणप्रतिष्ठापक हैं। इनकी अमर रचनाओंने दिगम्बर जैन साहित्यकी श्रीवृद्धिके साथ उसकी कीर्तिको समुज्ज्वल किया है। बहुत समयसे मेरी इच्छा है कि उक्त दोनों प्राचार्यों की सभी उपलब्ध रचनाएँ उनके प्रामाणिक जीवनचरितके साथ 'कुन्दकुन्दभारती' और 'समन्त. मद्रभारती' के नामसे प्रकाशित की जावें । एक समय था कि जब लोग सूत्ररूप संक्षिप्त रचनाको मान देते थे,उसके वाद वृत्ति और भाष्य ग्रन्थोंको मान्यता मिलने लगी । मूल लेखकों के सारपूर्ण संक्षिप्त लेख वृत्ति-भाष्य और टीकाकारोंके वृहद् वक्तव्योंसे वेष्टित होकर सामने आये । भाषाकारों और टीकाकारोंमें इसबातकी होढ़सी होने लगी कि संक्षिप्त रचनाओंको देखें कौन अधिक विस्तृत कर सकता है। अब कुछ समय बदला है और लोगोंके हृदयमें पुनः यह आकांक्षा होने लगी है कि मूल लेखकके सारपूर्ण स्वतन्त्र अभिप्रायको टीकाकारोंके वृहद् वक्तव्योंसे अलग किया जाये। इसीसे 'कुन्दकुन्दभारती' और 'समन्तभद्रभारती' में दोनों आचार्योंके मूल ग्रन्थोंको सरल संक्षिप्त अनुवादके साथ संकलित करनेकी मेरी इच्छा रही है। लगभग आठ दस वर्ष हुए तब अनवरत साहित्य-सेवी वयोवृद्ध श्रीजुगलकिशोरजी मुख्तारने मुझे इस आशयका एक पत्र लिखा कि मैं वीरसेवामन्दिरसे 'समन्तभद्रभारती' Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादकके दो शब्द mmmmmmmmmmmmmmmm नामक ग्रन्थ प्रकाशित करना चाहता हूँ,जिसमें समन्तभद्रस्वामीके उपलब्ध समस्त ग्रन्थोंका आधुनिक हिन्दी में सरल संक्षिप्त अनुवाद होगा ! आप स्तुतिविद्या (जिनशतक ) का अनुवाद करदें। बाबूजीका उक्त आशयवाला पत्र पाकर मुझे बहुत प्रसशता हुई भार मैंने स्तुतिविद्याका अनुवाद लिखनेकी स्वीकृति दे दी। साथही कार्य प्रारम्भ भी कर दिया। दो माहमें यह कार्य पूर्ण होगया और प्रेसकापी तैयार कर मैने मुख्तारजीके पास भेज दी। मेरा खयाल है कि सहयोग और साधनोंके अभावमें मुख्तारजी अपनी इच्छानुसार 'समन्तभद्रभारती' को प्रकाशित करने में शीघ्र ही अग्रसर नहीं हो सके। उन्होंने समन्तभद्रस्वामीके कुछ प्रन्थ फुटकर रूपसे प्रकाशित करना स्थिर किया और तदनुसार 'स्वयम्भूस्तोत्र' आदि कुछ ग्रन्थोंको वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित भी किया जाने लगा। अब 'स्तुतिविद्या' भी प्रका. शित कर रहे हैं। जिस रूपमें मैं इसे जनताके समक्ष रखना चाहता था उस रूपमें तो नहीं रख सका हूँ। पर पूर्ण साधनोंके अभाव में जिस रूप में भी इसे सामने रख रहा हूँ वह 'समन्तभद्रभारती' का एक परिचायक अङ्ग ही होगा। स्तुतिविद्या (जिनशतक) एक शब्दालंकार-प्रधान कान्यग्रन्थ है इसमें यमक तथा चित्रालंकारके जिन विविध रूपोंको आचार्य महोदयने सामने रक्खा है उन्हें देखकर आपके अगाध काव्य. कौशलका सहज ही पता चल जाता है। मेरा अनुभव है कि अर्थालंकारकी अपेक्षा शब्दालंकारकी रचना करना अत्यन्त कष्टसाध्य है । कुछ उत्तरवर्ती साहित्यकारोंने भले ही शब्दा. लंकारको काव्यके अन्तर्गत गडुभूत मानकर उपेक्षित किया है परन्तु उनके पूर्ववर्ती प्राचार्योंने इसे बहुत ही महत्व दिया है। अस्तु । जिनशतक, यद्यपि संस्कृतटीका और पं० लालारामजी कृत Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविधा हिन्दी अनुवाद के साथ पहले काशीसे प्रकट हो चुका है तथापि इसके आधुनिक अनुवादकी आवश्यकता थी। मैंने पूर्वमुद्रित पुस्तककी अशुद्धियोंको यथाशक्ति दूर करनेका प्रयत्न किया है और कितनेही श्लोकोंको वृहद् भावार्थ देकर स्पष्ट भी किया है। पाद-टिप्पणों में अलंकारगत तथा श्लोक-सम्बन्धी विशेषताको प्रदर्शित किया है । आवश्यकतानुसार संस्कृत टिप्पण भी कहीं-कहीं साथमें लगाये हैं और अंतमें चित्रालंकारके चित्र भी क्रमशः संकलित किये हैं। जहां तक भी हो सका है मैंने अपने अनुवादमें संस्कृत टीकाकारके भावको सुरक्षित रखा है, फिर भी जहां कहीं मुझे संस्कृतटीकासे कुछ विभिन्नता प्रदर्शित करनी थी वहां टिप्पणमें उल्लेख कर नूतन संस्कृतटीका भी लिखदी है; जैसा कि ८७ वें श्लोकके अनुवाद में किया गया है। प्रयत्न करनेपर भी इस गहन ग्रन्थके अनुवादादिमें मेरे द्वारा भूलोंका होना अथवा अशुद्धियोंका रह जाना संभव है, जिनके लिये मैं विद्वानोंसे क्षमाप्रार्थी हूँ। सागर नम्र पन्नालाल जैन ता० २२-६-१६५० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ग्रन्थ-नाम इस ग्रन्थका मुलनाम 'स्तुतिविद्या' है; जैसा कि आदिम मंगलपद्य में प्रयुक्त हुए 'स्तुतिविद्यां प्रसाधये' इस प्रतिज्ञावाक्यसे जाना जाता है । ग्रन्थका 'गत्वैकस्तुतिमेव' नामका जो अन्तिम पद्य कवि और काव्य के नामको लिए हुए एक चक्रवृत्त रूप में चित्रकाव्य है उसकी छह आरों और नव वलयोंवाली चित्ररचनापरसे प्रन्थका नाम 'जिनस्तुतिशतं ' निकलता है, जैसा कि टीकाकारने व्यक्त किया है और इसलिये ग्रन्थका दूसरा नाम 'जिनस्तुतिशतं ' है जो ग्रन्थकार को इष्ट रहा मालूम होता है 1. यह नाम जिनस्तुतियोंके रूपमें स्तुतिविद्या के पद्योंकी प्रधान संख्याको साथ में लिये हुए है और इसलिये इसे स्तुतिसंख्या-परक नाम समझना चाहिये। जो ग्रन्थनाम संख्यापरक होते हैं उनमें 'शत' की संख्या के लिये ऐसा नियम नहीं है कि प्रन्थ की पद्यसंख्या पूरी सौ ही हो वह दो चार दस बीस अधिक भी हो सकती है; जैसे समाधिशतककी पद्य - संख्या १०५ और भूधरजैनशतककी १०७ है । और भी बहुत से शत- संख्या परक प्रन्थनामों का ऐसा ही हाल है । भारत में बहुत प्राचीनकाल से कुछ चीजोंके विषय में ऐसा दस्तूर रहा है कि वे सौकी संख्या अथवा सैंकड़ेके रूपमें खरीदी जानेपर कुछ अधिक संख्यामें ही मिलती है, जैसे आम कहीं ११२ और कहीं १२० की संख्या में मिलते हैं इत्यादि । शतक प्रन्थोंमें भी प्रन्थकारोंकी प्रायः ऐसी ही नीति रही है—उन्होंने Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति-विद्या 'शत' कहकर भी शतसे प्रायः कुछ अधिक पद्य ही अपने पाठकोंको प्रदान किये हैं। इस दृष्टिसे प्रस्तुत ग्रन्थमें ११६ पद्य होते हुए भी उसका 'जिनस्तुतिशतं' यह नाम सार्थक जान पड़ता है। 'शत' और 'शतक' दोनों एकार्थक हैं अतः जिनस्तुतिशतं' को 'जिनस्तुतिशतकं' भी कहा जाता है। 'जिनस्तुतिशतक' का बादको संक्षिप्तरूप 'जिनशतक' होगया है और यह ग्रन्थका तीसरा नाम है, जिसे टीकाकारने 'जिनशतकनामेति' इस वाक्यके द्वारा प्रारंभमें ही व्यक्त किया है। साथ ही, 'स्तुवि. विद्या' नामका भी उल्लेख किया है। यह ग्रन्थ अलङ्कारोंकी प्रधानताको लिये हुए हैं और इसलिये अनेक ग्रन्थप्रतियों में इसे 'जिनशतालङ्कार' अथवा 'जिनशतकालङ्कार' जैसे नामसे भी उल्लेखित किया गया है और इसलिये यह ग्रन्थका चौथा नाम अथवा ग्रन्थनामका चौथा संस्करण है। ग्रन्थ-परिचय समन्तभद्र-भारतीका अंगरूप यह ग्रन्थ जिन-स्तुति-विषयक है। इसमें वृषभादि चतुर्विशतिजिनोंकी-चौबीस जैन तीर्थङ्करोंकी-अलंकृत भाषामें बड़ी ही कलात्मक स्तुति की गई है। कहीं श्लोकके एक चरणको उलट कर रख देनेसे दूसरा चरण', पूर्वार्धको उलटकर रख देने से उत्तरार्ध' और समचे श्लोकको उलटकर रखदेनेसे दूसरा श्लोक' बन गया है। कहीं कहीं चरणके पूर्वार्ध-उत्तरार्धमें भी ऐसा ही क्रम रक्खा गया है और कहीं कहीं एक चरण में क्रमशः जो अक्षर हैं वे ही दूसरे चरण में है, पूर्वार्धमें जो अक्षर हैं वे ही उत्तरार्धमें हैं और पूर्ववर्ती १. खोक १०, ८३, ८८, १५ । २. श्लोक ५७, ६६, ६८ | ३. श्लोक ८६,८७। ४. श्लोक ८२, १३, ६४ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना श्लोकमें जो अक्षर हैं वे ही उत्तरवर्ती श्लोक में हैं; परन्तु अर्थ उन सबका एक-दूसरे से प्रायः भिन्न है और वह अक्षरोंको सटा कर तथा अलगसे रखकर भिन्न भिन्न शब्दों तथा पदोंकी कल्पना-द्वारा संगठित किया गया है' । श्लोक नं० १०२ का उत्तरार्ध है-'श्रीमते वर्द्ध मानाय नमो नमितविद्विषे ।' अगले दो श्लोकोंका भी यही उत्तरार्ध इसी अक्षर-क्रमको लिये हुए है; परन्तु वहाँ अक्षरोंके विन्यासभेद और पदादिककी जुदी कल्पनाओंसे अर्थ प्रायः बदल गया है। कितने ही श्लोक ग्रन्थमें ऐसे हैं जिनमें पूर्वार्धके विषमसंख्याङ्क अक्षरोंको उत्तरार्धके समसंख्याङ्क अक्षरोंके साथ क्रमशः मिल कर पढ़नेसे पूर्वार्ध और उत्तरार्धके विषमसंख्याङ्क अक्षरोंको पूर्वार्धके समसंख्याङ्क अक्षरोंके साथ क्रमश :मिलकर पढ़ने से उत्तरार्ध होजाता है। ये श्लोक 'मुरज' अथवा 'मुरजबन्ध' कहलाते हैं। क्योंकि इनमें मृदङ्गाके बन्धनों जैसी चित्राकृतिको लिये हुए अक्षरोंका बन्धन रक्खा गया है। ये चित्रालङ्कार थोड़े थोड़ेसे अन्तरके कारण अनेक भेदोंको लिये हुए हैं। और अनेक श्लोकों में समाविष्ट किये गये हैं। कुछ श्लोक ऐसे भी कलापूर्ण हैं जिनके प्रथमादि चार चरणोंके चार आद्य अक्षरोंको अन्तिमादि चरणोंके चार अन्तिम अक्षरोंके साथ मिलाकर पढ़नेसे प्रथम चरण बन जाता है। इसी तरह प्रथमादि चरणोंके द्वितीयादि अक्षरोंको अन्तिमादि चरणोंके उपान्त्यादि अक्षरोंके साथ साथ क्रमशः मिलाकर पढ़नेपर द्वितीयादि चरण बनजाते हैं, ऐसे श्लोक 'अर्धभ्रम' कहलाते हैं। १. देखो, श्लोक ५, १५, २५,५२ ११.१२, १६.१७, ३७.३८, ४६-४७, ७६-७७, ६३-६४, १०६.१०७ । २. देखो श्लोक न. ३, : १, १८, १९, २०, २१, २७, ३६, ४३, ४४, १६, १०,६२। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविधा कुछ पद्य चक्राकृतिके रूप में अक्षर विन्यासको लिये हुए हैं और इससे उनके कोई कोई अक्षर चक्रमें एक बार लिखे जाकर भी अनेक बार पढ़ने में आते हैं । उनमें से कुछ में यह भी खूबी है कि चक्र के गर्भवृत्तमे लिखा जानेवाला जो आदि अक्षर है वह चक्रकी चार महादिशाओं में स्थित चारों आरोंके अन्त में भी पड़ता है । १११ और ११२ नम्बर के पद्यों में तो वह खूबी और भी बढ़ी चढ़ी है। उनकी छह आरों और नव वलयोंवाली चक्ररचना करनेपर गर्भमें अथवा केन्द्रवृत्त में स्थित जो एक अक्षर (न या र) हैं वही छहों आरोंके प्रथम चतुर्थ तथा सप्तम वलय में भी पड़ता है, और इसलिए चक्र में १६ बार लिखा जाकर २८ बार पढ़ा जाता है । पद्य में भी वह दो दो अक्षरों के अन्तराल से २८ बार प्रयुक्त हुआ है। इनके सिवाय, कुछ चक्रवृत्त ऐसे भी है जिनमे आदि अक्षरको गर्भमें नहीं रक्खा गया बल्कि गर्भ में वह अक्षर रक्खा गया है जो प्रथम तीन चरणों में से प्रत्येकके मध्य में प्रयुक्त हुआ हैं । इन्हीं में कवि और काव्य के नामोंको अङ्कित करनेवाला ११६वाँ चक्रवृत्त है । अनेक पद्य ग्रन्थ में ऐसे हैं जो एकसे अधिक अलङ्कारों को साथ में लिये हुए हैं, जिसका एक नमूना ८४ वाँ श्लोक है, जो आठ प्रकारके चित्रालंकारोंसे अलंकृत है । यह श्लोक अपनी चित्ररचना पर से सब ओर से समानरूपमें पढ़ा जाता है । कितने ही पद्य ग्रन्थ में ऐसे है जो दो-दो अक्षरोंसे बने हैं १. देखो, श्लोक २६, ५३, ५४ ६ । २. देखो, श्लोक २२, २३, २४ । ३. देखो, पद्य नं० ११०, ११३, ११४, ११५, ११६ । ४. देखो पृष्ठ नं० १०३, १०४ का फुटनोट Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दो व्यञ्जनाक्षरोंसे ही जिनका सारा शरीर निर्मित हुआ है'। १४ वाँ श्लोक ऐसा है जिसका प्रत्येक पाद भिन्न प्रकारके एकएक अक्षरसे बना है और वे अक्षर हैं क्रमशः य, न, म, त । साथ ही, 'ततोतिता तु तेतीत' नामका १३वां श्लोक ऐसा भी है जिसके सारे शरीरका निर्माण एक ही तकार अक्षरसे हुआ है। इस प्रकार यह ग्रन्थ शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार और चित्रालङ्कारके अनेक भेद-प्रभेदोंसे अलंकृत है और इसीसे टीकाकार महोदयने टीकाके प्रारंभमें हो इस कृतिको समस्तगुणगणोपेता' विशेषणके साथ 'सर्वालंकारभूषिता' (प्रायः सब अलंकारोंसे भूषित ) लिखा है। सचमुच यह गूढ ग्रन्थ ग्रन्थकारमहोदयके अपूर्व काव्य-कौशल, अद्भुत व्याकरण-पाण्डित्य और अद्वितीय शब्दाधिपत्य को सूचित करता है। इसकी दुर्बोधताका उल्लेख टीकाकारने 'योगिनामपि दुष्करा'-योगियोंके लिये भी दुर्गम (कठिनतासे बोधगम्य)-विशेषणके द्वारा किया है और साथ ही इस कृतिको 'सद्गुणाधारा' ( उत्तम गुणों को आधार भूत) बतलाते हुए 'सुपद्मिनी' भी सूचित किया है और इससे इसके अंगोंकी कोमलता, सुरभिता और सुन्दरताका भी सहज सूचन हो जाता है, जो ग्रन्थमें पद पदपर लक्षित होती है। ग्रन्थरचनाका उद्देश्य इस प्रन्थकी रचनाका उद्देश्य, अन्धके प्रथम पद्यमें 'आगसां जये' वाक्य के द्वारा 'पापोंको जीतना बतलाया है १. दोनों, पय मं०५१, ५२, ५५, ८५, १३, १४, १७, १००, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या और दूसरे अनेक पद्यों में भी जिनस्तुतिसे पापोंके जीते जानेका भाव व्यक्त किया है। परन्तु जिनस्तुतिसे पाप कैसे जीते जाते हैं यह एक बड़ा ही रहस्य पूर्ण विषय है। यहां उसके स्पष्टीकर. एका विशेष अवसर नहीं है, फिर भी संक्षेपमें इतना जरूर बतला देना होगा कि जिन तीर्थङ्करोंकी स्तुति की गई है वे सब पाप-विजेता हुए हैं-उन्होंने अज्ञान-मोह तथा काम-क्रोधादि पापप्रकृतियोंपर पूर्णत: विजय प्राप्त की है। उनके चिन्तन और अाराधनसे अथवा हृदयमन्दिरमें उनके प्रतिधित (विराजमान) होनेसे पाप खड़े नहीं रह सकते-पापोंके दृढ बन्धन उसी प्रकार ढीले पड़जाते हैं जिस प्रकार कि चन्दनके वृक्षपर मोरके आनेसे उससे लिपटे हुए सांप ढीले पड़ जाते हैं और वे अपने विजेतासे घबराकर कहीं भाग निकलनेकी सोचने लगते हैं।' अथवा यों कहिये कि उन पुण्यपुरुषोंके ध्यानादिकसे आत्माका वर निष्पाप शुद्ध स्वरूप सामने आता है जो सभी जीवोंकी सामान्य सम्पत्ति है और जिसे प्राप्त करनेके सभी भव्यजीव अधिकारी हैं। उस शुद्ध स्वरूपके सामने आते ही अपनी उस भूली हुई निधिका स्मरण हो उठता है, उसकी प्राप्तिके लिये प्रेम तथा अनुराग जागृत हो जाता है और पाप-परिणति सहज ही छूट जाती है। अतः जिन पूतात्माओंमें वह शुद्धस्वरूप पूर्णत: विकसित हुआ है उनकी उपासना करता हुआ भव्यजीव अपनेमें उस शुद्धस्वरूपको विकसित करने के लिये उसी तरह समर्थ होता है जिस तरह कि तैलादिकसे सुसज्जित बत्ती ! "हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलोभवन्ति जन्तोः क्षणेण निविडा अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ॥" -कल्याबमन्दिर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दीपककी उपासना करती हुई उसके चरणों में जब तन्मयताकी दृष्टिसे अपना मस्तक रखती है तो तद्रप होजाती है - स्वयं दीपक बनकर जगमगा उठती है । यह सब भक्तियोगका माहात्म्य है, स्तुति-पूजा और प्रार्थना जिसके प्रधान अंग हैं । साधु स्तोताकी स्तुति कुशल परिणामोंकी - पुण्य प्रसाधक शुभ भावोंकी - निमित्तभूत होती है और अशुभ अथवा पापकी निवृतिरूप वे कुशल - परिणाम ही आत्माके विकास में सहायक होते हैं। इसी से स्वामी समन्तभद्रने, अपने स्वयम्भूस्तोत्र में, परमा त्माकी - वीतराग सर्वज्ञ जिनदेवकी-स्तुतिको कुशल - परिणामोंकी हेतु बतलाकर उसके द्वारा कल्याणमार्गको सुलभ और स्वाधीन बतलाया है' । साथही, यह भी बतलाया है कि पुण्यगुणों का स्मरण आत्मासे पापमलको दूर करके उसे पवित्र बनाताहै । और स्तुतिविद्या (११४) में जिनदेवकी ऐसी सेवाको अपने 'तेजस्वी' तथा 'सुकृती' होने आदिका कारण निर्दिष्ट किया है। परन्तु स्तुति कोरी स्तुति, तोता रटन्त अथवा रूढिका पालन मात्र न होकर सच्ची स्तुति होनी चाहिये -स्तुतिकर्ता स्तुत्य के गुणोंकी अनुभूति करता हुआ उनमें अनुरागी होकर तद्रूप होने अथवा उन आत्मीय गुणों को अपने में विकसित करने की शुद्ध भावनासे सम्पन्न होना चाहिये, तभी स्तुतिका ठीक उद्देश्य एवं फल (पापों को जीतना ) घटित हो सकता है और वह ग्रन्थकारके शब्दों में १ " स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान्न स्वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ॥ ११६ ॥” २ तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः पुनाति चित्त दुरिवाऽअनेभ्यः ॥२७॥” Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्तुतिविद्या 'जन्मारल्यशिखी' (११५)-भवभ्रमणरूप संसार-वनको दहनकरने वाली अग्नि-तक बनकर आत्माके पूर्ण विकासमें सहायक हो सकती है। ___और इसलिये स्तुत्यकी प्रशंसामें अनेक चिकनी-चुपड़ी बातें बनाकर उसे प्रसन्न करना और उसकी उस प्रसन्नताद्वारा अपने लौकिक कार्योंको सिद्धकरना-कराना जैसा कोई उद्देश्य यहां अभीष्ट ही नहीं है। परमवीतराग देवके साथ वह घटित भी नहीं हो सकता, क्योंकि सच्चिदानन्दरूप होनेसे वह सदा. ही ज्ञान तथा आनन्दमय है, उसमें रागका कोई अंश भी विद्य. मान नहीं है, और इसलिये किसीकी पूजा-वन्दना या स्तुतिसे उसमें नवीन प्रसन्नताका कोई संचार नहीं होता और न वह अपनी स्तुति-पूजा करनेवालेको पुरस्कार में कुछ देता दिलाता ही है । इसी तरह आत्मामें द्वषांशके न रहनेसे वह किसीकी निन्दा या अवज्ञापर कभी अप्रसन्न नहीं होता, कोप नहीं करता और न दण्ड देने-दिलानेका कोई भाव ही मनमें लाता है। निन्दा और स्तुति दोनों ही उसके लिये समान हैं, वह दोनोंके प्रति उदासीन है, और इसलिये उनसे उसका कुछ भी बनता या बिगड़ता नहीं है। फिर भी उसका एक निन्दक स्वतः दण्ड पा जाता है और एक प्रशंसक अभ्युदयको प्राप्त होता है, यह सब कर्मों और उनकी फल-प्रदान-शक्तिका बड़ा ही वैचित्र्य है, जिसे कर्मसिद्धान्तके अध्ययनसे भले प्रकार जाना जा सकता है। इसी कर्म-फल-वैचित्र्यको ध्यानमें रखते हुए स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें कहा है - सुहृत्त्वयि श्रीसुभगत्वमश्नुते, द्विप॑स्त्वयि प्रत्यय-वत्प्रलीयते। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना N भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो ! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥६६॥ 'हे भगवन् ! आप मित्र और शत्रु दोनोंके प्रति अत्यन्त उदासीन हैं-मित्रसे कोई अनुराग और शत्रसे कोई प्रकारका द्वेषभाव नहीं रखते, इसीसे मित्र के कार्योंसे प्रसन्न होकर उसका भला नहीं चाहते और न शत्र के कार्योंसे अप्रसन्न होकर उसका बुरा ही मनाते हैं-,फिर भी आपका मित्र (अपने गुणानुराग, प्रेम और भक्तिभावके द्वारा श्रीविशिष्ट सौभाग्यको अर्थात् ज्ञानादि- लक्ष्मीके आधिपत्यरूप अभ्युदयको प्राप्त होता है और एक शत्र ( अपने गुणद्वेषी परिणामके द्वारा ) 'किप' प्रत्यया. दिकी तरह विनाशको-अपकर्षको-प्राप्त हो जाता है, यह श्रापका ईहित-चरित्र बड़ा ही विचित्र है !! ऐसी स्थिति में 'स्तुति' सचमुच ही एक विद्या है। जिसे यह विद्या सिद्ध होती है वह सहज ही पापोंको जीतने और अपना आत्मविकास सिद्ध करने में समर्थ होता है । इस विद्याकी सिद्धिके लिये स्तुत्यके गुणोंका परिचय चाहिये, गुणोंमें वर्द्धमान अनुराग चाहिये, स्तुत्यके गुण ही आत्म-गुण हैं और उनका विकास अपने आत्मामें हो सकता है ऐसी दृढ श्रद्धा चाहिये। साथ ही मन-वचन-कायरूप योगको स्तुत्य के प्रति एकाग्र करनेकी कला पानी चाहिये । इसी योग-साधनारूप कलाके द्वारा स्तुत्य में स्थित प्रकाशसे अपनी स्नेहसे- भक्तिरससे-भीगी हुई श्रात्मबत्ती को प्रकाशित और प्रज्वलित किया जाता है। इसीसे टाकाहारने स्तुतिविद्याको 'धन-कठिन-घातिकर्मेन्धन. दहन समर्था' लिखा है- अर्थात् यह बतलाया है कि वह घने कठोर घातियाकर्मरूपो ईन्धनको भस्म करनेवाली समर्थ अग्नि है, और इससे पाठक प्रन्थ के अध्यात्मक महत्वका कितना ही अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या वस्तुतः पुरावन आचार्यों- अङ्ग पूर्वादिके पाठी महर्षियोंने वचन और कायको अन्य व्यापारोंसे हटाकर स्तुत्य (उपास्य) के प्रति एकाग्र करनेको 'द्रव्यपूजा' और मनकी नाना-विकल्पजनित व्यग्रताको दूर करके उसे ध्यान तथा गुणचिन्तनादि-द्वारा स्तुत्यमें लीन करनेको 'भावपूजा' बतलाया है। प्राचीनोंकी इस द्रव्यपूजा आदिके भावको श्रीअमितगति आचार्यने अपने उपाजकाचार (वि० ११वीं शताब्दी) के निम्न वाक्यमें प्रकट किया है "वचोविग्रह-संकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानस-संकोचो भावपूजा पुरातनैः ॥" स्तुति-स्तोत्रादिके रूपमें ये भक्तिपाठ ही उस समय हमारे पूजा-पाठ थे, ऐसा उपासना-साहित्यके अनुसन्धानसे जाना जाता है। आधुनिक पूजापाठोंकी तरहके कोई भी दूसरे पूजापाठ उस समयके उपलब्ध नहीं हैं। उस समय मुमुक्ष जन एकान्त स्थानमें बैठकर अथवा अर्हत्प्रतिमा श्रादिके सामने स्थित होकर बड़े ही भक्तिभावके साथ विचारपूर्वक इन स्तुतिस्तोत्रोंको पढ़ते थे और सब कुछ भूल-मुलाकर स्तुत्यके गुणोंमें लीन होजाते थे; तभी अपने उद्देश्यमें सफल और अपने लक्ष्य. को प्राप्त करने में समर्थ होते थे। ग्रन्थकारमहोदय उन्हीं मुमुक्ष. अनोंके अग्रणी थे। उन्होंने स्तुतिविद्याके मार्गको बहुत ही परि. कृत किया है। वीतरागसे प्रार्थना क्यों ? स्तुति विद्याका उद्देश्य प्रतिष्ठित होजाने पर अब एक बार और प्रस्तुत की जाती है और वह यह कि, जब वीतराग अर्हन्त. देव परम उदासीन होनेसे कुछ करते-घरते नहीं तन ग्रन्थमें उनसे प्रार्थनाएँ क्यों की गई है और क्यों उनमें व्यर्थ ही कर्तु त्व-विषय. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना का आरोप किया गया है ? यह प्रश्न बड़ा ही सुन्दर है और सभीके लिये इसका उत्तर वांछनीय एवं जानने के योग्य है । अतः अब इसीके समाधानका यहाँ प्रयत्न किया जाता है। सबसे पहली बात इस विषयमें यह जान लेनेकी है कि इच्छापूर्वक अथवा बुद्धिपूर्वक किसी कामको करनेवाला ही उसका कर्ता नहीं होता बल्कि अनिच्छापूर्वक अथवा अवुद्धिपूर्वक कार्यका करनेवाला भी कर्ता होता है। वह भी कार्यका कर्ता होता है जिसमें इच्छा या बुद्धिका प्रयोग ही नहीं बल्कि सद्भाव (अस्तित्व) भी नहीं अथवा किसी समय उसका संभव भी नहीं है। ऐसे इच्छाशून्य तथा बुद्धिविहीनकर्ता कार्योंके प्रायः निमित्तकारण ही होते हैं और प्रत्यक्षरूपमें तथा अप्रत्यक्षरूपमें उनके कर्ता जड़ और चेतन दोनों ही प्रकारके पदार्थ हुआ करते हैं। इस विषयके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं, उनपर जरा ध्यान दीजिये (१) 'यह दवाई अमुक रोगको हरनेवाली हैं। यहाँ दवाई. में कोई इच्छा नहीं और न बुद्धि है, फिर भी वह रोगको हरनेवाली है-रोगहरण कार्यकी को कही जाती है। क्योंकि उसके निमित्तसे रोग दूर होता है। ... (२) 'इस रसायनके प्रसादसे मुझे नीरोगताकी प्राप्ति हुई। यहाँ रसायन' जड़ औषधियोंका समूह होनेसे एक जड़ पदार्थ है; उसमें न इच्छा है, न बुद्धि और न कोई प्रसन्नता; फिर भी एक रोगी प्रसन्नचित्तसे उस रसायनका सेवन करके उसके निमित्तसे आरोग्य-लाम करता है और उस रसायनमें प्रसन्नता. का आरोप करता हुआ उक्त वाक्य कहता है। यह सब लोक. व्यवहार है अथवा अलंकारकी भाषामें कहनेका एक प्रकार है। इसी तरह यह भी कहा जाता है कि 'मुझे इस रसायन या दवाईने अच्छा कर दिया जब कि उसने बुद्धिपूर्वक या इच्छा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या पूर्वक उसके शरीरमें कोई काम नहीं किया। हाँ, उसके निमित्तसे शरीर में रोगनाशक तथा आरोग्यवर्धक कार्य जरूर हुआ है और इसलिये वह उसका कार्य कहा जाता है। (३) एक मनुष्य छत्री लिये जा रहा था और दूसरा मनुष्य विना छत्रीके सामनेसे आ रहा था। सामने वाले मनुष्यकी दृष्टि जब छत्रीपर पड़ी तो उसे अपनी छत्रीको याद आगई और यह स्मरण हो आया कि 'मैं अपनी छत्री अमुक दुकानपर भूलआया हूँ; चुनाँचे वह तुरन्त ही वहाँ गया और अपनी छत्री ले आया और आकर कहने लगा-'तुम्हारी इस छत्रीका मैं बहुत आभारी हूँ, इसने मुझे मेरी भूली हुई छत्रीकी याद दिलाई है। यहाँ छत्री एक जड़वस्तु है, उसमें बोलनेकी शक्ति नहीं, वह कुछ बोली भी नहीं और न उसने बुद्धिपूर्वक छत्री भूलनेको वह. बात ही सुझाई है। फिर भी चूंकि उसके निमित्तसे भूली हुई छत्रीकी स्मृतिश्रादिरूप यह सब कार्य हुआ है इसीसे अलंकृत भाषामें उसका आभार माना गया है। (४) एक मनुष्य किसी रूपवती स्त्रीको देखते ही उसपर आसक्त होगया, तरह-तरह की कल्पनाएँ करके दीवाना बन गया और कहने लगा-'उस स्त्रीने मेरा मन हलिया, मेरा चित्त चुरा लिया,मेरे ऊपर जादू कर दिया ! मुझे पागल बना दिया! अब मैं बेकार हूँ और मुझसे उसके बिना कुछ भी करते-धरते नहीं बनता।' परन्तु उस बेचारी स्त्रीको इसकी कोई खबर नहीं-किसी बातका पता तक नहीं और न उसने उस पुरुषके प्रति बुद्धिपूर्वक कोई कार्य ही किया है-उस पुरुषने ही कहीं जाते हुए उसे देख लिया है। फिर भी उस रत्रीक निमित्तको पाकर उस मनुष्य के आत्म. दोषोंको उत्तेजना मिली और उसकी यह सब दुर्दशा हुई । इसीसे वह उसका सारा दोष उस स्त्रीके मत्ये मढ़ रहा है। जब कि वह Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १३ उसमें अज्ञातभावसे एक छोटासा निमित्त कारण बनी है, बड़ा कारण तो उस मनुष्य का ही आत्मदोष था। (५) एक दुःखित और पीड़ित गरीब मनुष्य एक सन्तके आश्रयमें चला गया और बड़े भक्तिभावके साथ उस सन्तकी सेवा-शुश्रूषा करने लगा। वह सन्त संसार-देह भोगोंसे विरक्त है-वैराग्य सम्पन्न है-किसीसे कुछ बोलता या कहता नहीं - सदा मौनसे रहता है। उस मनुष्यकी अपूर्व भक्तिको देखकर पिछले भक्त लोग सब दंग रह गये ! अपनी भक्तिको उसकी भक्तिके आगे नगण्य गिनने लगे और बड़े आदर सत्कारके साथ उस नवागन्तुक भक्तहृदय मनुष्यको अपने अपने घर भोजन कराने लगे और उसकी दूसरी भी अनेक आवश्यकताओंको पूर्ति बड़े प्रेमके साथ करने लगे, जिससे वह सुखसे अपना जीवन व्यतीत करने लगा और उसका भक्तिभाव और भी दिन-पर-दिन बढ़ने लगा। कभी-कभी वह भक्तिमें विह्वल होकर सन्तके चरणों में गिर पड़ता और बड़े ही कम्पित स्वरमें गिडगिड़ाता हुआ कहने लगता-'हे नाथ ! आप ही मुझ दीन-हीनके रक्षक हैं, आप ही मेरे अन्नदाता हैं, आपने मुझे वह भोजन दिया है जिससे मेरी जन्म-जन्मान्तरकी भूख मिट गई है। आपके चरण-शरणमें आनेसे ही मैं सुखी बन गया हूँ, आपने मेरे सारे दुःख मिटा दिये हैं और मुझे वह दृष्टि प्रदान की है जिससे मैं अपनेको और जगतको भले प्रकार देख सकता हूँ। अब दया कर इतना अनुग्रह और कीजिये कि मैं जल्दी ही इस संसारके पार हो जाऊँ ।' यहाँ भक्तद्वारा सन्तके विषय में जो कुछ कहा गया है वैसा उस सन्तने स्वेच्छासे कुछ भी नहीं किया। उसने तोभक्तके भोजनादिकी व्यवस्थाके लिये किसीसे संकेत तक भी नहीं किया और न अपने भोजनमें से कभी कोई प्रास ही उठा कर उसे दिया है। फिर भी उसके भोजनादिकी सब व्यवस्था हो गई Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुविविद्या दूसरे भक्तजन स्वयं ही बिना किसीकी प्रेरणाके उसके भोजनादिकी सुव्यवस्था करने में प्रवृत्त हो गये और वैसा करके अपना अहोभाग्य समझने लगे। इसी तरह सन्तने उस भक्तको लक्ष्य करके कोई खास उपदेश भी नहीं दिया, फिर भी वह भक्त उस संत की दिनचर्या और अवाग्विसर्ग (मौनोपदेशरूप ) मुख-मुद्रादिकपर. से स्वयं ही उपदेश प्रहण करता रहा और प्रबोधको प्राप्त हो गया। परन्तु यह सब कुछ घटित होनेमें उस सन्त पुरुषका व्यक्तित्व ही प्रधान निमित्त कारण रहा है-भले ही वह कितना ही उदासीन क्यों न हो। इसीसे भक्तद्वारा उसका सारा श्रेय उक्त सन्तपुरुषको ही दिया गया है। इन सब उदाहरणोंपरसे यह बात सहज ही समझमें आजाती है कि किसी कार्यका कर्ता या कारण होनेके लिये यह लाजिमी ( अनिवार्य) अथवा जरूरी नहीं हैं कि उसके साथमें इच्छा, बुद्धि तथा प्रेरणादिक भी हों, वह उनके विना भी हो सकता है और होता है। साथ हो, यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किसी वस्तुको अपने हाथसे उठाकर देने या किसीको उसके देने की प्रेरणा करके अथवा आदेश देकर दिला देनेसे ही कोई मनुष्य दाता नहीं होता बल्कि ऐसा न करते हुए भी दाता होता है; जब कि उसके निमित्तसे, प्रभावसे, आश्रयमें रहनेसे, सम्पर्कमें आनेसे, कारणका कारण बननेसे कोई वस्तु किसीको प्राप्त हो जाती है। ऐसी स्थितिमें परमवोतसग श्रीअर्हन्तादिदेवोंमें कर्तृत्वादि-विषय का आरोप व्यर्थ नहीं कहा जा सकता-भले ही वे अपने हाथसे सीधा (direct) किसीका कोई कार्य न करते हों, मोहनीय कर्मके अभावसे उनमें इच्छाका अस्तित्व तक न हो और न किसीको उस कार्यकी प्रेरणा या आज्ञा देना ही उनसे बनता हो। क्योंकि उनके पुण्यस्मरण, चिन्तन, पूजन, भजन, कीर्तन, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १५ • स्तवन और अराधनसे जब पापक्रमोंका नाश होता है, पुण्य की वृद्धि और आत्माकी विशुद्धि होती है - जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है-तत्र फिर कौन कार्य है जो अटका रह जाय ' ? सभी कार्य सिद्धिको प्राप्त होते हैं, भक्त जनों की मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, और इसलिये उन्हें यही कहना पड़ता है कि 'हे भगवन् आपके प्रसाद से मेरा यह कार्य सिद्ध होगया, जैसे कि रसायन के प्रसाद से आरोग्यका प्राप्त होना कहा जाता है । रसायन औषधि जिस प्रकार अपना सेवन करनेवाले पर प्रसन्न नहीं होती और न इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य ही सिद्ध करती है उसी तरह वीतराग भगवान् भी अपने सेबक पर प्रसन्न नहीं होते और न प्रसन्नताके फलस्वरूप इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न ही करते हैं । प्रसन्नतापूर्वक सेवनआराधन के कारण ही दोनोंमें— रसायन और वीतरागदेवमेंप्रसन्नता का आरोप किया जाता है और यह अलंकृत भाषाका कथन हैं । अन्यथा दोनों का कार्य वस्तुस्वभाव के वशव, संयोगोंको अनुकूलताको लिये हुए, स्वतः होता है-उसमें किसीकी इच्छा अथवा प्रसन्नतादिकी कोई बात नहीं हैं। यहाँ पर कर्मसिद्धान्तकी दृष्टिसे एक बात और प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि, संसारी जीव मनसे वचनसे या कायसे जो क्रिया करता है उससे आत्मामें कम्पन ( हलन चलन) होकर द्रव्यकर्मरूप परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं का श्रात्म-प्रवेश 'होता है, जिसे 'स्व' कहते हैं । मन-वचन-काबकी यह क्रिया यदि शुभ होती है तो उससे शुभकर्मका और अशुभ होती है तो अशुभ कर्म का स्रव होता है । तदनुसार ही बन्ध होता है । इस तरह कर्म शुभ-अशुभके भेद से दो भागों में बँटा रहता है। - १ " पुण्यप्रभावात् किं किं न भवति' - 'पुण्यके प्रभाव से क्या क्या नहीं होता' ऐसी लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ स्तुतिविद्या शुभकार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होती है उसे शुभकर्म अथवा पुण्यप्रकृति और अशुभकार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होती है उसे अशुभकर्म अथवा पापप्रकृति कहते हैं। शुभाशुभ भावोंकी तरतमता और कषायादि परिणामों की तीव्रता मन्दतादिके कारण इन कर्मप्रकृतियों में बराबर परिवर्तन, (उलटफेर ) अथवा संक्रमण हुआ करता है। जिस समय जिस प्रकार की कर्मप्रवृतियोंके उदयका प्राबल्य होता है उस समय कार्य प्रायः उन्हीं के अनुरूप निष्पन्न होता है । वीतरागदेवकी उपासना के समय उनके पुण्य गुणोंका प्रेमपूर्वक स्मरण एवं चिन्तन करने और उनमें अनुराग बढ़ाने से शुभ भावों ( कुशलपरिणामों) की उत्पत्ति होती है, जिससे इस मनुष्य की पापपरिणति छूटती और पुण्यपरिणति उसका स्थान लेती है। नतीजा इसका यह होता है कि हमारी पापप्रकृतियों का रस ( अनुभाग ) सूखता और पुण्य प्रकृतियों का रस बढ़ता है। पापप्रकृत्तियों का रस सूखने और पुण्यप्रकयियों में रस बढ़ने से 'अन्तराय कर्म' नामकी प्रकृति, जो कि एक मल पापप्रकृति है और हमारे दान लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ( शक्ति-बल) में विघ्नरूप रहा करती है— उन्हें होने नहीं देती-वह भग्नरस होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इष्ट कार्यको बाधा पहुँचाने में समर्थ नहीं रहती । तब हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं, बिगड़े हुए काम भी सुधर जाते हैं और उन सबका - श्रेय उक्त उपासनाको ही प्राप्त होता है। इसी से स्तुति-वन्दनादिको इष्टफलको दाता कहा है; जैसा कि तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकादि में उद्धृत एक श्राचार्य महोदय के निम्न वाक्यसे प्रकट हैनेष्ट' विहन्तु शुभभाव - भग्न-रसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः । तत्कामचारेण गुणनुरागान्नुत्यादि रिष्टार्थक दाऽर्हदादेः ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जब भले प्रकार सम्पन्न हुए स्तुति-वन्दनादि पाये इष्ट फलको देनेवाले हैं और वीतरागदेवमें कर्तृत्व विषयका आरोप सर्वथा असंगत तथा व्यर्थ नहीं है बल्कि ऊपरके निर्देशानुसार संगत और सुघटित है-वे स्वेच्छा-बुद्धि-प्रयत्नादिकी दृष्टिसे कर्ता न होते हुए भी निमित्तादिकी दृष्टिसे कर्ता जरूर हैं और इसलिये उनके विषयमें अकर्तापनका सर्वथा एकान्तपक्ष घटित नहीं होता; तब उनसे तद्विषयक अथवा ऐसी प्रार्थनाओंका किया जाना भी असंगत नहीं कहा जा सकता जो उनके सम्पर्क तथा शरणमें आनेसे स्वयं सफल होजाती है अथवा उपासना एवं भक्तिके द्वारा सहज-साध्य होती हैं। वास्तव में परमवीत. रागदेवसे प्रार्थना एक प्रकारकी भावना है अथवा यो कहिये कि अलंकारकी भाषामें देवके समक्ष अपनी मन: कामनाको व्यक्त करके यह प्रकट करना है कि 'मैं आपके चरण-शरणमें रहकर और उससे पदार्थपाठ लेकर आत्मशक्तिको जागृत एवं विकसित करता हुआ अपनी उस इच्छा को पूरा करने में समर्थ होना चाहता हूं ।' उसका यह आशय कदापि नहीं होता कि, 'हे वीतराग देव ! आप अपने हाथ पैर हिलाकर मेरा अमुक काम करदो, अपनी जबान चलाकर या अपनी इच्छाशक्तिको काममें लाकर मेरे कार्यके लिये किसीको प्रेरणा कर दो, आदेश दे दो अथवा सफारिश कर दो; मेरा अज्ञान दूर करनेके लिये अपना ज्ञान या उसका एक टुकड़ा तोड़कर मुझे दे दो, मैं दुखी हूँ, मेरा दुख आप ले लो और मुझे अपना सुख दे दो, मैं पापी हूँ, मेरा पाप आप अपने सिर पर उठालो-स्वयं उसके जिम्मेदार बन जाओ--और मुझे निष्पाप बना दो। ऐसा श्राशय असंभाव्यको सम्भाव्य बनाने जैसा है और देवके स्वरूपसे अनभिज्ञता ब्यक्त करता है। प्रन्थकारमहोदय देवरूपके पूर्णपरीक्षक और बहुविज्ञ थे। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्तुतिविद्या उन्होंने अपने स्तुत्यदेवके लिये जिन विशेषणपदों तथा सम्बो. धनपदोंका प्रयोग किया है और अपने तथा दूसरों के लिये जैसी कुछ प्रार्थनाएँ की है उनमें असंभाव्य-जैसी कोई बात नहीं है--वे सब जंचे तुले शब्दोंमें देवगुणोंके अनुरूप, स्वाभाविक, सुसंभाव्य, युक्तिसंगत और सुसंघटित हैं। उनसे देवके गुणोंका बहुत बड़ा परिचय मिलता है और देवकी साकार मूर्ति सामने श्रा जाती है । ऐसी ही मूर्तिको अपने हृदय-पटलपर अकित करके ग्रन्थकारमहोदय उसका ध्यान, भजन तथा आराधन किया करते थे; जैसा कि उनके स्वचित्तपटयालिख्य जिनं चारु भजत्ययम्। (१०१) इस वाक्यसे जाना जाता है। मैं चाहता था कि उन विशेषणादिपदों तथा प्रार्थनाओंका दिग्दर्शन कराते हुए यहां उनपर कुछ विशेष प्रकाश डालू और इसले लिये मैंन उनकी एक सूची भी तय्यार की थी; परन्तु प्रस्तावना धारणासे अधिक लम्बी होती चली जाती है अतः उस विचारको यहां छोड़ना ही इष्ट जान पड़ता है। मैं समझता हूँ ऊपर इस विषय में जो कुछ लिखा गया है उसपरसे सहृदय पाठक स्वयं ही उन सबका सामंजस्य स्थापित करने में समर्थ होसकेंगे। हिन्दी अनुवादमें कहीं-कहीं कुछ बातोंका स्पष्टीकरण किया गया है, जहां नहीं किया गया और सामान्यतः पदोंका अनुवाद मात्र दे दिया गया है वहां भी अन्यत्र कथनके अनुरूप उसका प्राशय समझना चाहिये। ग्रन्थकार-परिचय इस प्रन्थके निर्माता आचार्यप्रवर स्वामी समन्तभद्र हैं, जिन्हें हस्तलिखित प्रतियोंमें, प्रस्तुत कृतिका कर्ता बतलाते हुए, 'कविगमक-वादि-वाग्मित्व-गुणालंकृतस्य' विशेषणके द्वारा कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामके उन चार महान गुणोंसे अलंकृत बतलाया है जो कि स्वामी समन्तभद्रमें असाधारण Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना विकासको प्राप्त हुए थे और जिनके कारण उनका यश चूड़ा. मणिके समान सर्वोपरि था और उसकी छाया बादको भी उस विषयके विद्वानोंके ऊपर पड़ती रही है और उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ उसे शिरोधार्य किया है । टीकाकारने भी हार्किक चूडामणिश्रीमत्समन्तभद्राचार्यविरचिता' लिखकर इसे उन्हीं समन्तभद्राचार्यकी कृति घोषित किया है । इसके सिवाय, दूसरे आचार्यों तथा विद्वानोंने भी इस ग्रन्थके वाक्यों. का समन्तभद्र के नामसे, अपने ग्रन्थों में उल्लेख किया है। उदाहरणके लिये 'अलंकारचिन्तामणि' को लीजिये, जिसमें अजितसेनाचार्यने निम्न वाक्यके साथ इस प्रन्थके कितने ही पद्योंको प्रमाणरूपसे उद्धृत किया है श्रीमत्समन्तभद्रार्य-जिनसेनादि-भाषितम् । लक्ष्यमात्रं लिखामि स्व-नामसूचित-लक्षणम् ।। ऐसी स्थितिमें इस ग्रन्थके समन्तभद्रकृत होनमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है। वास्तव में ऐसे ही महत्वपूर्ण काव्य. ग्रन्थोंके द्वारा समन्तभद्रकी काव्यकीर्ति जगतमें विस्तारको प्राप्त हुई है। इस ग्रन्थमें अपूर्व शब्दचातुर्यको लिये हुए जो निर्मल भक्ति-गंगा बहाई गई है उसके उपयुक्त पात्र भो आप ही थे-दूसरे नहीं। और इसलिये प्रन्थके अन्तिम काव्यकी छह आरों तथा नव वलयोंवाली चित्ररचनापरसे सप्तम वलय. में जो शान्तिरर्मकतं: वाक्यकी उपलब्धि होती है और उससे १. जैसा कि विक्रमकी हवीं शताब्दीके विद्वान् भगवज्जिनसेना. चार्य के निम्न वाक्यले प्रकट है कवीनां गमकानां च पादीनां धाग्मिनानपि । यशः सामन्तमद्रीयं मूमि चूडामणीयते ॥ ४४ ॥ -मादिपुराय Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या टीकाकारने कविका नाम, विना किसी विवाद अथवा अपने पूर्वकथनादि के साथ विरोधके, 'शान्तिवर्मा' सूचित किया है उसे समंतभद्रका ही नामान्तर समझना चाहिये । परन्तु यह नाम उनके मुनिजीवनका नहीं हो सकता; क्योंकि मुनियोंके 'वर्मान्त' नाम प्रायः देखने में नहीं आते । जान पड़ता है यह श्राचार्य महोदय के मातापितादि द्वारा दिया हुआ उनके जन्मका शुभ नाम था । इस नामसे आपके क्षत्रिय वंशोद्भव होनेका पता चलता है । यह नाम राजघरानोंका-सा है । कदम्ब, गंग और पल्लव आदि वंशों में कितने ही राजा वर्मान्त नामको लिये हुए हैं । कदम्बों में तो 'शान्तिवर्मा' नामका भी एक राजा हुआ है। समन्तभद्र राजपुत्र थे और उनके पिता फरिणमण्डलान्तर्गत 'उरगपुर " के राजा थे, यह बात आपकी दूसरी 'आप्तमीमांसा' नामक कृतिकी एक प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिके निम्न पुष्पिकावाक्यसे जानी जाती है, जो श्रवणबेलगोल के श्री दौर्बलिजिनदास शास्त्रीके शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं " इति श्री फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामिसमन्तभद्रमुनेः कृतौ श्राप्तमीमांसायाम् ।" हाँ, इस शान्तिवर्मा नामपर से यह कहा जा सकता है कि समनंतभद्रने अपने मुनि जीवनसे पहले इस ग्रन्थकी रचना की होगी; परन्तु ग्रन्थ के साहित्यपर से इसका कुछ भी समर्थन नहीं होता । आचार्य महोदयने, इस ग्रन्थ में, अपनी २० १ यह उरगपुर 'उरैयूर' का ही संस्कृत अथवा श्रुतिमधुर नाम जान पड़ता है, जो चोल राजाओं की सबसे प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी थी, पुरानी त्रिचिनापोली भी इसीको कहते हैं । यह नगर कावेरीके तट पर बसा हुआ था. बन्दरगाह था और किसी समय बड़ा ही समृद्धिशाल जनपद था । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २१ जिस परिणति और जिस भावमयी मूर्तिको प्रदर्शित किया है उससे आपकी यह कृति मुनि-अवस्थाकी ही मालूम होती है। गृहस्थाश्रममें रहते हुए और राज-काज करते हुए इस प्रकारकी महापाण्डित्यपूर्ण और महदुच्चभावसम्पन्न मौलिक रचनाएँ नहीं बन सकतीं। इस विषयका निर्णय करनेके लिये संपूर्ण प्रन्थको गौरके साथ पढ़ते हुए, पद्य नं० १६, ७६, और ११४ को खास तौरसे ध्यानमें लाना चाहये। १६वें पद्यसे ही यह मालूम हो जाता है कि स्वामी संसारसे भयभीत होनेपर शरीरको लेकर (अन्य समस्त परिग्रहको छोड़कर) वीतराग भगवानकी शरणमें प्राप्त हो चुके थे और आपका आचार उस समय ( ग्रन्थरचनाके समय ) पवित्र, श्रेष्ठ तथा गणधरादि-अनुष्ठित प्राचार-जैसा उत्कृष्ट अथवा निर्दोष था। वह पद्य इस प्रकार है पत-स्वनवमाचारं तन्वायातं भयाद्रुचा । स्वया वामेश पाया मा नतमेकायं शंभव ।। इस पद्यमें समन्तभद्रने जिस प्रकार 'पूतस्वनवमाचारं ' और 'भयात तन्वायातंये अपने ( मा=मां पदके) दो. खास विशेषण-पद दिये हैं उसी प्रकार ७६ वें पद्यमें उन्होंने 'ध्वंसमानसमानस्तत्रासमानसं. विशेषणके द्वारा अपनेको उल्लेखित किया है । इस विशेषणसे मालूम होता है कि समन्तभद्रके मनसे यद्यपि त्रास-उद्वेग बिल्कुल नष्ट ( अस्त ) नहीं १ "पूतः पवित्रः सुसष्ठ अनवमः गणधराधनुष्टितः, प्राचारः पापक्रिया-निवृत्तिर्यस्यासौ पूतस्वनवमाचारः अतस्तं पूतस्वनवमाचारं" इति टीका २"भयात् संसारभीतेः । तन्वा शरीरेण (सह) आयातं आगतं ।।इति टीका Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ स्तुशिविद्या हुआ था-सत्तामें कुछ मौजूद जरूर था-फिर भी वह ध्वंसमानके समान हो गया था और इस लिये उनके चित्तको उद्घोजित अथवा सत्रस्त करनेके लिये समर्थ नहीं था। चित्तकी ऐसी स्थिति बहुत ऊंचे दर्जेपर जाकर होती है और इसलिये यह विशेषण भी समन्तभद्रके मुनिजीवनकी उत्कृष्ट स्थितिको सूचित करता है और यह बतलाता है कि इस ग्रन्थकी रचना उनके मुनिजीवनमें ही हुई है। ११४ वें पद्यकी भी ऐसी ही स्थिति है। उसमें समन्तभद्रने वीरजिनेन्द्रके प्रति अपनी जिस सेवा अथवा अहद्भक्तिका उल्लेख किया है वह गृहस्थावस्थामें प्राय: नहीं बनती। उसके 'सुस्तुत्यां व्यसनं' इस उन्लेखसे तो यह साफ जाना जाता है कि यह 'स्तुतिविद्या' ग्रन्थ उस समय बना है जब कि समन्तभद्र कितनी ही स्तुतियों-स्तुतिग्रन्थोंका निर्माण कर चुके थे और स्तुति- रचना उनका एक अच्छा व्यसन बन गया था। आश्चर्य नहीं जो देवागम (आप्तमी मांसा), युक्त्यनुशासन और स्वयम्भू नामके स्तोत्र इस ग्रन्थसे पहले ही बन चुके हों और ऐसी सुन्दर स्तुतियोंके कारण ही समन्तभद्र अपने स्तुति-व्यसनको 'सुस्तुति व्यसन' लिखनेके लिये समर्थ हो सके हों। ___टीकाकारने भी, प्रथम पद्यकी प्रस्तावनामें, 'श्रीसमन्तभद्राचार्य-विरचिता लिखनेके अतिरिक्त ८४ वें पद्यमें आए हुए 'ऋद्ध विशेषणका अर्थ 'वृद्ध करके, और ११५ वें पद्यके 'वन्दीभूतवतः' पदका अर्थ मंगलपाठकीभूतवतोऽपि नग्नाचार्यरूपेण भवतोऽपि ममा ऐसा देकर यही सूचित किया है कि यह अन्य समन्तभद्रके मुनिजीवनकी रचना है। स्वामी समन्तभद्रका, उनकी कृतियोंसहित, विशेष परिचय Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना देनेका यहां अवसर नहीं है। उसके लिये तो इन पंक्तियों के लेखकका लिखा हुआ स्वामी समन्तभद्र' नामका वह विस्तृत निवन्ध ( इतिहास ) देखना चाहिये जो माणिकचन्द्र दि० जैनप्रन्थमालामें प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाचारके साथ, ८४ पेजोंकी प्रस्तावनाके अनन्तर,२५२ पृष्ठोंपर जुदा ही अंकित है और जो विषय-सूची तथा अनुक्रमणिकाके साथ अलग भी प्रकाशित हुआ है। यहाँ संक्षेपमें सिर्फ इतना कह देना ही पर्याप्त होगा कि, जैन समाजके प्रतिभाशाली प्राचार्यों,समर्थ विद्वानों और सुपूज्य महात्माओं में स्वामी समन्तभद्रका प्रासन बहुत ऊँचा है। वे रयाद्वाद-विधाके नायक थे, एकान्त-पक्षके निर्मूलक थे,अबाधित शक्ति थे, सातिशय योगी थे, सातिशय वादी तथा वाग्मी' थे। कवि एवं कविब्रह्मा थे, उत्तम गमक' थे, सद्गणोकी मूर्ति थे, प्रशान्त थे, गम्भीर थे, उदारचेता थेसिद्धसारस्वत थे, हित-मितभाषी थे, लोकके अनन्यहितैषी थे, विश्वप्रेमी थे, परहितविरत थे, अकलंक-विद्यानन्दादि-जैसे बड़े-बड़े आचार्यों तथा महान विद्वानोंसे स्तुत्य एवं वन्द्य थे और जैन-शासनके अनुपम घोतक थे, प्रभावक थे और प्रसारक थे। एक शिलालेख में उन्हें 'जिनशासनका प्रणेता तक लिखा है और दूसरे शिलालेख' में भगवान् महावीरके तीर्थकी हजारगुणी वृद्धि करते १ जो अपनो वाक्पटुता तथा शब्द-चातुरी से दूसरों को रंजायमान करने अथवा अपना प्रेमो बना लेनेमें निपुण हो उसे 'वाग्मी' कहते हैं। २ जो दूसरेकी कृतियोंके मर्मको समझने-समझानेमें प्रवीण हो उसे 'गमक' कहते हैं। ३ श्रवणबेलगोलका शिलालेख नं० १०८ (२५८) ४ यह वेलुरताल्लुकेका शिलालेख नं० १७ है, शक सं० १०५६ में उत्कीण हुआ है और इस समय रामानुजाचार्य-मन्दिरके बहात के अन्दर सौम्यनायकी मन्दिरको छतमें लगा है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ स्तुतिविद्या हुए उनका उदयको प्राप्त होना अंकित किया है । उनको 'अर्हद्भक्ति' बहुत बढ़ी चढ़ी थी और बड़े ही उच्चकोटिके विकासको लिये हुए थी । उसमें अन्धश्रद्धा अथवा अन्ध विश्वासको स्थान नहीं था-गुणज्ञता, गुणप्रीति और हृदयकी सरलता ही उसका एक आधार थी. और इसलिये वह एक दम शुद्ध तथा निर्दोष थी। अपनी इस शुद्ध भक्तिके प्रतापसे ही समन्तभद्र इतने अधिक प्रतापी, तेजस्वी तथा पुण्याधिकारी हुए मालूम होते हैं। उन्होंने स्वयं भी इस बात का अनुभव किया था, और इसी लिये वे प्रस्तुत ग्रन्थमें लिखते हैं सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चाऽपि ते हस्तावंजलये कथा-श्रुति-रतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते । सुस्तुत्यां व्यसनं शिरोनतिपरं सेवेदृशी येन ते तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥११४॥ 'हे वीर भगवन् ! आपके मतमें अथवा आपके विषय में मेरी सुश्रद्धा है-अन्धश्रद्धा नहीं, मेरी स्मृति भी आपको ही अपना विषय बनाये हुए हैं - सदा आपका ही स्मरण किया करती है, मैं पूजन भी आपका ही करता हूं, मेरे हाथ आपको ही प्रणामाअलि करनेके निमित्त हैं,मेरे कान आपको ही गुण-कथाको सुनने में लीन रहते हैं,मेरा आंखें आपके ही सुन्दर रूपको देखा क ती हैं, मुझे जो व्यसन है वह भी आपकी ही सुन्दरस्तुतियोंके रचने का है और मेरा मस्तक भी आपको ही प्रणाम करनेमें तत्पर रहता है। इस प्रकारकी चूकि मेरी सेवा है-मैं निरन्तर ही आपका इस तरह अाराधन किया करता हूँ-इसी लिये हे तेज:पते ! ( केवलज्ञानस्वामिन् !) मैं तेजस्वी हूं, सुजन हूँ, और सुकती (पुण्यवान् ) हूँ। . Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना समन्तभद्रके इन सच्चे हार्दिक उद्गारोंसे यह स्पष्ट चित्र खिंच जाता है कि वे कैसे और कितने 'अद्भक्त' थे और उन्होंने कहाँ तक अपनेको अर्हत्सेवाके लिये अर्पण कर दिया था। अर्हद्गुणोंमें इतनी अधिक प्रीति होनेसे ही वे अर्हन्त होनेके योग्य और अर्हन्तोंमें भी तीर्थकर होने के योग्य पुण्य संचय कर सके हैं। इसीसे अनेक ग्रन्थों में आपके भावी तीर्थङ्कर' होनेका विधान पाया जाता है। अर्हद्गुणोंकी प्रतिपादक . सुन्दर-सुन्दर स्तुतियाँ रचनेकी ओर समन्तभद्रकी बड़ी रुचि थी, उन्होंने इसीको अपना व्यसन लिखा है और यह बिल्कुल ठीक है। उनके उपलब्ध ग्रंथों में अधिकांश ग्रन्थ स्तोत्रोंके ही रूपको लिय हुए हैं और उनसे समन्तभद्रकी अद्वितीय अर्हद्भक्ति प्रकट होती है। प्रस्तुत प्रन्थ (स्तुतिविद्या) को छोड़कर स्वयम्भूस्तोत्र, देवागम और युक्त्यनुशासन ये तीन आपके खास स्तुति-अन्थ हैं। इन प्रन्थोंमें जिस स्तोत्र-प्रणालीसे तत्त्वज्ञान भरा गया है और कठिनसे कठिन तात्त्विक विवेचनोंको योग्य स्थान दिया गया है वह समन्तभदसे पहलेके प्रन्थों में प्रायः नहीं पाई जाती अथवा बहुत ही कम पाई जाती है। समन्तभद्रने अपने स्तुतिप्रन्थोंक द्वारा स्तुतिविद्याका खास तोरसे उद्धार, संस्कार तथा विकास किया है और इसीलिये वे 'स्तुतिकार कहलातेथे। उन्हें 'आधस्तुतिकार' होने का गौरव प्राप्त था। समन्तभद्र कांची ( दक्षिण-काशी अथवा कांजीवरम् ) के नग्नाटक थे-निन्थ दिगम्बर साधु थे। मापने लोकहितकी देखो, विकात कोरच, जिनेन्द्रकस्याणाभ्युय, षट्प्राभृत-टोका (श्रुतसागर), अराधनाकयाकोश, राजावखिकथे और 'भट्टहरी नापडिहरि' नामको प्रसिद्ध गाथा अथवा 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या भावनासे भारतके दक्षिण-उत्तर प्रदेशोंकी बहुत बड़ी सफल यात्रा की थी और अपने आत्मबल, युक्तिबल तथा चरित्रबलके आधारपर असंख्य प्राणियोंको सन्मार्गपर लगाया था। बादको अपनी कृतियों द्वारा वे सभी प्राचार्योंके पथ-प्रदर्शक रहे हैं और रहे चले जाते हैं। आपका अस्तित्व-काल विक्रमकी दूसरीतीसरी शताब्दी है। टीकाकारादि-परिचय इस प्रन्थ के संस्कृत टीकाकारका विषय कुछ जटिल हो रहा है। आम तौरपर इस टीकाके कर्ता नरसिंह नामके कोई महाकवि समझे जाते हैं, जिनका विशेष परिचय अज्ञात है, और उसका कारण प्रायः यही जान पड़ता है कि अनेक हस्तलिखित प्रतियों के अन्तमें इस टोकाको 'श्रीनरसिंहमहाकविभव्योत्तमविरचिता' लिखा है। । स्व. पं. पन्नालालजी बाकलीवालने इस ग्रन्थका 'जिनशतक' नामसे जो पहला संस्करण सन १६१२ में जयपुरकी एक ही प्रतिके आधारपर प्रकट किया था उसके टाइटिल पेजपर नरसिंहके साथ 'भट्ट' शब्द और जोड़कर इसे 'नरसिंहभट्टकृतव्याख्या'बना दिया था और तब से यह टीका नर. सिंहभट्टकत समझी जाने लगी है। परन्तु 'भट्ट' विशेषणकी जय. पुरकी किसी प्रतिमें तथा देहली धर्मपुराके नया मन्दिरकी प्रतिमें भी उपलब्धि नहीं हुई और इसलिये नरसिंहका यह भट्ट' विशेपण तो व्यर्थ ही जान पड़ता है। अब देखना यह है कि इस टीकाके कर्ता वास्तवमें नरसिंह ही हैं या कोई दूसरे विद्वान् । १ बाबा दुलीचन्द जी जयपुरके शास्त्रमण्डारको प्रति नं० २१६ और २६६ के अन्तमें लिखा है-"इति कधिगमकवादिवाग्मि. स्वगुडालंकृतस्य श्रोसमन्तभद्रस्य कृतिरियं जिनशतालंकार नाम समाहा। टीका श्रीनरसिंहमहाकर्षिभन्योत्तमविरचिता समामा || Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जनसाहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थके ३२ वें प्रकरणमें इस चर्चाको उठाया है और टीकाके प्रारम्भमे दिये हुए सात पद्योंकी स्थिति और अर्थपर विचार करते हुए अपना जो मत व्यक्त किया है उसका सार इस प्रकार है- (१) इस टीकाके कर्ता 'नरसिंह'नहीं किन्तु 'वसुनन्दि' जान पड़ते हैं अन्यथा ६ठे पद्यमें प्रयुक्त 'कुरुते वसुनन्यपि' वाक्य की संगति नहीं बैठती। (२) एक तो नरसिंहकी सहायतासे और दूसरे स्वयं स्तुतिविद्या के प्रभावसे वसुनन्दि इस टीकाको बनाने में समर्थ हुए। (३) पद्योंका ठीक अभिप्राय समझमें न आनेके कारण ही भाषाकार पं० लालाराम ) ने इस वृत्तिको अपनी कल्पनासे 'भव्योत्तमनरसिंहभट्टकत' छपा दिया। इस मतकी तीसरी बातमें तो कुछ तथ्य मालूम नहीं होता, क्योंकि हस्तलिखित प्रतियोंमें टीकाको भव्योत्तम नरसिंहकत लिखा ही है और इसलिये 'भट्ट विशेषणको छोड़कर वह भाषाकार की कोई निजी कल्पना नहीं है। दूसरी बातका यह अंश ठीक नहीं जचता कि वसुनन्दिने नरसिंहकी सहायतासे टीका बनाई; क्योंकि नरसिंहके लिये परोक्षभूतकी क्रिया 'बभूव' का प्रयोग किया गया है, जिससे मालूम होता है कि वसुनन्दिके समय में उसका अस्तित्व नहीं था। अब रही पहली बाव, वह प्रायः ठीक जान पड़ती है। क्योंकि टीकाके नरसिंह २ बाबा दुलोचन्दजी जयपुरके भंडारकी मूल ग्रन्थकी दो प्रतियों नं० ११५, ४५४ में भी ये सातों पद्य दिये हुए हैं, जो कि लेखकोंकी असावधानी और नासमझोका परिणाम है क्योंकि मूल कृतिके ये पथ कोई जंग नहीं हैं। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या कत होनेसे उसमें छठे पद्यकी ही नहीं किन्तु चौथे पद्यको भी स्थिति ठीक नहीं बैठती। ये दोनों पद्य अपने मध्यवर्ती पद्य सहित निम्न प्रकार है: तस्याः प्रबोधकः कश्चिन्नास्तीति विदुषां मतिः । यावत्तावबभूवैको नरसिंहो विभाकरः ॥ ४ ॥ दुर्गमं दुर्गमं काव्यं श्रयते महतां वचः। नरसिंह पुनः प्राप्तं सुगमं सुगमं भवेत् ॥ ५ ॥ स्तुतिविद्यां समाश्रित्य कस्य न क्रमते मतिः । तवृत्तिं येन जाड्ये तु कुरुते वसुनन्द्यपि ॥ ६ ॥ यहाँ ४थे पद्य में यह बतलाया है कि 'जबतक एक नरसिंह नामका सूर्य उस भूतकाल में उदित नहीं हुआ था जो अपने लिये परोच है, तब तक विद्वानोंका यह मत था कि समन्तभद्रकी 'स्तुतिविद्या' नामकी सुपद्मिनीका कोई प्रबोधक-उसके अर्थको खोलने-खिलाने वाला नहीं है।' इस वाक्यका, जो परोक्षभूतके क्रियापद 'बभूव को साथमें लिये हुए है, उस नरसिंहके द्वारा कहा जाना नहीं बनता जो स्वयं टीकाकार हो। पाँचवें पद्यमें यह प्रकट किया गया है कि 'महान पुरुषों का ऐसा वचन सुना जाता है कि नरसिंहको प्राप्त हुआ दुर्गमसे दुर्गम काव्य भी सुगमसे सुगम हो जाता है। इसमें कुछ बड़ोंकी नरसिंहके विषयमें काव्यमर्मज्ञ होने विषयक सम्मतिका उल्लेखमात्र है और इसलिये यह पद्य नरसिंहके समयका स्वयं उसके द्वारा उक्त तथा उसके बादका भी हो सकता है। शेष छठे पद्य में स्पष्ट लिखा ही है कि स्तुतिविद्याको समाश्रित करके किसकी बुद्धि नहीं चलती ? -जरूर चलती और प्रगति करती है। यही वजह है कि जडमति होते हुए वसुनन्दी भी उस स्तुति. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १६ विद्याकी वृत्ति कर रहा है । और इससे अगले पद्यमें श्राश्रयका महत्व ख्यापित किया गया है। ऐसी स्थिति में यही कहना पड़ता है कि यह वृत्ति ( टोका ) वसुनन्दीकी कृति है— नरसिंहकी नहीं । नरसिंहकी वृत्ति वसुनन्दीके सामने भी मालूम नहीं होती, इसी लिये प्रस्तुत वृत्ति में उसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। जान पड़ता है वह उस समय तक नष्ट हो चुकी थी और उसकी 'किंवदन्ती' मात्र रह गई थी । अस्तु इस वृत्तिके कर्ता वसुनन्दी संभवतः वे ही वसुनन्दी आचार्य जान पड़ते हैं जो देवागमवृत्ति के कर्त्ता हैं; क्योंकि वहाँ भी 'वसुनन्दिना जडमतिना जैसे शब्दोंद्वारा वसुनन्दीने अपनेको 'जड़मति' सूचित किया है और समन्तभद्रका स्मरणभी वृत्ति के प्रारंभ में किया गया है। साथ ही, दोनों वृत्तियों का ढंग भी समान हैं- दोनोंमें पद्योंके पदक्रमसे अर्थ दिया गया है और 'किमुक्त' भवति', 'एतदुक्त' भवति' - जैसे वाक्योंके साथ अर्थका समुच्चय अथवा सारसंग्रह भी यथारुचि किया गया है। हाँ, प्रस्तुत वृत्ति के अन्त में समाप्ति-सूचक वैसे कोई गद्यात्मक या पद्यात्मक वाक्य नहीं हैं जैसे कि देवागमवृत्तिके अन्तमें पाये जाते है । यदि वे होते तो एककी वृत्तिको दूसरे की वृत्ति समझ लेने जैसी गड़बड़ ही न हो पाती। बहुत संभव है कि वृति के अन्त में कोई प्रशस्ति-पद्य हो और वह किसी कारणवश प्रति लेखकों से छूट गया हो, जैसा कि अन्य अनेक ग्रन्थों की प्रतियोंमें हुआ है और खोजसे जाना गया है। उसके छूट जाने श्रथवा खण्डित हो जानेके कारण ही किसीने उस पुष्पिकाकी कल्पना की हो जो आधुनिक ( १०० वर्षके भीतर की ) कुछ प्रतियों में पाई जाती हैं। इस प्रन्थकी अभी तक कोई प्राचीन प्रति सामने नहीं आई । अतः प्राचीन प्रतियोंकी खोज होनी चाहिये, • Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या तभी दोनों वृत्तियोंका यह सारा विषय स्पष्ट हो सकेगा। ___ यह टीका यद्यपि साधारण प्रायः पदोंके अर्थबोधके रूपमें है-किसी विषयके विशेष व्याख्यानको साथमें लिये हुए नहीं है-फिर भी मूल ग्रन्थमें प्रवेश पाने के इच्छुको एवं विद्यार्थियोंके लिये बड़ी ही कामकी चीज है । इसके सहारे ग्रन्थ पदोंके सामान्यार्थ तक गति होकर उसके भीतर ( अन्तरंगमें ) संनि. हित विशेषार्थको जानने की प्रवृत्ति हो सकती है और वह प्रयत्न करनेपर जाना तथा अनुभवमें लाया जा सकता है। ग्रन्थका सामान्यार्थ भी उतना ही नहीं है जितना कि वृत्तिमें दिया हुआ है बल्कि कहीं कहीं उससे अधिक भी होना संभव है, जैसा कि अनुवादकके उन टिप्पणोंसे भी जाना जाता है जिन्हें पद्य नं० ५३ और ८७ के सम्बन्धमें दिया है। होसकता है कि इस प्रन्थ. पर कवि नरसिंहकी कोई बृहत् टोका रही हो और अजितसेनाचार्यने अपने अलंकारचिन्तामणि ग्रन्थमें, ५३वें पद्यको उद्धृत करते हुए उसके विषयका स्पष्टीकरण करनेवाले जिन तीन पद्योंको साथमें दिया है और जिन्हें अनुवादकने टिप्पण (पृ०६४ ) में उद्धृत किया है वे उक्त टीकाके ही अंश हो । यदि ऐसा हो तो उस टीकाको पद्यात्मक अथवा गद्य-पद्यात्मक सम. झना चाहिये। इस ग्रन्थका प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद साहित्याचार्य पं. पन्नालालजी 'वसन्त' ने किया है, जो कि 'गणेश-दिगम्बर जैनविद्या. लय' सागर में साहित्य तथा व्याकरण-विषयके अध्यापक हैं और अनुवाद-कार्य में अच्छी दिलचस्पी रखते हैं । यह . अलकारचिन्तामणि ग्रन्थ इस समय मेरे सामने नहीं है, देहलीमें खोजनेपर भी उसकी कोई प्रति नहीं मिल सकी, इसीसे इस विषयको कोई विशेष विचार यहाँ प्रस्तुत नहीं किया जा सका । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनुवाद उन्होंने मेरी प्रेरणाको पाकर उसे मान देते हुए बड़े ही उदार एवं सेवाभावसे प्रस्तुत किया है अतः इसके लिये मैं उन. का बहुत आभारी हूँ ! अनुवाद कैसा रहा, इसके बतलानेकी यहां जरूरत नहीं, विज्ञ पाठक स्वयं ही उसे पढ़ते समय समझ सकते हैं। हाँ, अनुवादकजीने अपने दो शब्दों में जो यह प्रकट किया है कि 'जिस रूपमें इसे जनताके समक्ष रखना चाहता था उस रूपमें साधनाभावके कारण नहीं रख सका हूँ' वह भनेक अंशोंमें ठीक जरूर है फिर भी यह अनुवाद पूर्व प्रकाशित अनुवादसे बहुत अच्छा रहा है । इसमें चित्रालंकारोंकी अच्छी चर्चा की गई है और विषयके स्पष्टीकरणादिकी दृष्टिसे दूसरी भी अनेक अच्छी बातोंका समावेश हुआ है। संशोधनका भी कितना ही कार्य अनुवादकजीके द्वारा हुआ है परन्तु उसका अधि कांश श्रेय देहली-धर्मपुराके नया मन्दिरकी उस हस्तलिखित प्रतिको प्राप्त है जिस परसे मैंने बहुत वर्ष पहले अपनी प्रतिमें मिलानके नोट कर रक्खे थे और जिनके आधारपर अनेक ऋटित पाठों तथा दूसरे संशोधनोंको टीकामें छपते समय स्थान दिया गया है। साथमें पद्यानुक्रमकी भी योजना की गई है और चित्रालंकारोंको समझने के लिये परिशिष्ट में कुछ सूच. नाएँ भी कर दी गई हैं। इस तरह ग्रन्थके प्रस्तुत संस्करणको उपयोगी बनानेकी यथासाध्य चेष्टा की गई है। आशा है पाठक इससे जरूर उपकृत होंगे। दरियागंज, देहली जुगलकिशोर मुख्तार ता० २१ जुलाई १९५० जुगा - - Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाचरण यचे तोर्जलधेर्जातं स्तुतिविद्या-सुधाभरम् । निपीय निर्जर्रा जाता विबुधा जगती-तले ॥१॥ उद्दण्ड-वादि-वेतण्ड-गण्ड-मण्डल-दण्डनः ।, जीयात्समन्तभद्रोऽसौ जिताऽभद्र-ततिः सदा॥२॥ -अनुवादक Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमत्स्वामिसमन्तभद्राचार्यविरचितस्तुति-विद्या अपर नाम जिन-शतक संस्कृतटीका तथा हिन्दी अनुवाद-सहित ( टोकाकारस्य मंगलाचरणम् ) नमो वृषभनाथाय लोकाऽलोकाऽवलोकिने । मोहपङ्कविशोषाय भासिने जिनभानवे ॥१॥ समन्तभद्रं सद्बोधं' स्तुवे वर-गुणालयम् । निर्मलं यद्यशस्कान्तं बभूव भुवनत्रयम् ॥२॥ यस्य च सद्गुणाधारा कृतिरेषा सुपद्मिनी । जिनशतकनामेति योगिनामपि दुष्करा ॥३॥ तस्याः प्रबोधकः कश्चिन्नास्तीति विदुषां मतिः । यावत्तावद्भवैको नरसिंहो विभाकरः ॥४॥ दुर्गमं दुर्गम काव्यं श्रूयते महतां वचः । नरसिंहं पुनः प्राप्त सुगमं सुगमं भवेत् ॥शा स्तुतिविद्यां समाश्रित्य कस्य न क्रमते मतिः। तवृत्तिं येन जाड्ये तु कुरुते वसुनन्द्यपि ।।६।। प्राश्रयाज्जायते लोके निःप्रभोऽपि महाद्य तिः। गिरिराजं श्रितःकाको धत्तेहि कनकच्छविम् ॥७॥ महाबोध । २ तवृत्तिं यो न बोध्येत कुरुरे घसुनन्यपि' इति पुस्तकान्तरे पाठः। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती वृषभादि-चतुर्विशति-तीर्थकराणां तीर्थकरनामकर्मोदयवायुसमू. होवर्तितसौधर्मेन्द्रादिसुरवरसेनावारिधिभाक्तिकजनसमुपनीतेज्याविधानार्हाणां घातिकर्मक्षयानन्तरसमुद्भूतविषयीकृतानेकजीवादिद्रव्यत्रिकालगोचरानन्तपर्यायकेवलज्ञानानां स्तुतिरियं जिनशतकनामेति । तस्याः समस्तगुणगणोपेतायाः सर्वालंकारभूषितायाः घनकठिनघातिकम्म न्धनदहनसमर्थायाः तार्किकचूडामणिश्रीमसमन्तभद्राचार्यविरचिताया संक्षेपभूतं विवरणं क्रियते । ___ ऋषभस्तुतिः (मुरजबन्धः') श्रीमज्जिनपदाऽभ्याशं प्रतिपद्याऽऽगसां जये। कामस्थानप्रदानेशं स्तुतिविद्यां प्रसाधये ॥१॥ श्रीमज्जिनेति। पूर्वाद्ध मेकपंक्त्यांकारेण व्यवस्थास्य पश्चाद्धमप्ये.. पंक्त्याकारेण तस्याधः कृत्वा मुरजबन्धो निरूपयितन्यः । प्रथमपंक्तेः १ 'मुरजबन्ध' नामक चित्रालङ्कार का लक्षण इस प्रकार है 'पूर्वार्ध मूर्व पङ्क्तौ तु लिखित्वाद्ध परंत्वतः । एकान्तरितमूर्ध्वाधो मुरजं निगदे कविः ॥' 'पूर्वार्धमेकपङ्कयाकारेण व्यवस्थाप्य पश्चाद्धमप्येकपटयाकारेय तस्याधः कृत्वा मुरजबन्धोनिरूपयितव्यः। प्रथम पङ्क्तः प्रथमाक्षर द्वितीयपङ्क्त द्वितीयाक्षरेण सह, द्वितीयपङ्क्त प्रथमाक्षरं प्रथम पङ्क्ते द्वितीयाक्षरेण सह, एवमुभयपङ्कत्यक्षरेषु सर्वेषु संयोज्यमाचरमात् ।' -अलंकारचिन्तामणिः अर्थात्- पहले श्लोकके पूर्वार्धको पंक्तिके प्राकारमें लिख कर, उत्त. राधको भी पंक्तिके आकार में उसके नीचे लिखे । इस अलंकारमें प्रथम पंक्तिके प्रथम अक्षरको द्वितीय पंक्तिके द्वितीय अक्षरके साथ और द्वितीय पंक्तिके प्रथम अक्षरको प्रथम पंक्तिके द्वितीय अक्षरके साथ मिनाकर पढ़ना चाहिये । यही क्रम श्लोकके अन्तिम अक्षर तक जारी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या - प्रथमाक्षरं द्वितीयपंक्ते द्वितीयाक्षरेण सह, द्वितीयपंक्तेः प्रथमाचरं प्रथमपंक्ते द्वितीयाक्षरेण सह एवमुभयपंक्स्यक्षरेषु सर्वेषु संयोज्यम् । एवं सर्वेऽपि मुरजबन्धा दृष्टव्याः । रखना चाहिये। यह सामान्य 'मुरजबंध' का लक्षण है । यह अलंकार इस स्तुतिविद्याके २, ६, ७, ८, ९, २६, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ४०,४१, ४२, ४१, ४६, १८, ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६५, ६०, ६८, ६६, ७०, ७१, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८, ८०, ८२, १६, १०१, १०२, १०३, १०४, और १०५ नम्बरके पद्यों में भी है। इस मुरजबन्ध का चित्र परिशिष्ट में देखिये । 'मुरजबन्ध' की रचना मुरज. ( मृदङ्ग ) के श्राकार हो जाती है, इस लिए इसका यह नाम सार्थक है। __ यह अलंकार 'अनन्तरपाद मुरज' 'इष्टपादमुरज' आदिके भेदसे कई तरहका होता है। 'अनन्तरपादमुरज' प्रथम-द्वितीय और तृतीयचतुर्थ पादमें होता है। यह भेद इस पुस्तकके ४८, ६४, ६६, और १०० नम्बरके श्लोकोंमें है। इन श्लोकोंके चारों चरणोंको नीचे-नीचे फैलाकर लिखना चाहिये । चित्र परिशिष्ट में देखिये । 'इष्टपादमुरज' में चारों पादोंका अपनी इच्छानुसार सम्बन्ध जोड़ा जाता है । यह भेद इस पुस्तकके ५०, ८६, और ११ नम्बरके श्लोकों में है। इसके भी चारों चरणोंको नीचे-नीचे फैलाकर लिखना चाहिये । यह अलंकार कई जगह मुप्तक्रिया, गुप्तकर्म, निरौष्ठ्यव्यञ्जनचित्र, गोमूत्रिका, पद्मबन्ध तथा यमक प्रादिके साथ भी आता है । वहाँ दो शब्दालङ्कारोंकी तिलतण्डुलवत् निरपेक्ष संसृष्टि समझना चाहिये । अलङ्कारचिन्तामणि में मुरजबन्ध बनानेका एक प्रकार और भी लिखा है जो कि इस पुस्तकके ६ नम्बरके श्लोकमें अपनाया गया है । वह यह है__ श्लोकके चारों पदोंको नीचे-नीचे लिखकर प्रथम पादके प्रथम अक्षर को तृतीय पादके द्वितीय अक्षरके साथ और तृतीय पादके प्रथम प्रहरको प्रथम पादके द्वितीय अक्षरके साथ मिलाकर पढ़ना चाहिये। यह क्रम पादकी समाप्ति पर्यन्त जारी रहता है । फिर द्वितीय पादके Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-मारती अस्य विवरणं क्रियते । श्रीविद्यते यस्य स श्रीमान् जिनस्य पदाभ्याशः पदसमीपं जिनपदाभ्याशः श्रीमांश्चासौ जिनपदाभ्याशश्च श्रीमज्जिनपदाम्याशस्तं श्रीमज्जिनपदाभ्याशं । प्रतिपद्य संप्राप्य प्रतिपद्यति प्रति. पूर्वस्य पदेः क्त्वतिस्य प्रयोगः । श्रागसां पापानां जये जयहेतोनिमित्ते इवियम् । कामं इष्टं कमनीयं इच्छा वा स्थानं निवासः कामं च तत्स्थानं च कामस्य वा स्थानं कामस्थानं तस्य प्रदानं कामस्थानप्रदानं अथवा कामश्च स्थानं च कामस्थाने तयोः प्रदानं कामस्थानप्रदानं तस्य ईशः कामस्थानप्रदानेशः तं कामस्थानप्रदानेशं, प्रथमपादेन सह सम्बन्धः । स्तुतिरेव विधा स्तुतिविद्या तां प्रसाधये अहमिति सम्बन्धः । अथवा कामस्थानप्रदानेशमिति स्तुतिविद्याया विशेषणम्, कामस्थानप्रदानस्य ईष्ट इति कामस्थानप्रदानेट अतस्तां । किमुक्तं भवति-श्रीमज्जिनपदा. भ्याशं प्रतिपद्य स्तुतिविद्या प्रसाधयेऽहं किं विशिष्टों स्तुतिविद्यां कथं प्रथम अक्षरको चतुर्थ पादके द्वितीय अक्षरके साथ और चतुर्थ पादके प्रथम अक्षरको द्वितीय पादके द्वितीय अक्षरके साथ मिलाकर पढना चाहिये। यह क्रम भी पादको समाप्ति-पर्यन्त जारी रहता है। ___अलंकारचिन्तामणिमें मुरजबन्ध श्रादि चित्रालंकारोंका जो विस्तृत वर्णन किया गया है, वह जिनशतकालंकारकी संस्कृत टीका आधारपर किया गया मालूम होता है। अभी हमने ऊपर मुरजबन्ध के जो संस्कृत लक्षण अलंकारचिन्तामणिसे उद्घ त किये हैं उनमें । 'पूर्वार्धमेक' श्लोकको छोड़कर सब ज्यों-का-त्यों जिनशतकालंकार प्रथम और छठवें श्लोकको सस्कृत टीकाके वाक्योंसे मिलता है। जिन शतकालंकारके कई श्लोक संस्कृतटीका-सहित अलंकारचिन्तामणि उद्धत किये गये हैं। यह बात अलंकारचिन्तामणिके कर्ताने स्वयं अप शन्दों में स्वीकृत को है। यथा श्रीमत्समन्तभद्रार्य-जिनसेनादिभाषितम् । लक्ष्यमात्र लिखामि स्वनामसूचितलक्षणम् ॥२८॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या भूतं वा जिनपदाभ्याशं कामस्थानप्रदानेशं । फिमर्थ श्रागसां जये जयनिमित्तं । प्रसाधये इति च प्रपूर्वस्यसाध संसिद्धावित्यस्य धो: णिजलडंतस्य प्रयोगः ।।१॥ अर्थ-कामस्थानको-इष्टस्थान ( मोक्ष )को इन्द्रियसुखके स्थान स्वर्गादिकको, इन्द्रिय विषयोंकी रोक-थामको, अथवा सुस्व और संसार परिभ्रमणसे निवृत्ति रूप स्वात्मस्थिति इन दोनोंको प्रदान करने में समर्थ श्रीमान्-केवलज्ञान आदि लक्ष्मीसे सम्पन्न-जिनेन्द्रदेवके पद-सामीप्यको प्राप्त करके उनके चरण-शरणमें जाकर, पापोंको जीतनेके लिये-मोहादिक पापकों अथवा हिंसादिक दुष्कृतों पर विजय प्राप्त करनेके लिए.- मैं उस स्तुतिविद्याकी प्रसाधना करना चाहता हूं-उसे सब प्रकारसे सिद्ध करनेके लिए उद्यत हूं-जो उत्तम कामस्थानको प्रदान करने में समर्थ हैं। ___ भावार्थ-स्तुतिरूप विद्याकी सिद्धि में भले प्रकार संलग्न होनेसे शुभ परिणामोंद्वारा पापोंपर विजय प्राप्त होती है और उसीका फल उक्त कामस्थानकी संप्राप्ति है। इसीलिए स्वामी समन्तभद्र जिनेन्द्रदेवके सन्मुख जाकर उनकी वीतरागमूर्तिके सम्मुख स्थित होकर अथवा उसे अपने हृदयमन्दिर में विराजमान कर उनकी यह स्तुति करनेमें प्रवृत्त हुए हैं ॥१॥ __(मुरजबन्धो गोमूत्रिकाबन्धश्च) स्नात स्वमलगम्भीरं जिनामितगणार्णवम् । पूतश्रीमज्जगत्सारं जनायात क्षणाच्छिवम् ॥ २ ॥ नात स्वमलेति ।मुरजबन्धः पूर्ववदृष्टव्यः । स्नात इति क्रियापदंष्णा शोच इत्यस्य धोः लोडंतस्य रूपं ! सुष्टु न विद्यते मलं यस्य स स्वमलः भोरः अगाधः स्वमलश्वासों गंभीरश्न स्वमलगंभीरः अतस्तं स्वम. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती खगंभीरम् । न मिताः अमिताश्च ते गुणाश्च ते अमितगुणाः जिनस्यामित. गुणाः जिनामितगुणाः जिनामितगुणा एव अर्णवः समुद्रः अथवा जिन एव अमितगुणार्णवः जिनामितगुणार्णवस्तं । पूतः पवित्रः श्रीमान् श्रीयुक्तः जगतां सारो जगत्सारः पूतश्च श्रीमांश्च जगत्सारच पूतश्रीमज्जगत्सारः तं । जनाः लोकाः । यात इति क्रियापदं । या गतावित्यस्य धोः लोडंतस्य प्रयोगः । क्षणादचिरादचिरेणेत्यर्थः। शिवं शोभनं शिवरूपमित्यर्थः । किमुक्तं भवति--हे जना जिनामितगुणार्णवं यात, स्नात अथवा जिनामितगुणार्णवं स्नात येन क्षणाच्छिवं यात इति । शेषाणि पदानि जिनामितगुणार्णवस्य विशेषणानि ॥२॥ • अर्थहे भव्यजनो! जिनेन्द्रदेव का जो अपरिमित गुणसमुद्र है वह अत्यन्त निर्मल, गम्भीर, पवित्र, श्रीसम्पन्न और जगत्का सारभूत है। तुम उसमें स्नान करो-एकाग्र चित्त होकर उसमें अवगाहन करो, उसके गुणोंको पूर्णतया अप. नामो और ( फलस्वरूप ) शीघ्र ही शिवको-आत्मकल्याणको-प्राप्त करो। भवार्थ- उक्त गुणविशिष्ट जिनगुणसमुद्र में भक्तिपूर्वक स्नान करनेसे-श्रद्धाके साथ जिनेन्द्र गुणोंको आत्मगुण समझकर अपनानेसे-शीघ्र ही आत्मकल्याण सधता है। इसीसे जिन गुणसमुद्र में स्नानकी सार्थक प्रेरणा की गई है ।।२।। . ( अद्धभ्रमगूढपश्चाई:) धिया ये श्रितयेताा यानुपायान्वरानताः । येऽपापा यातपारा ये श्रियाऽऽयातानतन्वत ॥३॥ १ यहां अर्धभ्रम और गूढ़पश्चार्ध नामक चित्रालंकार है। उसका विवरण निम्न प्रकार है श्लोकके चारों चरणोंको नीचे-नीचे फैलाकर लिखिये। चरों चरणोंके प्रथम और भन्तिम चार अक्षरोंके मिलानेसे श्लोकका पहला पाद बन Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या आसते सततं ये च सति पुर्वक्षयालये। ते पुण्यदा रतायातं सर्वदा माऽभिरक्षत ॥४॥ (युग्मम्) धियेति । अद्ध भ्रमगूढपश्चाद्ध। कोऽस्थार्थः चतुरोऽपि पादानधोऽधो विन्यस्य चतुर्णा पादानां चत्वारि प्रथमावराणि अन्त्याक्षराणि चत्वारिगृहोस्वा प्रथमः पादो भवति । पुनरपि तेषां द्वितीयाक्षराणि चत्वार्यन्त्यसमीपाक्षराणि च चत्वारि गृहीत्वा द्वितीयः पादो भवति । एवं चत्वारोऽपि पादाः साध्याः। अनेन न्यायेन अर्द्ध भ्रमो भवति । प्रथमाई यान्यवराणि तेषु पश्चिमाक्षराणि सर्वाणि प्रविशन्ति । एकस्मिन्नपि समानाक्षरे जाता है । उन्हीं चारों चरणों के द्वितीय तथा उपान्त्य अक्षर मिनानेसे द्वितीय पाद बन जाता है। इसी तरह तृतीय और चतुर्थ पाद भी सिद्ध कर लेना चाहिये । इस न्यायसे यह श्लोक अर्धभ्रम कहलाता है। इस श्लोकके पूर्वार्धमें जो अक्षर आये हैं उन्होंमें उत्तरार्धके सब अक्षर प्रविष्ट हो जाते हैं। एक समान अक्षरमें अनेक समानारोंका भी प्रवेश हो सकता है। इसलिये इसे गूढ पश्चार्ध (जिसका पश्चार्ध भाग पूर्वार्ध भागमें भी गुप्त हो जावे) कहते हैं। (अलंकारचिन्तामणि पृष्ठ ३६) यह अलंकार इस पुस्तकके ४, १८, १९, २०, २१, २७, ३६, १३, ४४, ५६, ६० और १२ नम्बरके श्लोकोंमें भी है । इस अलंकारमें कभी द्वितीय, कभी तृतीय और कभी चतुर्थ पाद भी गूढ हो जाता हैं। जैसे कि इसो पुस्तकके ३६वें श्लोकमें द्वितीयपाद और ४३३ श्लोकमें चतुर्थयाद गूढ हो गया है। अर्धभ्रकका चित्र परिशिष्टमें देखिये। "द्वाभ्यां युग्ममिति प्रोक्तं त्रिभिः श्लोकैविशेषकम् । कलापकं चतुर्भिः स्यात्तदूर्व कुलकं स्मृतम् ।। दो, तीन, चार और उसके ऊपरके श्लोकोंमें क्रियासम्बन्ध होनेपर मसे उनकी युग्म, विशेषक, कलापक, और कुजक संज्ञा होती है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती बहूनामपि समानाचराणां प्रवेशो भवति । श्रतो गृढपश्चार्द्धाऽप्ययं भवति । एवमेव जातीयाः श्लोका मृग्याः । धिया बुद्ध्या । ये यदो रूपं । श्रितया श्राश्रितया सेन्यया इत्यर्थः । इता, विनष्टा श्रति: मनः पीडा यस्याः सेयमितातिः तया । यान् यदः शसंतस्य प्रयोगः । उपायान् उपपूर्वस्य श्रयगतौ अस्याजन्तस्य रूपं उपगम्यानित्यर्थः : । वराः प्रधानाः इन्द्रादयः नताः प्रणताः । ये च वक्ष्यमा'णेन च शब्देन सह संबन्धः । न विद्यते पापं येषां ते अपापाः शुद्धाः कर्मरहिता इत्यर्थः । यातं पारं यैस्ते यातपाराः श्रधिगतसर्वपदार्थाः इत्यर्थः । ये च श्रीलक्ष्मीस्तया श्रायातान् श्रतन्वत तनु विस्तारे इत्यस्य धोलुङन्तस्य रूपम् । यथा द्रव्येण राजानः आश्रितान् विस्तारयन्ति उत्तरत्र क्रियापदं तिष्ठति तेन सह सम्बन्धः ॥३॥ 9 आसत इति । श्रसते श्रास उपवेशने इत्यस्य घोः लङन्तस्य प्रयोगः । सततं सर्वकालं । ये च च शब्दः समुच्चये, यदः प्रयोगान् जसन्तान् समच्चिनोति पूर्वप्रक्रान्तान् । सति शोभने सतः ईबन्तस्व रूपम् । न विद्यते क्षयः विनाशो यस्यासावत्तयः । श्रालयः श्रवस्थानम् | अक्षयश्चासावालयश्च अक्षयालयः, पुरुश्चासावचयालयश्च पुर्वक्षयालय तन् पुर्वक्षयालये । ते तदः प्रयोगोऽयम्, यदः प्रयोगानपेक्षते । पु ददते इति पुण्यदाः । रतेनायातः रतायातः श्रतस्तम् । रागेणागतं भक्त्य मित्यर्थः । सर्वदा सर्वकालं । मा श्रस्मदः इवन्तस्य प्रयोगः । अभिरक्ष क्रियाम् । श्रभिपूर्वस्य 'रक्ष पालने' इत्यस्य धोः लोडन्तस्य प्रयोग: तं इति श्रभिरचत इति च यदो रूपेण जसन्तेन सह प्रत्येकमभिसम्ब ध्यते । किमुक्तं भवति - वराः यान् उपायान् नताः प्रणताः धिया, हिं विशिष्टया त्रितया, पुनरपि इताय । किमुक्त भवति - प्रेक्षापूर्व कारिभि ये स्तुताः ते मा रतायातं अभिरक्षत, ये च श्रपापा ये च यातपाराः ये श्रिया श्रायातान् प्रणतान् श्रतन्वत विस्तारयन्तिस्म ये च सति पुर्वक्षय लये सिद्धत्व पर्याये सततं श्रासते ये च पुण्यदाः ते यूयं मा सर्वदा रते भक्त्यागतं श्रभिरक्षत पालयत इत्युक्त भवति || ४ || JS + Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या अर्थ — जो पीडारहित - अनन्तसुखसम्पन्न है, प्राप्त हुईज्ञानावरण कर्मके अत्यन्त क्षयसे उपलब्ध — केवलज्ञानरूपी बुद्धिसे सहित हैं; जिन्हें उपाय - उपगम्य सेवनीय ( समझकर ) इन्द्र आदि श्रेष्ठ पुरुष नमस्कार करते हैं; जो पाप-कर्ममलसे रहित हैं; जो ( संसार - समुद्रके ) पारको पा चुके हैं अथवा जिन्होंने सब पदार्थ जान लिये हैं; जो शरण में आये हुए भव्यपुरुषों को लक्ष्मीद्वारा विस्तृत करते हैं-- केवलज्ञानादि लक्ष्मीसे युक्त करते हैं और जो उत्कृष्ट तथा अविनाशी मोक्षमन्दिर में सदा निवास करते हैं वे कल्याणप्रदाता जिनेन्द्र भगवान् भक्ति से सन्मुख आये हुए मुझ भक्तकी सदा रक्षा करें - उनके भक्तिपूर्वक आराधनसे मैं अपना आत्मविकास करने में समर्थ हो सकू । ॥३, ४ ॥ (साधिकपादाभ्यालयमक:' :') 3 नतपीला सनाशोक सुमनोवर्षभासितः ३ । भामण्डलासनाऽशोकसुमनोवर्ष भासितः॥ ५ ॥ १ यहां प्रथम पादके अन्तिम पांच अक्षरों और द्वितीय पादको पुनरावृत्ति की गई है, अतः 'साधिकपादाभ्यास यमकालंकार' है जिसका लक्षण निम्न प्रकार हैं :--- 'श्लोकपादपदावृत्तिर्वर्णावृत्तिर्युताऽयुता । भिन्नवाच्यादिमध्यान्तविषया यमकं हि तत् ॥' - अलंकार चिन्तामणि, पृष्ठ ४६ । जहां अर्थको भिन्नता रहते हुए श्लोक, पाद, पद और वर्णोंकी पुनरावृत्ति होती है वहां यमकालंकार होता हैं । वह श्रावृत्ति पाद श्रादि मध्य अथवा अन्त में होती हैं तथा कहीं अन्य पादपद और वर्णों से व्यवहित होती है और कहीं श्रव्यववति । अलंकारविपयके प्राचीन प्रन्धों में इस अलंकार के अनेक भेद बतलाये हैं परन्तु Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANNNNN समन्तभद्र-भारतो (गुप्तक्रियो मुरजबन्धः।) दिव्यैर्वनिसितच्छत्रचामरैर्दुन्दुभिस्वनैः । दिव्यैर्विनिर्मितस्तोत्रश्रमददुरिमिर्जनैः ॥६॥ (युम्म) 1 यहां आवश्यक समझ कर सिर्फ मेदोंका वर्णन किया जाता है(१) जहांप्रथम और द्वितीय पादमें समानता हो उसे मुख यमक,(२)जहां प्रथम और तृतीय पाद में समानता हो उसे सन्दंश, ( ३) जहां प्रथम और चतुर्थपादमें समानता हो उसे प्रावृत्ति, ( ४ ) जहां द्वितीय तृतीय पाद में समानता हो उसे गर्भ, (५) जहां द्वितीय और चतुर्थपादमें समानता हो उसे संदष्टक, (६) जहां तृतीय और चतुर्थपादमें समानता हो उसे पुच्छ, (७) जहां चारों चरण एक समान हों उसे पंक्ति, (८) जहां प्रथम और चतुर्थ तथा द्वितीय और तृतीय पाद एक समान हों उसे परिवृत्ति, (१)जहां प्रथम और द्वितीय तथा तृतीय और चतुर्थ पाद एक समान हों उसे युग्मक, (१०) जहां श्लोक का पूर्वार्ध और अपराध एक समान हो उसे समुद्गक और (११) जहां एक हो श्लोक दो बार पढ़ा जाता है उसे महायमक अथवा श्लोकयमक कहते हैं । जैसे इस पुस्तकके श्वें श्लोकमें 'संदष्टक' यमक, १५वें श्लोकमें 'यग्मक' यमक २५वें और ५२वश्लोकमें 'समुद्गक' यमक, ११-१२ ३, १६-१७ वें, ३७-३८वें, ४६-४७ ३, ७६-७७, और १०६-१०७ वें श्लोकोंमें महायमक (श्लोकयमक) है । ये " भेद श्लोक, श्लोकार्ध, और पादकी श्रावृत्तिको अपेक्षासे किये गये हैं। पादांश, पदांश, और वर्णोकी आवृत्तिकी अपेक्षा अनेक भेद हो जाते हैं। देखो, निर्णयसागर बम्बईसे प्रकाशित साहित्यदर्पणको टिप्पणी । यमकालंकारके भेद-प्रभेदोंका विशेष वर्णन सरस्वती कण्ठाभरण आदि आकरप्रन्थों में देखना चाहिये । दिवि भवैर्दिव्यैः परे दिवि गगने+ऐ:-गतवान् इति पदच्छेदः। ऐइ गताविति धातोलेकि मध्यमपुरुषस्यैकवचने रूपम् । अत्र 'ऐ' इति क्रिया गुप्ता। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या नतपीलेति । प्रथमपादस्य पञ्चाक्षराणि अभ्यस्तानि पुनरुच्चारितानि द्वितीयपादश्च समस्तः पुनरुच्चारितः । नतानां प्रणतानां पीला व्याधयः डोलो वा इति लत्वन्ताः अस्यतीति नतपीलासनः । तस्य सम्बोधन हे मतपीलासन । न विद्यते शोको यस्यासावशोकः तस्य सम्बोधनं हे अशोक । शोभनं मनोविज्ञानं यस्य सः सुमनाः तस्य सम्बोधनं हे सुमनः अव रक्ष अथवा वा समुच्चये दृष्टव्यः। हे ऋषभ श्रादितीर्थकर । श्रासितः स्थितः सन् । भामण्डलं प्रभामण्डलं, श्रासनं सिंहासनं, अशोकः अशोकवृक्षः, सुमनसः पुष्पाणि तेषां वर्ष सुमनो वर्ष पुष्पवृष्टिरित्यर्थः, तेषां द्वन्द्वः तैर्भासितः शोभित: भामण्डलासनाशाकसुमनोवर्षभासितः सन् । किमुक्त भवति-हे ऋषभ अव इत्यादि अथवा हे भटारक यदा त्वं स्थित: तदा एवं विधः सन् स्थितगतश्च त्वं यदा तदा एवंप्रकारैर्गतः । पक्ष्यमाणश्लोकेन सह सम्बन्धः ॥२॥ दिव्यैरिति । क्रिया पुनः तृतीयपादे गुप्ता दिन्यैरित्यत्र । अथवा मुरजबन्ध एवं दृष्टव्यः तद्यथा-चतुरोपि पादानधोधो व्यवस्थाप्य प्रथमपादस्य प्रथमाक्षरेण तृतीयपादस्य द्वितीयाक्षरं, तृतीयपादस्य प्रथमाक्षरं प्रथमपादस्य द्वितीयाक्षरेण सह गृहीत्वा एवं नेतव्यं यावत्परिसमातिः । पुनर्द्वितीयपादस्य प्रथमाक्षरं चतुर्थपादस्य द्वितीयाक्षरेण, चतुर्थपादस्य प्रथमाचरेण सह द्वितीयपादस्य द्वितीयाक्षरं च गृहीत्वा पुनरनेन विधानेन तावन्नेतव्यं यावत्परिसमाप्तिर्भवति । ततो मुरजबन्धः स्यात् । दिवि भवानि दिव्यानि अतस्तैर्दिव्यः द्वन्द्व कृत्वा ध्वनिसितछन. चामरैः पुनरपि दुन्दुभिस्वनैः दिव्यैरिति प्रत्येक समाप्यते । दिवि प्राकाशे ऐ: गतवान् इण् गतावित्यस्य धोः लडन्तस्य रूपम् । विनिर्मितानि कृतानि स्तोत्राणि स्तवनानि विनिर्मितस्तोत्राणि तेषु । श्रमः अभ्यासः । नानाप्रकारेण मधुररवेण (स्वरेण) कृतस्तवनमित्यर्थः विनिर्मितस्तोत्रश्रमः स एव ददुः वाद्यविशेषः विनिर्मितस्तोत्रश्रमददुरः । स येषामस्ति ते ' Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती विनिर्मितश्रमस्तोत्रदर्दुरिणः । तेः सह अथवा विनिर्मितस्तोत्रश्रमेण दई. रिणोतस्तै: सह जनैः समवसृतिप्रजाभिरित्यर्थः । किमुक्त भवतिचतुर्णिकायदेवेन्द्रचक्रधरबलदेववासुदेवत्रभृतिभिः सह गत: स्थितश्च भवान्, ततो भवानेव परमात्मा एतदुक्तं भवति ॥६॥ __ अर्थ हे ऋषभदेव ! आप नम्र मनुष्योंकी सांसरिक व्यथा ओंको हरने वाले हैं, शोकरहित हैं, आपका हृदय उत्तम हैलोककल्याणकारक भावनासे पूर्ण है । हे प्रभो! आप भामण्डल, सिंहासन, अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, मनोहर दिव्यध्वनि, श्वेतच्छत्र, चमर और दुन्दुभिनिनादसे शोभित होकर, अनेक स्तोत्रोंमें श्रम करनेवाले-मधुरध्वनिसे अनेक स्तुति करने वाले तथा दर्दुर आदि वाद्योंसे सहित दिव्यजनोंके -देवेन्द्र विद्याधर चक्रवर्ती आदिके-साथ ( समवसरणभूमिमें ) आसीन-स्थित) हुए थे और उन्हीं के साथ आपने आकाशविहार किया था। ___ भवार्थ-जब भगवान् समवसरण-भूमिमें विराजमान होते हैं तब उनके तीर्थकर नामकर्मके उदयके फलस्वरूप अष्ट प्रातिहार्यरूप विभूति प्रकट होती है वे उससे अत्यन्त शोभायमान होते हैं। समवसरण में बैठे हुए देव विद्याधर आदि भव्यजीव तरह-तरहके बाजे बजाते हुए मनोहर शब्दोंसे उनकी स्तुति करते हैं। तथा जब भगवानका आकाश-मार्गसे विहार होता है तब भी प्रातिहार्यरूप विभूति और अनेक उत्तम जन उनके साथ रहते हैं । इन सब बातोंसे आचार्य समन्तभद्रने भगवान् ऋषभदेवका अलौफिक प्रभाव प्रकट किया है ।।५,६।। t omisinamainabilitilation vaigirlus A Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या ( मुरजबन्धः) यतः श्रितोपि कान्ताभिदृष्टा' गुरुतया स्ववान् । वीतचेतोविकाराभिः स्रष्टा चारुधियां भवान् ॥७॥ यतः श्रितः इति । यतः यस्मात् श्रितोपि आश्रितोपि सेधितोपि कान्ताभिः स्त्रोभिः वानन्यन्तरादिरमणीभिः । तथापि दृष्टा प्रेषिता गुरुतया गुरुत्वेन गुरोर्भावः गुरुता तया । स्ववान् अात्मवान ज्ञानवानि. त्यर्थः । किं विशिष्टाभिः स्त्रीभिः वीतचेतोविकाराभि: वीतः विनष्टः चेतसः चित्तस्य विकारः कामाभिलाषः यासां ताः वीतचेतोविकाराः ताभिः वीतचेतोविकाराभिः । स्वष्टा विधाता। चाय॑श्च ताः धियश्च चारुधियः अतस्तासां चारुधियां शोभनबुदीनां । भवान् भट्टारकः । किमुक्त भवति--समवसृतिस्थस्त्रीजनसेवितोपि गुरुत्वेन ईक्षितासि यतस्ततः शोभनबुद्धीनां सृष्टा कर्ता भवानेव एतदुक्तं भवति ॥ ७ ॥ ___ अर्थ-हे प्रभो! यद्यपि आप समवसरणमें अनेक निर्विकार-कामेच्छासे रहित-सुन्दर देवियोंके द्वारा सेवित होते हैंबहुत देवियां आपकी उपासना करती हैं-तथापि आत्मवान्-जितेन्द्रिय होने के कारण आप महान्-पूज्य ही माने जाते हैं; अतः निर्मल बुद्धिके उत्पन्न करनेवाले विधाता आप ही हो। 'दृष्टा' यहां पर कर्तृवाच्य में 'तृच' प्रत्यय हुआ है और 'गुरुस्तु गोष्पती श्रेष्ठे गुरौ पितरि दुर्भरे इस कोश-वाक्यसे गुरु शब्दका पिता अर्थ भी स्पष्ट है। यदि श्लोक में 'ताः' इस कर्म पदका ऊपरसे सम्बन्ध कर लिया जावे तो श्लोकका एक अर्थ यह भी हो सकता है-'हे प्रभो! श्राप अनेक सुन्दर स्त्रियों के द्वारा सेवित होनेपर भी उन्हें पितृभावसे देखते हैं अर्थात् जिस प्रकार पुत्रीके प्रति पिताकी दृष्टि विकार-रहित होती है उसी तरह उनके प्रति भी आपकी दृष्टि विकार-रहित होती है; क्योंकि आप स्ववान् हैं - जितेन्द्रिय अथवा ज्ञानवान् है । और इसलिये उत्तम बुखिके उत्पादक भाप ही माने जा सकते हैं।' ... Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ समन्तभद्र-भारती भावार्थ - यद्यपि लोकमें स्त्रियोंका सम्पर्क प्रायः मानवकी प्रतिष्ठाको कम करनेवाला माना गया है तथापि उससे आपकी प्रतिष्ठामें कुछ भी कमी नहीं आती । क्योंकि जो स्त्रियां आपकी उपासना करती हैं वे स्वयं उस समय विकार - रहित होती हैं और आप आत्मवशी ज्ञानवान् होनेके कारण विकार रहित हैं ही । ऐसी अवस्था में यदि स्त्रियां मनोहर स्तोत्रोंसे आपकी 'भक्ति' करती हैं तो वह कुछ भी असमंजस प्रतीत नहीं होता ॥ ७ ॥ ( मुरजबन्ध : ) विश्वमेको रुचामाऽऽको व्यापो येनार्य्यं । वर्त्तते । ! शश्वल्लोकोऽपि चाऽलोको द्वीपो ज्ञानार्णवस्य ते ॥८॥ विश्वमेक इति । विश्वं समस्तं क्रियाविशेषणमेतत् । एकः श्रद्वितीयः । रुचां दीप्तानां श्राकः प्रापकः । कर्मणि तेयं ।" व्यापः व्यापकः । येन यस्मात् । हेतौ भा । हे आर्य भट्टारक ! वर्त्तते शश्वत् सर्वदा । लोक: द्रव्याधारः शश्वलोकः । अपि च श्रन्यच्च । श्रलोकोपि श्रलोकाकाशमपि । द्वीपः समुद्रे जलविरहितः प्रदेशः । ज्ञानं केवलज्ञानम् । अर्णवः समुद्रः । ज्ञानमेवार्णवः ज्ञानार्णवः तस्य ज्ञानार्णवस्य । ते तव । अथवा लोकस्यैव विशेषणम् । रुग्भिः ज्ञानैः श्राकः परिच्छेद्यः व्यापः मेयः । येन कारणेन लोकश्चालोकश्च श्राको व्यापश्च ज्ञानार्णवस्य ते तव तेन कारणेन द्वीपो वर्तते इति । किमुक्त भवति सर्वपदार्थेग्यः केवलज्ञानस्यैव माहात्म्यं दत्तं भवति ॥ ८ ॥ अर्थ - हे आर्य ! यह समस्त लोक और अलोक आपके केवलज्ञानका ही ज्ञ ेय है-- आपका केवलज्ञान लोकवर्ति समस्त पदार्थों और अलोकाकाश को जानता है - अतः वह आपके ज्ञानरूप समुद्रका एक द्वीप हैं । भवार्थ - जिस प्रकार विस्तृत समुद्र के भीतर द्वीप होता है - Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या उसी प्रकार आपके ज्ञानके भीतर लोक-अलोक हैं। द्वीपको अपेक्षा समुद्रका विस्तार जैसे बहुत बड़ा होता है वैसे ही लोक-अलोककी अपेक्षा आपके ज्ञानका विस्तार बहुत अधिक है। पदार्थ अनन्त अवश्य हैं, परन्तु वे आपके अनन्त-ज्ञानकी अपेक्षा अल्प हैं। अनन्तके भी अनन्त भेद होते हैं ॥८॥ (मुरजबन्धः) श्रितः श्रेयोऽप्युदासीने यत्त्वय्येवाऽश्नुते परः । क्षतं भूयो मदाहाने तत्त्वमेवार्चितेश्वरः ॥९॥ श्रितः श्रेय इति। श्रितः प्राश्रितः । श्रेयोपि पुण्यमपि । उदासीने मध्यस्थे। अत्रापि शब्दः सम्बन्धनीयः। यत् यस्मात् । त्वयि युष्मदः ईबन्तस्य प्रयोगः । भट्टारके एव नान्यत्र त्यर्थः । अश्नुते प्राप्नोति । परः जीवः । चतं विवरं छिद्र दुःखम् । भूयः पुनरपि । मदस्य अहानं यस्मिन् स मदाहानः तस्मिन् मदाहाने । मदः रागविशेषः । अहानं अपरित्यागः । तत् तस्मात् । त्वमेव भवानेव । अर्चितः पूजितः । ईश्वरः प्रधानः स्वामी । एतदुक्तं भवति-भट्टारके उदासीनेपि प्राश्रितः जीवः प्रश्नुते श्रेयः सरागे स्वयतिरिक्त ऽन्यत्र राजादिके जने पुनराश्रितः पतं दुःखमेव प्राप्नोति । तस्माद् भट्टारक एव अर्चितेश्वरः' नान्यः ॥६॥ ____ अर्थ-हे प्रभो ! यद्यपि आप उदासीन हैं-रागद्वषसे रहित हैं-तथापि आपकी सेवा करनेवाले-विशुद्ध चित्तसे आपका ध्यान करनेवाले-पुरुष कल्याणको ही प्राप्त होते हैं और अहंकारसे पूर्ण अथवा रागद्वषसे पूर्ण अन्य कुदेवादिककी सेवा करनेवाले पुरुष अकल्याणको प्राप्त होते हैं। अतः आप ही पूज्य ईश्वर हैं। भावार्थ-जो निर्मल भावोंसे आपकी स्तुति करता है उसे शुभ कोंका आस्रव होनेके कारण अनेक मंगल प्राप्त होते हैं और जो १ अर्चितश्चासावीश्वरम अचिंतेश्वरः । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ समन्तभद्र-भारती कलुषित भावसे आपकी निन्दा कर अन्य देव या राजा महाराजाकी सेवा करता है उसे अशुभास्रव होने से अनेक मं गल एवं दुःख प्राप्त होते हैं जब कि आप स्तुति और निन्दा करनेवाले दोनोंपर ही एकसमान दृष्टि रखते हैं - एक को अच्छा तथा दूसरे को बुरा नहीं मानते । ' ( गतप्रत्यागताद्ध: २ ) भासते विभुताऽस्तोना ना स्तोता भुवि ते सभाः । Co याः श्रिताः स्तुत ! गीत्या नु नुत्या गीतस्तुताः श्रिया ॥१०॥ भासते इति । श्रस्य श्लोकस्याद्ध पंक्त्याकारेण विलिख्य क्रमेण १ सुहृत्वयि श्री सुभगत्वमश्नुते द्विषं स्त्वयि प्रत्ययवत्प्रलीयते । भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो ! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥ ६६ ॥ — बृहत्स्व यंभू स्तोत्र | स्वभावाद्विमुखश्च दुःखम् । इवावभासि ॥७॥ - विषापहारस्तोत्र | 'उपैति भक्त्या सुमुखः सुखानि त्वयि सदावदातच तिरेकरूपस्तयोस्त्वमादर्श ७ २ श्लोकके अर्ध भागको पंक्त्याकार से लिखकर क्रमपूर्वक पढ़ना चाहिये । इस अलंकार में विशेषता यह है कि क्रम से पढ़नेमें जो श्रचर आते हैं वे ही अक्षर विपरीत क्रम - दूसरी तरफ से पढ़ने में भी आते हैं । इसी प्रकार श्लोकके उत्तरार्ध भागको भी लिख कर पढ़ना चाहिये यहां यह गतप्रत्यागत विधि अर्धश्लोक में है इसलिये इसे गतप्रत्या तालंकार कहते है। जहां सम्पूर्ण श्लोक में गतप्रत्यागत विभि होती है वहां गतप्रत्यागत अथवा अनुलोम-प्रतिलोम अलंकार कह लाता है । कहीं कहीं गत- प्रत्यागतविधि श्लोकके एक एक पादमें होती है । ३ नाऽनुस्वार विसौं च चित्रभङ्गाय संमतौ' । अर्थात् अनुस्वार श्री विसर्गकी होनाधिकतासे चित्रालङ्कार भग्न नहीं होता । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या mmmmmmwww.mr.rammmm पठनीयम् । क्रमपाठे यान्यक्षराणि विपरीतपाठेपि तान्येवाधराणि यतस्ततो गतप्रत्यागताद्धः। एवं द्वितीया मपि योज्यम् । एवं सर्वत्र गतप्रत्यागताद्ध श्लोकाः दृष्टष्याः । . भासते शोभते । विभोर्भावः विभुता स्वामित्वम् । तया । प्रस्ताः क्षिप्ताः जनाः न्यूनाः यकाभिः ता विभुतास्तोनाः । ना पुरुषः । स्तोता स्तुतेः कर्ता । भवि लोके । ते तव । सभाः समवसृती:, शसन्ता: दृष्टव्याः । याः यदः टाबन्तस्य प्रयोगः। श्रिताः श्राश्रिताः । हे स्तुत पूजित । गीत्या गेयेन । नु वितर्के । नुत्या स्तवेन गीताश्च ताः स्तुताश्र गीतस्तुता: । श्रिया लचम्या । श्रिता श्राश्रिताः याः सभाः गीत्या गीताः नुत्या स्तुताः संजाताः ना स्तोता पुरुषः भासते ॥१०॥ ___ अर्थ-हे स्तुत ! आपकी स्तुति करनेवाला पुरुष पृथ्वी पर उन समवसरण-सभाओंको पाकर अत्यन्त शोभित होता है जो सभाएं अष्ट महाप्रतिहार्यरूप लक्ष्मीसे शोभित हैं, संगीतमय स्तोत्रोंसे जिनका वर्णन किया जाता है, श्रेष्ठ पुरुषोंके नमस्कारसे जो पूज्य हैं और जिन्होंने अपने वैभवसे अन्य सभाओंको तिरस्कृत कर दिया है। भावार्थ-आपके स्तवन करनेसे मनुष्य तीर्थङ्कर होता है, जिससे वह भी समवरण सभाको पाकर आपके ही समान शोभित होता है। यह बात किसी अन्य आराध्यकी धाराधनासे नहीं हो सकती; क्योंकि तीर्थङ्कर प्रकृतिका आस्रव केवली या श्रत केवलीके सम्पर्क में रहनेसे ही होता है ॥१०॥ (श्लोकयमकः ) स्वयं शमयितु नाशं विदित्वा सन्नतस्तु ते । चिराय भवते पीड्यमहोरुगुरवेऽशुचे ॥११॥ स्वयं शमयित नाशं विदित्वा सन्नतः स्तते ।। चिराय भवतेपीड्य महोरुगुरवे शुचे ॥१२॥ (युग्मं) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती स्वयं शमेति-द्वौ श्लोकावेतौ पृयगौं दृष्टव्यौ । स्वयं स्वतः । शमयितुं विनाशयितुम् । नाशं विनाशम् कर्म । विदित्वा ज्ञात्वा उपलभ्य । सन्नतः सम्यग नतः प्रणतः। तु प्रत्यर्थम् । ते तुभ्यम् । चिराय नित्याय अक्षयपदनिमित्तं वा । भवते प्रभवते । भू सत्तायामित्यस्य धोः शत्रन्तस्य अबन्तस्य प्रयोगा। पीड्य सविधातम्. न पीड्य अपीड्यम्, महः तेजः, अपीड्य च तन्महश्च तदपीड्यमहः, प्रपोज्यमहसः रुक अपीड्यमहोरुक, वया उरुः महान् अपीड्यमहोरुगुरुः तस्मै अपोड्यम होरुगुरुवे अथवा अपीड्यमहाँश्च रुगुरुश्चासौ अपीड्यमहोरुगुरुः तस्मै अपीड्यमहोरुगुरवे । शुक् शोकः, न शुक् अशुक् तस्यै अशुचे। अशोकार्थी भवते तेन सम्बन्धः तदर्थे अवियं दृष्टच्या । अन्यत् सुगमम् । उत्तरश्लोके स्थितं क्रियापदमपेक्षते ॥११॥ ___ स्वयमिति-अयः पुण्यम् शोभनः अयः स्वयः तं स्वयम् । शं सुखम् । अयितु गन्तुम् । ना पुरुषः जीवः । प्रशं दुःखम् । विद् शानपान् अथवा विचारवान् । इत्वा गत्वा । सन् विद्यमानः । अतः अस्मात् कारणात् । स्तुते स्तुतिविषये । चिराय चिरेण अनन्तकालेन । अथवा अचिरेण तत्क्षणात् । झि संज्ञकोयम् । भवते प्राप्नुते । भूप्राप्तावित्यस्य धोः भाषाहा' इति अणिजन्तस्यापि प्रयोगो भवति । अपि सम्भावने । है| इंब्य पूज्य । महती उर्वी गौ वाणो यस्यासौ महोरुगुः, महोरुन गुरेव रविः महोल्गुरविः, तस्य सम्बोधन हे महोरुगुरवे । शुचे शुद्ध सर्वकर्मनिमुक्ते । एतदुक्तं भवति-तुभ्यं अशोकायं भवते अप्रतिहतकेवलज्ञानदीप्तये प्रात्मना सन्नत: ना पुरुषः प्रेक्षापूर्वकारी विनाशं विनाशयितु मोक्षार्थ सुखं गन्तु हे ईड्य महोरुगुरवे दुःखं गत्या पुण्यमपि प्राप्नुते ॥१२॥ अर्थ-हे स्तुत्य ! हे दिव्यध्वनिरूप किरणोंसे शोभायमान सूर्य ! जो ज्ञानवान पुरुष, विनाशको नष्ट करनेके लिये-अजर ..आत्मनेपदस्य। NAVavipmals Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या अमर पद पानेके उद्देश्यसे, अविनाशी-शोकरहित एवं निर्वाधप्रताप और केवलज्ञानसे सम्पन्न आपकेलिये सम्यक्प्रकार शुद्ध भावोंसे नमस्कार करता है तथा सब कोंको नष्ट करने वाले आपके स्तवनमें तल्लीन होता है वह दुःखोंको पाकर भी अन्तमें पुण्यस्वरूप-अविनाशी परमसुखको प्राप्त होता है। भावार्थ-जो पुरुष भक्तिपूर्वक आपको नमस्कार करता है वह समस्त कष्टोंको बिता कर अन्तमें जन्म-मरण के कष्टको भो दूर कर अविनाशी मोक्ष-पदको प्राप्त होता है॥११ १२॥ (प्रथमपादोद्भूतपश्चाद्ध कासरविरचितश्लोक: ) ततोतिता तु तेतीतस्तोतृतोतीतितोतृतः । ततोऽतातिततोतोते ततता ते ततोततः ॥१३॥ ततोतीति-प्रथमपादे यान्यक्षराणि तानि सर्वाण्यक्षराणि पश्चि. माद यत्र तत्र व्यवस्थितानि, नान्यानि सन्ति । तता विस्तीर्णा ऊतिः रक्षा तता चासावूतिश्च ततोतिः तस्या भावः ततोतिता । तुर्विशेषे । अति पूजायां वर्तमानी झि गिति संज्ञो न भवति, अतएव केवलस्यापि प्रयोगः । किमुक्तं भवति-विशिष्ट-पूजितप्रतिपालनस्वम् । ते तव युष्मदः प्रयोगः । इतः इदमः प्रयोग एभ्य इत्यर्थः । केभ्यः तोतृतोतीतितोतृतः। अस्य विवरणं-तोतृता ज्ञातृता, कुतः तु गतौ सौत्रिकोयं धुः सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थे वर्तन्ते इति । उतिः रक्षा वृन्दिा अय रवणे इत्यस्य धोः क्त्यन्तस्य प्रयोगः । तोतृताया ऊतिः तोतृतोतिः इति अवगमः प्राप्तिा इण् गतावित्यस्य धोः क्त्यन्तस्य प्रयोगः। तोतृशोते: १ इस श्लोकके प्रथम पादमें जो अक्षर हैं वे ही सब अक्षर आगेके पादोंमें जहाँ-तहाँ व्यवस्थित हैं। अन्य अक्षर नहीं हैं । श्लोककी रचना मात्र 'तकार' व्यजन अक्षरसे हुई है अत: यहां एक व्यन्जनचित्र अलंकार है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० समन्तभद्र भारती इति: तोवृतोतीतिः ज्ञातृत्ववृद्धिप्रापणमित्यर्थः । श्रथवा ज्ञातृत्वरक्षणविज्ञानामेति वा । तुदन्तीति तोतृणि तुद् प्रेरणे इत्यस्य धोः प्रयोगः तोवृतीतीतेः तोतृणी । तोतृतोतीति तोतृणि ज्ञानावरणादीनीत्थः । तेभ्यः वोवृतोतीतितोतृतः । ततः तस्मात् । तातिः परिग्रहः परायत्तत्वम् । दृश्यते चायं लोके प्रयोगः युष्मत्तात्या वयं वसामः युष्मत्परिग्रहेणेत्यर्थः । न तातिः प्रतातिः श्रतात्या तता विस्तीर्णाः श्रतातितताः श्रपरिग्रहेण महान्तो जाता इत्यर्थः । श्रतातिततेषु उता बद्धा ऊतिः रक्षा यस्य स श्रातातिततोतोतिः तस्य सम्बोधनं हे प्रतातिततोतोते । ततता विशालता प्रभुता त्रिलोके शस्त्रमित्यर्थः । ते तव । ततं विशालं विस्तीर्णं उतं बन्धः ज्ञानावरणादीनां संश्लेषः । ततं च तदुतं च ततोतम् । तत् तस्यतीति तततताः तस्य सम्बोधनं हे ततोततः ॥१३॥ अर्थ- हे भगवान् ! आपने, विज्ञानवृद्धि की प्राप्तिको रोकने वाले इन ज्ञानावरणादि कर्मोंसे अपनी विशेष रक्षा की हैज्ञानावरणादि कर्मोंको नष्ट कर केवलज्ञानादि विशेष गुणोंको प्राप्त किया है। तथा आप परिग्रहरहित - स्वतन्त्र हैं । इसलिये पूज्य और सुरक्षित हैं। एवं आपने ज्ञानावरणादि कर्मोंके विस्तृत - अनादिकालिक सम्बन्धको नष्ट कर दिया है अत: आपकी विशालता - प्रभुता स्पष्ट है - आप तीनों लोकोंके स्वामी हैं ॥ १३ ॥ ( एकाक्षरविरचितैकैकपादः श्लोक : १ ) येयायायाययेयाय नानानूनाननानन । ममाममाममामामिताततीतिततीतितः ॥१४॥ येयेति - येयः प्राप्यः श्रयः पुण्यम् यैः ते येयायाः । श्रायः प्राप्तः श्रयः सुखं येषां ते श्रायायाः, येयायाश्च श्रायायाश्च येयायायामाः तैः येयः प्राप्यः श्रयः मार्गो यस्यासौ येयायायाययेयायः तस्य सम्बोधनं हे १ इस श्लोकका प्रत्येक पाद एक-एक व्यन्जन अरसे बना है । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या २१ येयायायाययेयाय । नाना अनेकं, अनूनं सम्पूर्ण, नाना च अतूनं च नाना. नूने । अाननं मुखकमलम्, अननं केवलज्ञानम्. ग्राननं च अननं च धाननानने । नानानूने धाननानने यस्यामौ नानानूनाननाननः तस्य सम्बोधनं हे नानानूनाननानन । मम अस्मदः प्रयोगः। ममः मोहः दृश्यते च लोके प्रयोगः कामः क्रोधः ममत्वमिति । न विद्यते ममो यस्यासौ अममः तस्य सम्बोधनं हे अमम । श्रामो व्याधिस्तम् । आम क्रियापदम् । श्राम रोगे इत्यस्य धोः रूपम्, श्रामं श्राम । न मिता अमिता अपरिमिता । प्राततिः महत्वं । अमिता प्राततिर्यासां ताः अमिताततयः, ईतयः व्याधयः, अमिताततयश्च ताः ईतयश्च अमिताततीतयः, तासां ततिः संहतिः अमिताततीतिततिः । इतिः गमनं प्रसरः । अमिताततीतिततेः इतिः अमिताततीतिततीतिः । तां तस्यतीति अमिताततीतिततीतिताः । तस्य सम्बोधनं हे अमिताततीतिततोतितः । किमुक्तं भवति-हे एवंगुणविशिष्ट मम श्रामं रोगं श्राम विनाशय ॥१४॥ __अर्थ-हे भगवन् ! आपका यह मोक्षमार्ग उन्हीं जीवोंको प्राप्त हो सकता है जो कि पुण्यबन्धके सन्मुख हैं अथवा जिन्होंने पहले पुण्यबन्ध कर लिया है। समवसरणमें आपके चार मुख दिखाई देते हैं, आपका केवलज्ञान भी पूर्ण हैसंसारके सब पदार्थोंको एक साथ जानता है। यद्यपि याप ममताभावसे-मोहपरिणामोंसे-रहित हैं तथापि संसार सम्बन्धी अनेक बड़ी-बड़ी व्याधियोंको नष्ट कर देते हैं। हे प्रभो ! मेरे भी जन्म-मरणरूप रोगको नष्ट कर दीजिये ॥ १४ ॥ (पादाभ्याससर्वपादान्तयमकः, युग्मकयमकः ) गायतो महिमायते गा यतो महिमाय ते । पद्मया स हि तायते पद्मयासहितायते ॥१५॥ गायतो मेति यादृग्भूतः प्रथमः पादः तादृग्भूतो द्वितोयोपि । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती याग्भूतस्तृतीयः तादृशश्चतुर्थोपि अयते इति सर्वपादेषु समानं यतः अतो भवति पादाभ्याससर्वपादान्तयमकः । गायत: स्तुतिं कुर्वतः। के गैरै शब्दे इत्यस्य धोः शत्रन्तस्य प्रयोगः । महिमा माहात्म्यम् । अयते गच्छति । गाः वाणीः, गो इत्यस्य शसन्तस्य रूपम् । यत: यस्मात् । महिमानं अयते महिम्नायते स्म वा महिमायः तस्य सम्बोधनं हे महिमाय । ते तव । पद् पादः । दृश्यते च पच्छब्दस्य बोके प्रयोग: गौः पदा न सृष्टव्या। मया अस्मदः भान्तस्य प्रयोगः । सः तदः वान्तस्य रूपम्। हि निपातोऽयं स्फुटार्थे । तायते विस्तार्यते । तस्य पादस्य गुगणाः विस्तार्यन्ते तेषां विस्तारे सति पादस्यापि विस्तारः कृतः । गुणगणिनोरभेदः । पद्मया लक्ष्म्या सहिता श्रायतिः शरीरायामः यस्यासौ पद्मयासहितायति: गमकत्वात्सविधिः । यथा देवदत्तस्य गुरुकुलम् । यथायं गुरुशन्दोन्यमपेक्षते एवं सहित शब्दोपि । अथवा पनेषु यातीति पनयाः । सह हितेन घर्तत इति सहिता प्रायतिः प्राज्ञा। सहिता प्रायतिर्यस्यासौ सहितायति: पदयाश्चासौ सहितायतिश्च पद्मयासहितायतिः । तस्य सम्बोधनं हे पद्मयासहितायते । किमुक्त भवति-हे महिमाय पद्मया सहितायते ते पदं गायत: महिमा' प्रयते गाः यतः ततो मया स हि पद् तायते विस्तार्यते स्तूयते इत्यर्थः ॥१५॥ अर्थ-हे भगवन् ! आप स्वयं माहात्म्यको प्राप्त हैं, आपका शरीर भी लक्ष्मीसे-अनुपम सौन्दर्यसे-सहित है। अथवा आप कमलोंपर विहार करते हैं-विहार करते समय देव लोग आपके चरणोंके नीचे कमलोंकी रचना करते हैं और आपकी आज्ञा भव्यजीवोंका हित करने वाली है। हे प्रभो ! जो आपका गुणगान करता है उसकी वाणीको महत्त्व प्राप्त होता है १ महिमा गाः अयते इत्यनेन महिम्नः स्तुतिविषयत्वमुक्तम् । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या wwvvv उसकी वाणी अनेक अतिशयोंसे पूर्ण होती है-अतः मैं भी आपके चरणकमलोंको-उनके गुणोंको-विस्तृत करता हूँ उनको स्तुति करता हूँ। भावार्थ-जिनेन्द्रदेवके चरणकमलोकी स्तुति करनेने पुरुषक बचनोंमें वह शक्ति निहित होती है जिससे वह सर्वोपकारी उपदेश देने में दिव्यध्वनि खिराने में समर्थ होता है अतः आचार्य समन्तभद्र भी भगवान् वृषभनाथके चरणोंकी स्तुति करने में प्रवृत्त हुए हैं ।। १५ ।। - - - अजित-जिन-स्तुतिः (श्लोकयमक:) 'सदक्षराजराजित प्रभो दयस्व वर्द्धनः । सतां तमो हरन् जयन् महो दयापराजितः ॥१६॥ सदेति-सत् शोभनम् । अक्षर अनश्वर । न विद्यते जरा वृद्धत्वं बस्यासावजरः तस्य सम्बोधनं हे अजर । अजित द्वितीयतीर्थकरस्य माम । प्रभो स्वामिन् । दयस्व-दय दाने इत्यस्य धोः लोडन्तस्य रूपम् । पद्धनः नन्दनः त्वं यतः । सतां भव्यलोकानाम् । तमः अज्ञानम् । हरन् नाशयन् । जयन् जयं कुर्वन् इत्यर्थः। महः तेजः केवलज्ञानम्, दयस्व इस्यनेन सम्बन्धः। दयापर दयाप्रधान । न जित: अजितः। किमत भवति-अन्ये सर्वे जिता: त्वमजित: अतः हे अजित भट्टारक मह: सद्ज्ञानं दयस्व ॥१६॥ अर्थ-उत्तम अविनाशी और जरा रहित हे अजितनाथ प्रभो! आप क्षमा आदि गुणोंसे वधमान हैं, साधुपुरुषोंक अज्ञानअन्धकारको नष्ट करनेवाले हैं, विजयी हैं और कामक्रोध आदि शत्र भोंसे अजित हैं-काम-क्रोध आदि दोषांसे १ प्रमाणिका छन्दः 'प्रमाणिका जरौ लगौ' इति लक्षणात् । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ समन्तभद्र-भारती rammmmmmmmmmwww रहित हैं। हे दयालु देव ! वह दिव्य तेज-केवलज्ञान-मुझे भी दीजिये (जिसके प्रतापसे आप परमपूज्य उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त हुए हो) ॥ १६ ॥ सदक्षराजराजित प्रभोदय स्ववर्द्धनः । स तान्तमोह रंजयन् महोदयापराजितः ॥१७॥ सदक्षेति-सह दक्ष विचक्षणैः सह वर्तन्त इति सदक्षाः । सदक्षा श्च ते राजानश्च सदराजानः तै: राजितः शोभितः सदक्षराजराजित तस्य सम्बोधनं हे सदराजराजित । प्रभायाः विज्ञानस्य उदयो वृद्धि यस्यासौ प्रभोदयस्तस्य सम्बोधनं हे प्रभोदय । स्वेषां स्वानां वा पद्धनः नन्दनः स्ववद नस्त्वम् । अथवा स्ववद्ध नः अस्माकम् । स एवं विशिष्ट स्त्वं ! तान्त: विनष्टः मोहः मोहनीयकर्म यस्यासौ तान्तमोहः तस्व सम्बोधनं भो तान्तमोह। रंजयन् अनुरागं कुर्वन् इत्यर्थः । महान् पृथुः पूज्यः उदयः उद्भूतियेषां ते महोदयाः देवेन्द्रचक्रेश्वरादयः । अपरान अन्तःशत्रून् मोहादीन् प्रासमन्तात् जयंतीति कर्तरि विप् अपराजितः। महोदयाश्च ते अपराजितश्च ते महोदयापराजितः । अथवा द्वन्द्वः समासः तान् महोदयापराजितः कर्मणि इपो बहुत्वम् । समुदायार्थ:-हे अजित भट्टारक सहमराजराजित प्रभोदय स्ववद्धनः त्वं सः तान्तमोह रज्जयन महोदयापराजितः महः दयस्व ॥१॥ . अर्थ-समर्थ अथवा चतुर राजाओंसे शोभित ! केवलज्ञानसे सहित ! और मोह-विकारसे शून्य ! हे अजित देव ! आप आत्मीय जनोंको बढ़ाने वाले हैं-उन्नत पदपर पहुँचाने वाले हैं और महान् ऐश्वर्य से सहित इन्द्र चक्रवर्ती आदि तथा कामक्रोध आदि अन्तरङ्ग शत्रु ओंको जीतने वाले बड़े-बड़े मुनियों को अनुरञ्जित-आनन्दित करते हैं। हे प्रभो! वह सम्यम्ज्ञान मुझे भी दीजिये जिसके प्रसादसे आप इस उत्कृष्ट दशाकों Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " स्तुविविधा प्राप्त हुए हो' ॥१७॥ शम्भव-जिन-स्तुतिः (अद्धभ्रमः) नचेनो न च रागादिचेष्टा वा यस्य पापगा। नो वामैः श्रीयतेऽपारा नयश्रीभुवि यस्य च ॥१८॥ पूतस्वनवमाचारं तन्वायातं भयाद्चा । स्वया वामेश पाया मा नतमेकाय॑ शंभव ॥१९॥ (युग्मं ) नचेन इति–नच प्रतिषेधवचनम् । इनः स्वामी । नच प्रतिषेधे । रागः पादियेषां ते रागादयः तेषां चेष्टा कायव्यापारः रागादिचेष्टा । वा समुच्चये । यस्य देवस्य तव । पापं गच्छतीति पापगा। चेष्टा च पापगा बस्व नचास्ति । नो नच । वामैः क्षुद्रः मिथ्यादृष्टिभिः। श्रीयते आश्रीबते । अपारा अगाधा अर्थनिचिता । यस्य ते । नयस्य आगमस्य त्वदभि. प्रावस्य श्रीः लक्ष्मीः नयश्रीः । भुवि लोके । हे शंभव एवंविशिष्टस्त्वं मा पायाः । उत्तरश्लोकेन सम्बन्धः ॥ १८ ॥ पूतस्वेति-पूतः पवित्रः सु सुष्टु अनवमः गणधराद्यनुष्ठितः प्राचारः पापक्रियानिवृत्तिर्यस्यासौ पूतस्वनवमाचारः अतस्तं पूतस्वनवमाचारम् । तन्वा शरीरेण पायात भागतम् । भयात् संसारभीतेः । रुचा तेजसा । स्वया प्रात्मीयया प्रात्मीयतेजसेत्यर्थः । वामाः प्रधानाः प्रधा. 'महोदयस्व' इति पूर्वश्लोकगतकर्मक्रियाभ्यां सम्बन्धः । अथवा 'स्वधई नः' इत्यस्य 'सु+अव+ऋ+नः' इति च्छेदं विधाय 'हे सम्पन्न ! नोऽस्मान्; स्ववसुष्ठु रक्षे-त्यर्थकरणे न पूर्वेण श्लोकेन सहान्वय-योजनप्रयासः करणीयः ।। . २न अवमः अनवमः अनधम इत्यर्थः। "निकृष्टप्रतिकृष्टावरेफयाप्वधमाधमा:..."समाः" इत्यमरः । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ समन्तभद्र- भारती नेपि चामशब्दः प्रवर्त्तते । वामानामीशः स्वामी वामेशः तस्य सम्बोधनं हे वामेश | पायाः रक्ष । पा रक्षणे इत्यस्य धोः श्राशीलिंङन्तस्य प्रयोगः । मा श्रस्मदः इबन्तस्य रूपम् । नतं प्रणतम् । एकैः प्रधानैः श्रर्यः पूज्यः एकार्थः, अथवा एकश्चासावर्च्यश्च एकार्थ्यः तस्य सम्बोधनं हे एकार्थ्यं । शम्भवः तृतीयतीर्थ करभट्टारकः तस्य सम्बोधनं हे शम्भव ! किमुक्क ं भवति- -यस्य न इन: रागादिचेष्टा च पापगा यस्य नास्ति यस्य नाश्रीयते वामै: नयश्रीः हे शम्भव स त्वं स्वतेजसा मा श्रागतं शोभनाचारं नतं पायाः एतदुक्तं भवति ॥ १६ ॥ अर्थ - जिनके पाप बन्ध करानेवाली रागादिचेष्टाओंका सर्वथा अभाव हो गया है और जिनकी अपार नयलक्ष्मीको भूमितलपर मिथ्यादृष्टि लोग प्राप्त नहीं हो सकते ऐसे, इन्द्र चक्रवर्ती आदि प्रधान पुरुषोंके नायक ! अद्वितीय पूज्य ! हे शंभवनाथ जिनेन्द्र ! आप सबके स्वामी हैं--रक्षक हैं, अत: अपने दिव्य तेजद्वारा मेरी भी रक्षा कीजिये । मेरा श्राचार पवित्र और उत्कृष्ट है । मैं संसार के दुःखोंसे डर कर शरीर के साथ आपके समीप आया हूं । 1 भावार्थ- 'मैं किसीका भलाया बुराकरू" इस तरह रागद्वेषसे पूर्ण इच्छा और तदनुकूल क्रियाएं यद्यपि वीतराग के के नहीं होतीं तथापि वीतरागदेवकी भक्ति से भक्त जीवोंका स्वतः भला हो जाता है, क्योंकि वीतरागकी भक्ति से शुभ कर्मो में अनुभाग (रस) अधिक पड़ता है, फलतः पाप कर्मोंका रस घट जाता अथवा निर्बल पड़ जाता है और अन्तराय कर्म बाधक न रहकर इष्टकी सिद्धि सहज ही हो जाती है । इसी नयदृष्टिको लेकर अलंकारकी भाषा में आचार्य समन्तभद्र भगवान् शंभवनाथ से प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं संसारसे डर कर आपकी शरण में आया हूं, मेरा आचार पवित्र है और मैं आपको नमस्कार कर रहा हूं अतः आप मेरी रक्षा कीजिये, - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAMINATHPTH स्तुतिविद्या क्योकि आप इस कार्य में समर्थ हैं-आपकी शरणमें पहुंचनेसे रक्षाकार्य स्वतः ही विना आपकी इच्छाके बन जाता है ।। १८,१६ ॥ (अदभ्रमः) धाम स्वयममेयात्मा मतयादभ्रया श्रिया । स्वया जिन विधेया मे यदनन्तमविभ्रम ॥२०॥ धामेति-धाम अवस्थानं तेजो वा । शोभनः श्रयः पुण्यं सुखं वा यस्मिन् तत् स्वयम् । अथवा स्वयं श्रात्मना । अमेयः अपरिमेयः प्रात्मा ज्ञानं स्वभावो वा यस्यासौ अमेयात्मा । मतया अभिमतया । अदभ्रया' । महत्या । श्रिया लक्ष्म्या । स्वया आत्मीयया । हे जिन परमेश्वर । विधेयाः कुरु । वि पूर्वः धान करोत्यर्थे वर्त्तते । मे मम । यत् अनन्तं न विद्यते अन्तो विनाशो यस्य तदनन्तं धाम । विभ्रमः मोहः न विद्यते विभ्रमो यस्यासावविभ्रमः । तस्य सम्बोधनं हे अविभ्रम । एतदुक्तं भवति-हे जिन अविभ्रम स्वकीयया श्रिया धाम अवस्थानं यदनन्तं मे मम तत् विधेयाः ॥ २० ॥ . अर्थ-हे मोहरहित शंभवनाथ जिनेन्द्र ! आप अपनी अभिमत विशाल लक्ष्मीसे ही अमेयात्मा-अनन्तज्ञानी हुए हो अतः आप मुझे भी उत्तम पुण्य या सुखसे सहित वह धामस्थान, तेज अथवा ज्ञान प्रदान कीजिये जिसका कभी अन्त न हो ॥२०॥ अभिनन्दन जिन स्तुतिः श्रद्ध भ्रमः। अतमः स्वनतारक्षी तमोहा वन्दनेश्वरः । महाश्रीमानजो नेता स्वव मामभिनन्दन ॥२१॥ १ भद, बहुलं बहुः इत्यमरः । २ स्वाज्ञातावात्मनि Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती __ अतम इति-तमः अज्ञानं न विद्यते तमो यस्यासावतमाः तस सम्बोधनं हे अतमः । स्वतः प्रात्मनः नताः प्रणताः स्वस्मिन् नताः व स्वनताः । श्रारचणशीलः आरक्षी । स्वनतानामारक्षी स्वनतारक्षी । तम मोहं च हन्ति जहातीति तमोहा त्वं वन्दनेश्वरः वन्दनायाः ईश्वर स्वामी वंदनेश्वरः । महती चासौ श्रीश्च महाश्रीः महाश्रीः विण यस्यासौ महाश्रीमान् । न जायत इत्यजः । नेता नायकः। स्वव र सुपूर्वस्य अवरक्षणे इत्यस्य धो: लोडन्तस्य रूपम् । मां अस्मदः इबन्द स्य रूपम् । अभिनन्दनः चतुर्थजिनेश्वरः तस्य सम्बोधनं हे अभिनन्दन किमुकं भवति-हे अभिनन्दन अतमः स्वनतारक्षी सन् त्वं तमो सन् इत्येवमादिः सन् मां अभिरक्ष ॥ २१ ॥ अर्थ-हे अज्ञानान्धकारसे रहित ! हे अभिनन्दनना जिनेन्द्र ! जो आपको नमस्कार करते हैं उनकी आप रक्षा कर हैं। आप मोहसे रहित हैं, वन्दनाके ईश्वर हैं-सबके वन हैं, अनन्त चतुष्टय तथा अष्ट प्रातिहार्यरूप लक्ष्मीसे सहित हैं,अर हैं-भावो भवग्रहणरूप जन्मसे रहित हैं और नेता हैं-मोक्ष मार्गके उपदेशक हैं; अतः मेरी भी रक्षा कीजिये---मुझे में संसारके दुःखोंसे बचाइये ।। २१ ॥ (गर्भे महादिशि चैकाक्षरश्चतुरक्षरचक्रश्लोकः' ।) नन्द्यनन्तद्वधनन्तेन नन्तेनस्तेऽभिनन्दन । नन्दनर्द्धिरनम्रो न नम्रो नष्टोऽभिनन्ध न ॥२२॥ १ चक्राकार गोल रचना बनाकर उसके बीचमें स्वल्प गोलाकार गर्भ चक्रमध्यकी रचना करे । फिर चक्रमध्यसे चारों दिशाओं में चार पारों रचना करे। इस अलंकारमें गर्भ और चार महादिशाओंके अन्ति अक्षर एक समान होते हैं। चित्र परिशिष्टमें देखिये । यह अलंकार इ पुस्तकवे २३वें और २४वें श्लोक में भी हैं । २ नन्दी+अनन्तर्दि+में Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या २६ नन्द्यनन्तेति - चक्रं भूमौ व्यालिख्य गर्भे चक्रमध्ये चतसृषु महादिक्षु च एकाक्षरैः समानाक्षरैर्भवितव्यम् । चक्रमध्ये नकारं दवा, तस्यो' बहिर्भागे अरमध्ये 'न्द्य' न्यस्य तस्याप्यूर्ध्व महादिशि नकारं संस्थाप्य, नेमिमध्ये दक्षिणदिशि 'न्तर्य' अक्षरे न्यसनीये । पुनर्महादिशि नकार संस्थाप्य श्ररमध्ये 'ते' न्यस्य, गर्भे पुनरपि नकारो न्यसनीयः । पुनरपि गर्भे नकारः । श्ररमध्ये 'ते' न्यस्य महादिशि नकारः । एवं सर्वत्र तस्य संदृष्टिः । सप्ताक्षराणि समानानि गर्भान्तरेणैवैकेन लभ्यन्ते । अरमध्ये चत्वार्य्यक्षराणि श्रन्यानि समानानि लभ्यन्ते । महादिच्वपि चत्वार्यचराणि श्रन्यानि समानानि लभ्यन्ते एवमेतानि पञ्चदशाक्षराणि चक्रस्थितस तदशाक्षराणि गृहीत्वा श्लोकः सम्पद्यते । एवं सर्वे चक्रश्लोका " रष्टव्याः । श्रस्यार्थः कथ्यते - नन्दो वृद्धिः सोस्यास्तीति नन्दी अथवा नन्दनशीलो नन्दी अशुष्यपि शीले णिन् भवति । श्रनन्ता ऋद्धिः बिभूतिर्यस्यासौ अनन्तर्द्धिः । न विद्यते श्रन्तो विनाशो यस्यासावनन्तः बन्दी चासौ अनन्तर्द्धिश्च नन्यनन्तर्द्धिः सचासावनन्तश्च मन्यनन्तनन्तः तस्य सम्बोधनं हे नन्यनन्तर्घ्यनन्त । इन स्वामिन् । नन्ता स्तोता । इनः स्वामी, सम्पद्यत इत्यध्याहार्यः । ते तव । हे श्रभिनन्दन । नन्दना ऋद्धिर्यस्यासौ नन्दनर्द्धिः । न नम्रः नम्रः । न प्रतिषेधे । किमुक्त भवति - प्रवृद्धश्रीर्यः पुरुषः स तव श्रमम्रो श्रप्रणतः न किन्तु नम्र एव । नम्र प्रणतः यः स नष्टो विनष्टो न । श्रभिनन्द्य त्वा श्रभिनन्द्य इत्यध्याहार्यः । किमुक्त' भवति - हे अभिनन्दम ते नम्ता इनः सम्पद्यते कुतः नन्दनर्द्धिः यतः, श्रप्रणतो नास्ति ते श्रभिनन्द्य च यो नम्र स विनष्टो म यतः || २२ ॥ न्तः, एषां कर्मधारये सति सम्बुद्धौ रूपम्, 'इन' इति सम्बुद्धौ पृथक पदम् । 'नन्ता + इनः' इति पदच्छेदः | 'त्या' इति पदमध्याहार्यम् । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती -rwww.rrrrrrrrm अर्थ-समृद्धि-सम्पन्न, अनन्त ऋद्धियोंसे सहित अन्तरहित हे अभिनन्दन स्वामिन् ! आपको नमस्कार का वाला पुरुष ( आपके ही समान सबका ) ईश्वर हो जाता है। बड़ी बड़ी ऋद्धियोंके धारी हैं वे आपके विषयमें अनम्र ना है-श्रापको अवश्य ही नमस्कार करते हैं और जो आप स्तुति कर नम्र हुए हैं वे कभी नष्ट नहीं होते-अवश्य ही अपि नाशी मोक्षपदको प्राप्त होते हैं। . भावार्थ-जो सच्चे हृदयसे भगवान्को नमस्कार करते। वे अनेक बड़ी ऋद्धियोंको प्राप्त होते हैं और अन्तमें को क्षय कर अविनाशी मोक्ष-पद पा लेते हैं। इसलिए प्राचार्य ठीक ही कहा है कि आपको नमस्कार करनेवाले पुरुष आप ही समान संसारके ईश्वर हो जाते हैं ॥२२॥ (गर्भे महादिशि चैकाक्षरचक्रश्लोकः ) नन्दनश्रीर्जिन त्वान' नत्या' नर्द्धया स्वनन्दि न । नन्दिनस्ते विनन्ता न' नन्तानऽन्तोभिनन्दन ॥२३॥ नन्दनेति-नन्दना चासो श्रीश्च नन्दनश्रीः पुरुषो वा । हे जिन स्वा युष्मदः इबन्तस्य प्रयोगः । न न नत्वा किन्तु नत्वैव । द्ध्य विभूत्या सह स्वनन्दि, क्रियाविशेणम् । स्वन्दि यथा भवति तथा स्वहां यथा भवति । नन्दिनः समृद्धिमतः । ते तव । विनन्ता च विशेषनन्ता न न नन्ता स्तोता । अनन्तः अविनश्वरः सिद्धः सम्पद्यते यतः । अभिनन्दन । किमुक्त भवति-हे अभिनन्दन जिन नन्दिनरते नन्दनश्री सनात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ भूतैर्गुणेभुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः तुल्या भवन्ति भदतो ननु तेन किंवा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति। -भक्तामरस्त्रोत्रे मानतुगः 1.1, २-२ द्वौ ना शब्दौ प्रकृतार्थस्य दाढ्यं सूचयतः । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या अद्ध्या सह स्वा न न नवा विनन्ता च तव न न यस्मात् नन्ता सर्वोपि अनन्तसिद्धः सम्पद्यते ॥ २३ ॥ ___अर्थ-हे अभिनन्दन जिन ! आप अनन्त-चतुष्टयरूप समृद्धिसे सुशोभित हैं। जो समृद्धिशाली पुरुष प्रसन्नचित्त होकर अपनी विभूतिके साथ आपकी पूजा करता है--आपको नमस्कार करता है-वह अवश्य हो अनन्त हो जाता हैजन्ममरणसे रहित सिद्ध हो जाता है ।।२३।।। (गर्भमहादिशैकाक्षरचक्रश्लोकः) नन्दनं त्वाप्यनष्टो न नष्टोऽनत्वाभिनन्दन । नन्दनस्वर नत्वेन' नत्वेनः' स्यन्न नन्दनः ॥२४॥ .... नन्दनं त्वेति-नन्दनं वृद्धिकरं । त्वा युष्मदः इबन्तस्य रूपम् । गान्य प्राप्य । मष्टो विनष्टो न । नष्टो विनष्टोऽनत्वा प्रस्तुत्वा । हे अभिनन्दन । नन्दनः प्रीतिकरः स्वरो बचन यस्यासौ नन्दनस्वरः तस्य सम्बोधनं हे नन्दनस्वर । त्वा इत्यध्याहार्यः । स्वा नस्वा स्तुत्वा । इन स्वामिन् । नतु एनः पापम् । स्यन् । विनाशयन् न नन्दनः किन्तु नन्दन एर । द्वोनलो प्रकृतमथं गमयतः। किमुकं भवति-हे अभिनन्दन स्वा मन्दनं प्राप्य न नष्टः यो नः सः अनस्वैव, स्वा नस्वा एनः स्यन् न तु न नन्दनः किन्तु नन्दन एव ॥२४॥ अर्थ-हे मधुरभाषी अभिनन्दन जिन ! आप केवलज्ञानादि गुणोंसे सम्पन्न हैं। आपको पाकर संसारमें कोई भी जीव नष्ट नहीं हुआ-आपके चरणकमलोंका श्राश्रय पाने. बाला हरएक प्राणी अवश्य ही अविनाशी मोक्षपदको प्राप्त १ 'नत्वा इन इति पदच्छेदः। २ 'मतु+एन:-पापमिति पदच्छेदः । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारतो हो जाता है । संसारमें नष्ट वही हुप्रा है-जन्म-मरणके दुर वही उठा रहा है--जिसने (हृदय से ) आपको नमस्कार नहीं किया । हे स्वामिन् ! जो आपको नमस्कार कर दुष्कर्मोकोपापोंको-नष्ट करता है वह अवश्य ही ज्ञानादि गुणोंसे वर्ष मान या सम्पन्न हो जाता है। _____ भावार्थ-जिनका हृदय आपकी भक्तिसे उज्वल होता वे ही जीव दुष्कर्मों का क्षय कर उच्च अवस्थाको प्राप्त होते है। श्रात्मासे परमात्मा होजाते हैं और वे ही जीव अन्तमें सर्व कर्मोंका विनाश कर मुक्त अवस्थाको प्राप्त होते हैं:-संसार के दुःखोंसे पूर्णतया छूट जाते हैं ।। २४ ।। . सुमति-जिन-स्तुतिः (समुद्गकयमकः ।) देहिनो जयिनः श्रेयः सदाऽतः सुमते ! हितः । देहि नोजयिनः' श्रेयः स दातः सुमतेहितः ॥२५॥ देहीति-यादृग्भूतं पूर्वाद्ध पश्चाई मपि तादृग्भूतमेव समद्गर इव समुद्गकः । ___ देहिनः प्राणिनः । जयिनः जयनशीलस्य । कर्तरि ता । श्रेयः श्रय णीयः । सदा सर्वकालम् । अत: अस्माद तो: हे सुमते । हितः स्वम् समतिरिति पंचमतीर्थङ्करस्य नाम । देहि दुदान दाने इत्यस्य धो लोडन्तस्य रूपम् । नः अस्माकम् । न जायते इत्यजः । इन स्वामिन् श्रेयः सुखम् । स एवं विशिष्टिस्त्वम् । हे दातः दानशील । मतं पागम १ नः+ अज:+इनः इति पदच्छेदः ! अज शब्दः स्वौजसमौडि सुप्रत्ययः । ससजुषोरुरिति रुत्वम् । 'भो भगो अधो अपूर्वस्य योऽशि इति रोर्यादेशः । लोपः शाकल्यस्येति विकरुपेन यकारलोपः। ततो ना विकल्पस्वाल्लोपः। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या इंहितं चेष्टितम् । मतं च ईहितं च मतेहिते शोभने मले हिते यस्यासो सुनरोहितः । किमुक्तं भवति-यो देहिनः श्रेयः यो वा दानशीलः यो वा सुमतेहितः हे सुमते स त्वं प्रतः देहि नः श्रेयः ।।२।। ___ अर्थ-हे सुमति जिनेन्द्र ! आप कर्मरूप शत्रओंको जीतने वाले प्राणियोंके उपासनीय हैं-जो प्राणी अपने कमरूप शत्रुओं को जीतना चाहते हैं वे अवश्य ही आपकी उपासना करते हैं (क्योंकि आपकी उपासनाके बिना कर्मरूप शत्रु नहीं जीते जा सकते ) आए सदा उनका हित करनेवाले हैं, आपके द्वारा प्ररूपित पागम और आपकी चेष्टाएं उत्तम हैं। आप अज हैजन्म-मरणकी व्यथासे रहित हैं, सबके स्वामी हैं । हे दानशील भगवन् ! मुझे भो मोक्षरूप कल्याण प्रदान कीजिये ॥२।। (चक्रश्लोकः' ) वरगौरतनु देव वंदे नु त्वाक्षयाजव' । वर्जयाति त्वमावि वर्यामानोरुगौरव ॥२६॥ वरगौरेति-बरा श्रेष्ठा गौरी उत्तप्तकाञ्चननिभा तनुः शरीरं यस्यासौवरगौरतनुः अतस्तं वरगौरतनु । हे देव भट्टारक । वन्दे स्तौमि । नु अत्यर्थम् । त्वा भट्टारकम् । क्षयः विनाशः आर्जवं ऋजुत्रम्, अपेक्षा. पूर्वकारिस्वमिन्यर्थः । अयश्च प्रार्जवं च क्षयार्जवे न विद्यते क्षयार्जवे बस्यासावनयात्रः तस्य सम्बन्धनं हे अक्षयार्जव । वर्जय निराकुरु । .... इसकी रचना २२ वें श्लोकके समान है, उसमें गर्भ और पार महादिशापोंके अन्तिम अक्षर एक समान थे परन्तु इसमें महा. दिशामोंके अतर भिन्न है। यह अलंकार इस प्रन्थके ५३ और ५४ मम्बरके श्लोकों में भी है। चित्र परिशिष्टमें देखिये । " २ 'स्वा+अक्षयाजव' इति पदच्छेदः । अक्षयोऽविनश्वरः आर्जवो. मायित्व लक्षणां धर्मोयस्व स तत्सम्बोधनम् । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती अर्ति पीडाम् । त्वं प्रार्य योगिन् । नः इत्यध्याहार्यः तेन सम्बन्धः नः अस्मान्. । अव रक्ष । हे वर्य प्रधान । अमानोरुगौरव भमानं अपरिमाणं उरु महत् गौरवं गुरुत्वं यस्य सः अमानोरुगौरवः तस्य सम्बोधनं हे प्रमानोरुगौरव । एतदुक्तं भवति-हे देव त्वा वन्दे अस्माकं अर्ति- वर्जय । अस्मान् रक्ष च ॥२६॥ अर्थ-हे विनाश और अविवेकसे रहित ! ( अथवा अविनाशी आर्जव धर्मसे सहित !) हे आर्य ! हे सर्वोत्तम !i अपरिमित-विशाल गौरवसे युक्त ! सुमतिदेव ! जिनका शरी तपाये हुए सुवर्णके समान अत्यन्त गौर वर्ण है ऐसे आपके लि मैं नमस्कार करता हूं। आप मेरे जन्म मरणके दुःख नष्ट कीजिरे तथा संसारके दुःखोंसे मेरी रक्षा कीजिये ॥२६॥ पद्मप्रभ-जिन-स्तुतिः (अद्धभ्रमः ) अपापापदमेयश्रीपादपद्म प्रमोऽर्दय । पापमप्रतिमामो मे पद्मप्रम मतिप्रद ॥२७॥ अपापेति--पापं पुराकृतं दुष्कृतम्, भापत् अन्यकृतशारीरमा सदुःखम्, पापं च प्रापञ्च पापापदौ न विग्रेते. पापापदौ ययोस्तौ अप पापदौ । अमेया अपरिमेया श्रीलक्ष्मीः ययोस्तो अमेयश्रियौ। अप पापदौ च तावमेयश्रियो व तो अपापापदमेयथियो । पादावेव पा पादपनौ । अपापापदमेयश्रियो वौ पादपनो यस्यासी अपापापदमेयर्थ पादपनः वस्य सम्बोधनं हे अपापापदमेयश्रीपादपम । प्रभो स्वामिन Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ स्तुविविद्या पर्दय हिंसय विनाशय । पापं दुष्कृतम् । अप्रतिमा अनुपमा श्राभा दीप्तिसंस्थासावप्रतिमाभः अनुपमतेजाः । मे मम । पद्मप्रभ षष्ठ तीर्थ कर। मतिं सद्विज्ञानं प्रददातीति मतिप्रदः तस्य सम्बोधनं हे मतिप्रद । एतदुक्तं भवति-हे पद्मप्रभ मम पापं अर्दय । अन्यानि सर्वाणि पदानि तस्यैव विशेषणानि ॥२७॥ . . अर्थ-हे प्रभो ! आपके चरणकमल पूर्वसंचित पापकर्मसे रहित हैं, आपत्तियोंसे शून्य हैं, और अपरिमित लक्ष्मी केशोभाके आधार हैं तथा आप स्वयं भी अनुपम आभासेतेजसे सहित हैं। हे सम्यग्ज्ञानके देनेवाले पद्मपभ जिनेन्द ! मेरे भी पापकर्म नष्ट कीजिये। . भावार्थ--आपके निष्पाप-पवित्र चरणकमलोंके आश्रयसे मनुष्यको वह सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है, जिसके द्वारा वह अपने समस्त पापकर्म तथा उनके फलस्वरूप प्राप्त हुई आपत्तियों को नष्टकर अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीसे सहित होजाता है और तब उसकी आत्मा अनन्त तेजसे प्रभासित हो उठती है ॥२७॥ (गतप्रत्यागतपादयमकश्लोकः ) वंदे चारुरुचां देव भो वियाततया विभो । त्वामजेय यजे मत्वा तमितांत ततामित ॥२८॥ वन्दे इति-प्रथमपादस्थाक्षरचतुष्टयं क्रमेणालिख्य पठित्वा पुनरपि तेषां व्युत्क्रमेण पाठः कर्तव्यः । क्रमपाठे यान्यक्षराणि विपरीतपाठेऽपि तान्येव । एवं सर्वे पादा द्रष्टव्याः । वन्दे नौमि । चारू शोभना रुग् दोप्तिर्भक्तिर्वा येषां ते चारुरुचः प्रतस्तेषां चारुरुचाम् । देव भो भट्टारक ! वियाततया वियातस्य भावो Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती वियातता तया वियाततया' सृष्टस्वेन । विभो प्रभो । त्वाम् । अजेया जीयत इत्यजेयः तस्य सम्बोधनं अजेय । यजे पूजये । मत्वा विचा तमितः नष्टः अन्तः क्षयो यस्यासौ तमितान्तः तं तमितान्तम् । प्रतिपादितं अमितः अमेयं वस्तु येनासौ ततामितः तस्य सम्बोधन ततामित । एतदुक्तं भवति-भो चारुरुचा देव त्वां वन्दे यजे च बिया तया । अन्यान्यस्यैव विशेषणानि ॥ २८ ॥ अर्थ-हे विभो! आप उत्तम कान्ति, भक्ति अथवा ज्ञान सम्पन्न जीवोंके देव हो- उनमें अत्यन्त श्रेष्ठ हो-अन्तरङ्ग बहिरङ्ग शत्रओंसे अजेय हो, अनन्त पदार्थोंका निरूपण कर वाले हो अथवा ज्ञान-दर्शनादि गुणोंसे विस्तृत और सीमारी हो। हे पद्मप्रभदेव ! मैं आपको अन्तरहित-अविनश्वर म कर बड़ी धृष्टतासे नमस्कार करता हूँ और बड़ी धृष्टतासे आपकी पूजा कर रहा हूं। भावार्थ--यहां आचार्यने यह भाव व्यक्त किया है कि इन्द्र तथा गणधर भी आपके योग्य आपकी पूजा वा नमस रादि नहीं कर सकते तब आपके प्रति मेरा पूजन वा नमस्त्र रादि करना धृष्टताके सिवाय और क्या हो सकता है ? ॥२॥ सुपार्श्व-जिन-स्तुतिः ( मुरजः ) स्तुवाने कोपने चैव समानो यन्न पावकः । भवानेकोपि नेतेव त्वमाश्रयः सुपार्श्वकः ॥२९॥ स्तुवान इति-स्तुवाने वन्दमाने । कोपने क्रोधने कोपं करोत कोषनः अतस्तस्मिन् । च समुच्चये । एवाऽधवारमे । समानः सब १ टेधिष्णुर्वियातश्च इत्यमरः । २ युट् च । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या बत् यस्मात् । न प्रतिषेधे । पुनातीति पावकः पवित्रः । नाग्निः । भवान् महारकः । न प्रतिषेधे। एकोपि' प्रधानोपि असहायोपि । नेतेव नायक इव । स्वं युष्मदः प्रयोगः । प्रायः पाश्रयणीयः। सुपावकः सप्तम. चोर्थकर स्वामी। किमुक्त भवति-स्तुतिं करोति यः कोपं करोति य: ख्योः द्वयोर्न न समानः किन्तु समान एव । ततः त्वं सुपाश्र्धकः एकोपि सन् पावक इति कृत्वा नेतेध सवेरपि प्राश्रयः ॥ २६॥ १. अर्थ-हे भगवन् ! सुपार्श्वनाथ ! आप, स्तुति करनेवाले और निन्दा करनेवाले दोनोंके विषय में समान हैं-रागद्वष से रहित हैं। सबको पवित्र करनेवाले हैं--सबको हितका उपदेश देकर कर्मबन्धनसे छुटानेवाले हैं। अतः आप एक अस. हाय ( दूसरे पक्षमें प्रधान ) होनेपर भी नेताकी तरह सबके द्वारा श्राश्रयणीय हैं-सेवनीय हैं। मावार्थ-जिस तरह एकही नेता अनेक आदमियोंको मार्ग प्रदर्शनकर इष्ट स्थानपर पहुँचा देता है उसी तरह आप भी अनेक जीवोंको मोक्षमार्ग बतलाकर इष्ट स्थानपर पहुंचा देते हैं और स्वयं भी पहुंचे हैं अतः आप सबकी श्रद्धा और भक्तिके भाजन हैं रिहा चन्द्रप्रभ-जिन-स्तुतिः ___(मुरजः ) चन्द्रप्रभो दयोजेयो विचित्रेऽभात् कुमण्डले । रुन्द्रशेमोक्षयोमेयो रुचिरे भानुमण्डले ॥३०॥ चन्द्रप्रभ इति-चन्द्रप्रभः अष्ठमतीर्थकरः । दयते इति दयः कः । न जीयते इत्यजेयः जितारिचक्र इत्यर्थः । विचित्रे नानाप्रकारे । प्रमात् शोभितः भा दीप्तौ अस्य घोर्लङन्तस्य रुपम् । कुमण्डले पृथ्वी. १ एके मुक्यान्यवलाः। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ समन्तभद्र भारती २ 1 मण्डले मण्डलमिति वृत्तप्रदेशस्य संज्ञा । रुन्द्रा र श्रमन्दा महती श दीप्तिर्यस्यासौ रून्द्रशोभः । न चीयत इत्यतयः । श्रमेयः अपरिमेय रुचिरे दीप्ते । भानूनां प्रभाणां मण्डलं संघातः भानुमण्डल ति भानुमंडले सति । चन्द्रेण सह श्लेषः । कानिचित्साधम्र्येण विशेषण कानिचि धर्म्येण । एतदुक्तं भवति - चन्द्रप्रभस्त्वं कुमण्डले विि श्रमात् रुचिरे भानुमंडले सति । श्रन्यानि चन्द्रप्रभभट्टारकस्यैव विशे यानि । दयः श्रजेयः रुद्रशोभः श्रचयः श्रमेयः चन्द्रप्रभचन्द्रयोः स नत्थं, किन्तु एतावान् विशेषः । स जेयो राहुणा श्रयमजेयः । स स श्रयमक्षयः । स भेयः श्रयममेयः । स पृथ्वीमण्डले श्रयं पुनस्त्रैलो अलोके च । श्रयं व्यक्तिरेकः ॥ ३० ॥ अर्थ - हे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! आप चन्द्रमा जैसी प्रभा सम्पन्न हैं परन्तु चन्द्रमा और आपमें निम्नलिखित व्यतिरेव विशेषताएं हैं। आप सबके रक्षक हैं - सबको सुख देनेवाले परन्तु चन्द्रमा चकवा-चक्रवी आदिको दुःख देनेवाला है। अजेय हैं - किसीके द्वारा नहीं जीते जा सकते -- परन्तु चन्द्र राहुके द्वारा जीत लिया जाता है। आप तीनों लोकों तथा अलो में भी प्रकाशमान रहते हैं— सब जगह के पदार्थोंको जानते परन्तु चन्द्रमा सिर्फ पृथ्वी- मण्डलमें ही प्रकाशमान रहता है आपकी शोभा रुन्द्र है- अतिविशाल है - परन्तु चन्द्रमा की शोभ सीमित है । आप क्षय रहित हैं, किन्तु चन्द्रमा क्षय सहि है— कृष्णपक्ष में क्रम क्रम से क्षीण होता जाता है। आप अमे - अपरिमित है अर्थात् आपके गुणों का कोई परिमाण नहीं। अथवा आप प्रमाणके विषय नहीं हैं; परन्तु चन्द्रमा मेय हैपरिमित है -- उसके १६ कलायें हैं तथा प्रमाणका विषय है, आ सूर्यमण्डलके दैदीप्यमान रहते हुए भी शोभायमान रहते परन्तु चन्द्रमा सूर्यमण्डल के सामने शोभा-रहित होजाता है। - १. रुन्द्रो विपुलम् । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या ...३६ - भावार्थ--इस श्लोक में चन्द्रप्रभ इस श्लिष्ट विशेषणसे पहले तो अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभ और चन्द्रमामें सादृश्य बतलाया गया है परन्तु बाद में अन्य विशेषणोंकेद्वारा चन्द्रमाकी अपेक्षा अष्टमतीर्थकरमें वैशिष्ट्य सिद्ध किया गया है ॥३०॥ . ( मुरजः ) प्रकाशयन् खमुद्भूतस्त्वमुद्घांककलालयः। । विकासयन् समुद्भूतः कुमुदं कमलाप्रियः ॥३१॥ प्रकाशेति-चन्द्रप्रभः प्रभादिति सम्बन्धः । किं विशिष्टः प्रकाशयन् तिमिरं प्रपाटयन् । खं आकाशं । उद्भूतः उद्गतः । त्वं । उद्घः महान् अंकः चिह्न यस्यासौ उद्घांकः, कलानां कलागुणविज्ञानानां लेखानां वा प्रालयः श्राधारः कलालयः,उद्घांकश्चासौकलालयश्च उद्घांककलालयः । विकासयन् प्रबोधयन् । समुद्भूतः। कुमुदं पृथ्वीहर्षम् । अन्यत्र कुमुद पुष्पम् । कमलायाः लक्ष्म्याः प्रिय इष्टः। अन्यत्र कमलानां पद्मानां अप्रियः अनिष्टः कमलाप्रियः। एतदुक्तं भवति-वं. चन्द्रप्रभोऽभात् एतत् कुर्वन् एवं गुणविशिष्टः चन्द्रेण समानः । श्लेषालंकारोऽयम् ॥३१॥ . अर्थ-हे विभो ! आप चन्द्ररूप हैं, क्योंकि जिस तरह चन्द्रमा उदय होते ही आकाशको प्रकाशित करता है उसी तरह आप भी ( केवल ज्ञानके प्राप्त होनेपर ) समस्त लोकाकाश और अलोकाशको प्रकाशित करते हैं । चन्द्रमा जिस तरह हरिणके मनोहर चिह्नसे युक्त है उसी तरह आप भी मनोहर चिह्न जो 'अर्धचन्द्र' उससे युक्त हैं । चन्द्रमा जिस तरह सोलह कलाओंका आलय (गृह) है उसी तरह आप भी केवलज्ञान आदि अनेक कलाओंके आलय-स्थानहैं । चन्द्रमा जिस तरह कुमुदों-नीलकमलोंको विकसित करता हुआ उदित होता है उसी तरह Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० समन्तभद्र-भारती आप भी कु- पृथिवी गत समस्त जीवों के श्रानन्दको बढ़ाते हुए उदित हुए हैं - उत्पन्न हुए हैं और चन्द्रमा जिस प्रकार कमला प्रिय है - ( कमल + अप्रिय ) कमलोंका शत्रु है— उन्हें निमीलिय कर देता है उसी प्रकार आप भी कमलाप्रिय हैं— केवलज्ञानादि लक्ष्मीके प्रिय हैं। इस श्लोक में विशेषण सादृश्यसे अष्टम तीर्थ करको चन्द्रमा बतलाया गया है। यह श्लेषालंकार है । नोट - श्लोकगत समस्त विशेषणोंसे जैसे अष्टम तीर्थकर और चन्द्रमा में सादृश्य सिद्ध किया गया है वैसे ही उन दोनों में वैसादृश्य - व्यतिरेक भी सिद्ध होता है । इस पक्ष में श्लोकक अथ इस प्रकार होगा हे भगवन् ! आप चन्द्रमाकी तरह शोभायमान हैं अवश्य परन्तु आपमें उसकी अपेक्षा नीचे लिखी हुई विशेषतायें हैं -- चन्द्रमा सिर्फ आकाश-विवरको प्रकाशित करता हुआ उदि होता है, परन्तु आप अखिल विश्वको प्रकाशित करते हुए ( द्रव्यार्थिकनकी अपेक्षा ) अनादिकाल से उदित ही हैं चन्द्रमाका चिह्न कृष्ण है— कलङ्करूप है, जिससे वह कलडी कहलाने लगा है परन्तु आपका चिह्न अर्धचन्द्र अत्यन्त मनोहर है अथवा आपके शरीर में जो १००८ सामुद्रिक चिह्न हैं वे भी अत्यन्त सुन्दर हैं । चन्द्रमा कलालय है - अपनी कलाओं क लय- विनाश लिए हुए है परन्तु आप केवलज्ञान आदि कलाओं आलय - घर हैं । चन्द्रमा कुमुद - कुत्सित वैषयिक मुद् - हर्षको अथवा दुर्जन पुरुषोंके हर्षको ( पक्ष में कुमुद पुष्पको ) वृद्धिंग करता है परन्तु आप उत्कृष्ट आत्मीय आनन्दको अथवा समस् पृथ्वीगत जीवधारियोंके आनन्दको वृद्धिंगत करते हैं - बढ़ाते हैं। चन्द्रमा उदित होकर अस्त होजाता है परन्तु आप हमेशा उदि ही रहते हैं - आप कभी अस्तमित नहीं होते । चन्द्रमा कमलों क Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या अप्रिय है-विरोधी है परन्तु आप कमलोंके अप्रिय नहीं हैं (पक्ष में कमला-अनन्त चतुष्टयरूप लक्ष्मीके-प्रिय-पति है)। हे भगवन् ! इस तरह आप अनोखे चन्द्रमा हैं ॥३१॥ . (मुरजः ) धाम त्विषां तिरोधानविकलो विमलोक्षयः । त्वमदोषाकरोस्तोनः सकलो विपुलोदयः ॥३२॥ चामेति-चन्द्रप्रभोऽभात् अत्रापि सम्बन्धनीयः । धाम अवस्थाअम् । त्विषां तेजसाम् । तिरोधानेन व्यवधानेन विकल: विरहितः अन्यत्राविकलः तिरोधानविकलः । विमलो निर्मल:, चन्द्रः पुनः समलः । वसीयत इत्यक्षयः, अन्यः सक्षयः । त्वं भट्टारकः । प्रदोषाणां गुणानां भाकरः निवासः, अन्यत्र दोषायाः रात्रेः पाकरः दोषाकरः । अस्ताः विताः ऊनाः असर्वज्ञतारकाः येनासावस्तोनः । सकलः सम्पूर्णः, अन्योऽ सम्पूर्णः । विपुल: महान् उदयः उद्गमो यस्यासी विपुलोदयः । अन्यः पुनः अविपुलोदयः । किमुक्कं भवति-त्वं चन्द्रप्रभः एवंविधगुणविशिष्टः सन् पृथ्वीमण्डले प्रभात शोभित इति सम्बन्धः ॥३२॥ ___ अर्थ- हे प्रभो ! आप चन्द्रमाक समान शोभायमान हैं अवश्य परन्त आपमें और उसमें भारी भेद है। आप केवलज्ञानरूप तेजके स्थान हैं-तेजस्वी हैं, परन्तु चन्द्रमा तेजसे रहित है। श्राप तिरोधानसे रहित हैं-संसारके किसी भौतिक पदार्थसे आपका आवरण नहीं होता, परन्तु चन्द्रमा मेघ आदिसे आवृत्त हो जाता है-छिपा लिया जाता है। आप विमल हैं-कर्ममलकलङ्कसे रहित है परन्तु चन्द्रमा समल है-कलङ्कसे सहित है। आप अक्षय हैं-विनाश रहित हैं आपके केवलज्ञादि गुणों का कभी नाश नहीं होता, परन्तु चन्द्रमा क्षय-सहित है-उदय होने के बाद अस्त हो जाता है। आप अदोषाकर हैं-दोषोंकी आकर (खानि) नहीं है-आपने क्षधा-तृषा आदि अठारह दोष Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ समन्तभन्द्र-भारती नष्ट कर दिये हैं परन्तु चन्द्रमा ऐसा नहीं है, वह दोषाकर हैअनेक दोषोंकी खान है (संसारी पुरुष जो ठहरा) पक्ष में दोषारात्रिको करने वाला है आपने सर्वज्ञरूप ताराओं को अस्तक दिया है - आपके लोका-लोकावभासी सर्वज्ञत्वके सामने संसा के अन्य अल्पज्ञ - हरिहरादि प्रभाव रहित हो जाते हैं परन चन्द्रमा अपने से हीन तिताराओं को अस्त नहीं कर सकता आप सकल हैं - सम्पूर्ण हैं अथवा केवलज्ञान, सद्वक्तृत् आदि अनेक कलाओंसे सहित हैं- परन्तु चन्द्रमा विकल है - अपूर्ण है- ' कलाओं से रहित है । आपका उदय महान् है - आ एक स्थान में स्थित होते हुए भी अपने ज्ञानगुण से संसार समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करते हैं - जानते हैं - परन्तु चन्द्रमा का उदय सीमित है - वह चल फिर कर सिर्फ थोड़ेसे पदार्थों के प्रकाशित कर पाता है । [ यह श्लेषमूलक व्यतिरेकालंकाकार है ] ||३२|| ( मुरजः ) यत्तु खेदकर ध्वान्तं सहस्रगुरपारयन् । भेतुं तदन्तरत्यन्तं सहसे गुरु पारयन् ॥३३॥ यत्तुखेदेति – यत् यदोरूपम् । तु श्रप्यर्थे । खेदकरं दुःखकरं खे करोतीति खेदकरम् । ध्वान्तं तमः श्रज्ञानं मोहः । सहस्रगुरादित्य श्रपिशब्दोऽत्र सम्बन्धनोयः । सहस्रगुरपि अपारयन् श्रशक्नुवन् । भे विदारयितुम् । तत् ध्वान्तम् । अन्तः अभ्यन्तरम् । प्रत्यन्तं श्रत्यर्थम् अथवा श्रन्तमतिक्रान्तं श्रत्यन्तम् । सहसे समर्थो भवसि । भेत्तु त्रा सम्बन्धनीयं काकाक्षिवत् । गुरु महत् । पारयन् शक्नुवन् । त्वं चन्द्रप्र इति सम्बन्धनीयम् । किमक्त ं भवति-त्वं चन्द्रप्रभः यदन्तर्ध्वान i १ ' कला तु षोडशो भागः' इत्यमरः - चन्द्रमाका सोलहवां हिस्स कला कहलाता है । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ स्तुतिविद्या खेदकर मेत्तु सहसूगुरपि अपारयन् तत् ध्वान्तं मेत्तु सहसे समर्था भवसि पारयन् सन् ॥३३॥ - अर्थ- हे भगवन् ! जिस, अत्यन्त दुःख देने वाले मोहरूप अन्तरङ्ग और सघन अन्धकारको नष्ट करनेके लिये हजार किरणोंको धारण करने वाला सूर्यमी समर्थ नहीं है उस अन्धकारको भाप जड़मूलसे नष्ट कर देते हैं । भावार्थ-सूर्य तिमिरारि-अन्धकारका-शत्र कहलाता अवश्य है परन्तु वह अपने विषय-क्षेत्रमें स्थित-सिर्फ भौतिक अन्धकारको नष्ट कर पाता है जब कि आप प्राणियोंके अन्तरिक मोह अथवा अज्ञान अन्धकारको भी नष्ट कर देते हैं । अतः आप सूर्यसे अत्यन्त श्रेष्ठ हैं । यहां व्यतिरेकालंकार गम्य है ॥३३॥ (मुरजः) खलोलूकस्य 'गोवातस्तमस्ताप्यति भास्वतः । कालोविकलगोधातः' समयोऽप्यस्य भास्वतः ॥३४॥ - खलोलूकेति-त्वं चन्द्रप्रभोऽभूः इति सम्बन्धः । अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामो भवतीति त्वमिति भास्वतः सम्बन्धात् च भवति । खलश्चासावुलूकश्च खलोलूकः तस्य स्खलोलूकस्य । गवां रश्मीनां वात: संघात: गोवातः । तमः अन्धकारः। तापी दहनस्वरूपश्च सरपथत इस्यध्याहार्यः। अति प्रत्यर्थम् । भास्वतः श्रादित्यस्य । ते पुनः चन्द्र गौः पुमान् वृषभे स्वर्ग खण्डवज्रहिमांशुषु । स्त्रीगवि भूमिदिग्नेत्रवाग्वाणसलिले स्त्रियः' इति विश्वलोचनः । . २ अविकलगः, विकलशः प्राघातः, घातः, इति पक्षद्वयेपदक्छेदः। ३ 'समयः शपथाचारकाससिद्धान्तसंविदः' इत्यमरः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभन्द्र-मारती प्रमस्य भास्वत: प्रकाशयतः गोव्रात: वचनकदम्बक: नापि कस्यचित्तम न ताप्यति तापि व्यतिरेकः । काल: समयः मुहूर्तादिः । अविकलग अप्रतिहतः । अन्यत्र विकलगः प्रतिहतः । अघातः प्रतिपक्षरूपैर्धा नास्ति । अन्यत्र मेघादिभिरस्त्येव । समयोऽपि दर्शनमपि । अस्य भट्टी कस्य भास्वतः सन् । एवंभूत एव अघात: अविकलगः नान्यत्र । एवं दुक्तं भवति-भास्वतः गोत्रातः एवंभूतः कालः समयश्च नादित्यस्य अतस्त्वं चन्द्रप्रभः अभूः कुमण्ले इति सम्बन्धः ॥३४॥ अर्थ हे भगवन् ! सूर्यकी किरणोंका समूह दु। उलूकके लिये अन्धकार रूप परिणत होता है तथा सबक सन्ताप करने वाला होता है परन्तु हमेशा प्रकाशमान रहने वाला आपकी किरणों अथवा वचनोंका समूह । तो किसीको अन्धकाररूप होता है और न किसीको सन्ता देनेवाला होता है-आपके वचनोंसे सबका अज्ञान अथव मोहरूप अन्धकार नष्ट हो जाता और सबको आनम होता है। सूर्यका काल रात्रिसे व्यवहित है परन्तु आपका कार अव्यवहित है-आप दिन-रात हर समय-प्रकाशमान रहते हैं। सूर्यके समयका मेघ आदि प्रतिपक्षी पदार्थोंसे घाम हो जाता है. मेघ वृक्ष आदि पदार्थ सूर्य तथा उसके प्रकाशक ढक लेते हैं परन्तु आपके समयका सिद्धान्त ( दर्शन ) का घार संसारके अन्य किन्हीं भी प्रतिवादियोंद्वारा नहीं हो सकता आपका स्याद्वाद सिद्धान्त अजेय है। सूर्य दिनमें भास्वत्प्रकाशमान रहता है परन्तु आप सदा प्रकाशमान रहते हैं अतएव हे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! आप सूर्य से भी अधिक शोभाय मान हैं। ___ यहां व्यतिरेका लंकार है। 'गो' और 'समय' शब्दक श्लेष उसकी शोभा बढ़ा रहा है ॥३४॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या ( मुरजः ) लोकत्रय महामेय कमलाकर भास्वते । एक प्रियसहायाय नम एकस्वभाव ते ||३५|| लोकत्रयेति - लोकत्रयमेव महामेयं वस्तु लोकत्रयमहामेयम्, कमलानां पद्मानां श्राकरः कमलाकरः नलिनीवनम् | 'लोकत्रयमहामेयमेव कमलाकरः लोकत्रयमहामेयकमलाकरः तस्य भास्वान् रविः लोकश्रयमहामेयकमलाकर भास्वान् तस्मै लोकत्रयमहामेयकमलाकर भास्वते । एक: प्रधानः । प्रियः इष्टः । सहायः बन्धुः । प्रियश्चासौ सहायश्च प्रियसहायः एकश्चासौ प्रियसहायश्च एकप्रियसहायः तस्मै एकप्रियस हावाय । नमः श्रव्युत्पन्नो कि संज्ञकः पूजावचनः अस्य योगे अप् । एकस्वभाव एकस्वरूप । ते तुभ्यम् । किमुक्त भवति – चन्द्रप्रभ इत्यनुवर्त्तते हे चन्द्रप्रभ एकस्वभाव. तुभ्यं नमः एवं विशिष्टाय ॥३५॥ - --- अर्थ- सदा एक रूप रहनेवाले हे चन्द्रप्रम जिनेन्द्र ! आप ऊर्ध्व-मध्य- पाताल लोकरूप विशाल - अपरिमित – कमलवनको विकसित करनेके लिये सूर्य हैं तथा सबके प्रधान और प्रियबन्धु श्रतः श्रपको नमस्कार हो । भवार्थ - यद्यपि संसारके अन्य महापुरुष साधारण प्राणियोंकी अपेक्षा उच्च पदको प्राप्त हुए हैं परन्तु उनका वह पद सत्कर्मोदयजनित होने से कालान्तर में अवश्य ही नष्ट हो जाता है अतः उन्हें एक स्वभाव नहीं कहा जा सकता । परन्तु जिनेन्द्रदेवने जिस उत्कृष्ट पदको प्राप्त किया है उसका कर्मक्षयजनित होने से कालान्तर में कभी नाश नहीं होता अतः आचार्य समन्तभद्रने उन्हें एकस्वभाव कहा है | ||३५|| ( श्रद्ध भ्रममूढद्वितीयपादः ) चारुश्रीशुभदौ नौमि रुचा वृद्धौ प्रपावनौ । श्रीवद्धातौ शिवौ पादौ शुद्धौ तव शशिप्रभ ||३६|| ४५ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती चारुश्रीति-यानि द्वितीयपादाक्षराणि तानि सर्वाणि अन्य। 'पदेषु सन्तीति । ___ श्रीश्च शुभं च श्रीशुभे चारुणी च ते श्रीशुभे च चारुश्रीशुभे ते दच इति चारुश्रीशुभदौ । नौमि स्तौमि क्रियापदमेतत् । रुचा दीप्त्या वृद्धौ महान्तौ। प्रपावनी पवित्रीभूतौ । श्रियं वृणुत इति श्रोता श्रीवृतौयं च तौ धौतौ च प्रक्षालितौ श्रीवृद्धौतौ । शिवौ शोभनौ | पादौ चरणौ । शुद्धौ शुची । तव ते । हे शशिप्रभ । एतदुक्त भवतिशशिप्रभ तव पादौ नौमि किं विशिष्टौ तौ एवं गुणविशिष्टौ । अन्यानि सर्वाणि अनयोरेव विशेषणानि ॥३६॥ ___ अर्थ हे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! आपके चरण कमल सुन्दर समवसरणादि लक्ष्मी और निःश्रेयस आदि कल्याणको देने वाले हैं, कान्तिसे बढ़े हुए हैं-कान्तिमान हैं, अत्यन्त पवित्र है। अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग लक्ष्मीको वरने वाले है, प्रक्षालित हैं अथवा इन्द्र, चक्रवर्ती योगीन्द्र और विविध लक्ष्मीवान पुरुषोंके द्वारा प्रक्षालित हैं, कल्याण रूप हैं और अत्यन्त शुद्ध हैं अत: उन्हें नमस्कार करता हूं। ॥३६॥ पुष्पदन्त-जिन-स्तुति (निरौष्ठ्यश्लोकयमकः' ) शंसनाय कनिष्ठायाश्चेष्टाया यत्र देहिनः । नयेनाशंसितं श्रेयः सद्यः सन्नज राजितः ॥३७।। १ इस श्कोको श्रोष्ठस्थानीय उवर्ण, पवर्ग और उपध्मानीय अक्षर नहीं हैं.। साथमें श्लोकावृत्ति होनेसे श्लोकयमक भी है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या शं स नायक निष्ठायाश्चेष्टायायत्र देहि नः । न येनाशं सितं श्रेयः सद्यः सन्नजराजितः ॥३८॥ (युग्मम् ) - शंसेति-प्रौप्ट्यमक्षरमत्र श्लोके नास्ति द्विरावत ते च इति हेतोः। शंसनाय प्रशंसनायै' कनिष्ठायाः अणुभूतायाः। चेष्टायाः कायवाङ -मन:क्रियायाः । यत्र यस्मिन् सर्वज्ञविशेषे । देहिनः प्राणिनः सम्बन्धेन । नयेन अभिप्रायेण । आशंसितं सम्भावितं । श्रेयः पुण्यम्, । सत् शोभनम् । यः यश्च । द्वितीयार्थे व्याख्यायमाने च शब्दोऽतिरेकः सोऽत्र सम्बन्धनीयः । हे अज सर्वज्ञ । राजितः शोभितः । सन् भवन् । उत्तरार्धे क्रिया तिष्ठति तया सम्बन्धः कर्तव्यः ॥३०॥ ' शंसनेति-शं सुखम् । स पूर्वोक्तः । नायकः नेता प्रभुर्वा तस्य सम्बोधनं नायक । निष्ठायाः मोक्षावाप्तेः । च अयं चशब्दः प्राधे एम्यः । इष्टायाः प्रियायाः । अत्रास्मिन् । देहि दीयताम् । नः अस्म. भ्यम् । न । येन । अशं दुःखम् । सितं बद्धम् । श्रेयः श्रेयणीयः सन् । सवः तत्तणादेव । सन्ना विनष्टा जरा वृद्धित्वं यस्यासौ सबजरः तस्य सम्बोधनं हे सन्नजर । अन्यैरजितः अजितः सन् । वान्तःपदैः सर्वत्र सम्बधनीयः । समुदायार्थः यस्मिन् सर्वज्ञविशेष प्राणिभिः स्तुति. गात्राद्वा पुष्पखण्डाहा पुण्यं भावितं सत् प्रशंसायै भवति यश्च राजितः। पुष्पदन्त इति उत्तर श्लोके तिष्ठति सोत्र सम्बन्धनीयः । स त्वं श्रेयः सन् हे पुष्पदन्त अज अस्मभ्यं शं देहि, येन सुखेन दुःखं सितं बन भवति तत्सुखं देहीस्युक्तं भवति ॥३८॥ ___ अर्थ-जो अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग लक्ष्मीसे शोभायमान हैं, जो सबके द्वारा मेय-सेवनीय हैं और जो (विश्वकी किसी अन्य शक्तिसे ) अपराजित हैं-जीते नहीं जा सके हैं ऐसे अंत्यन्त श्रेष्ठ, जन्मरहित और सर्वप्रिय मोक्षलक्ष्मीके प्रसिद्ध प्रथमान्तः। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ समन्तभद्र- भारती नायक हे पुष्पदन्त जिनेन्द्र ! आपके विषय में की गई मन वच कायकी छोटी-छोटी चेष्टाओं से आपके चिन्तवन स्तवन तथ नमस्कार से प्राणियों को जिस श्रेष्ठ पुण्यका बन्ध होता है क मात्र अनुमान से संभावित होनेपर भी स्तुति के योग्य ठहरता है। हे प्रभो ! आप मुझे भी वह मोक्षसुख दीजिये जिससे फिर कभ वह सुख दुःख-बद्ध न हो - दुखको प्राप्त न हो । भावार्थ- आपके स्तवनादि से प्राणियोंको जो पुण्य-बन्ध होते हैं वह यद्यपि छद्मस्थ जीवोंके स्वानुभवगम्य नहीं होता उसका प्रत्यक्ष नहीं होता तथापि उस पुण्यबन्धसे जो कुछ सामग्री प्राप्त होती है उससे उसका अनुमान किया जा सकता है। यद्यि इस अनुमान प्रणाली से पूर्ण पुण्यबन्धका बोध नहीं हो पा तथापि जितने पुण्यबन्धका बोध होता है विचार करने वह भी प्रशंसनीय ठहरता है। क्योंकि उससे भी अनेक ऐहि तथा पारलौकिक फलोंकी प्राप्ति हो जाती है। हे भगवन्! आप विषय में की गई मन-वचन-कायकी साधारण प्रवृत्तिसे ज जीवका इतना उपकार होता है तब मन-वचन-काय की पूर्ण शक्ति लगाकर आपकी उपासना करनेसे जीवका कितना बड़ा उपकार न होगा ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ ( मुरजः ) : शोकक्षय कृदव्याधे पुष्पदन्त स्ववत्पते । लोकत्रयमिद बोधे गोपदं तव वर्त्तते ॥ ३९ ॥ शोकेति - शोकक्षयकृत् शोकस्य क्षयः शोकचयः तं करोतीरि शोकचयकृत् । श्रन्वाधे न विद्यते व्याधिर्यस्यासावव्याधिः तस्य सम्बो धनं हे श्रन्याधे । पुष्पदन्त नवमतीर्थकर । स्वबत्पते श्रात्मवतां पते लोकानां त्रयम् । इदं प्रत्यक्षवचनम् । बोधे केवलज्ञाने । गोपदं गोष्पद अत्र सुपो लुब् भवति । तव ते वर्त्तते प्रवर्तते । ज्ञानस्य माहात्म्यं प्रद Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविचा शितम् । गुणव्यावर्णनं हि स्तवः । किमकं भवति हे पुष्पदन्त परमेश्वर तव बोधे लोकत्रयं गोष्पदं वत्त ते यतः ततो भवानेव परमात्मा ॥३॥ . अर्थ-हे शोकका क्षय करनेवाले ! हे व्याधियोंसे रहित ! हे आत्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ ! पुष्पदन्त भगवान् ! आपके विश्वप्रकाशी केवलज्ञानमें ये तीनों लोक गोष्यदके-कीचड़में चिह्नित हुए गायके खुरके-समान जान पड़ते हैं। भावर्थ-हे प्रभो! आपका ज्ञान विशाल समुद्रके समान है और यह लोकत्रय गोष्पदके समान अत्यन्त तुच्छ है। प्रमेय-पदार्थोकी इयत्तासे आपके प्रमाण-ज्ञानकी इयत्ता नहीं ऑकी जा सकती। आपका ज्ञान स्वभावसे अनन्त है, न कि अनंत पदार्थोंको जाननेसे ॥३॥ __(मुरवः ) . लोकस्य धीर ते वाढं रुचयेपि जुषे मतम् । नो कस्मै धीमते लीढं रोचतेषि द्विषेमृतम् ॥४०॥ लोकेति- लोकस्य भव्यजीवानां । हे धीर गम्भीर । ते तव । वाढं प्रत्यर्थम् । रुचये दीप्तये । अपि भिवक्रमे । जुषे च प्रीतये। तादयें प्रवियम् । मतं प्रवचनम् । नो प्रतिषेधवचनम् । कस्मैचित् जीवाय । धीमते च बुद्धिमते । लीढं आस्वादितम् । रोचते रुचिं करोति । अपि समञ्चयेऽर्थे । द्विषे विद्विषे । अमृतं षोडशभागः । एतदुक्तं भवति-हे पुष्पदन्त धीर ते मतं लीढं लोकस्य रुचये जुषेपि वाढं रोचते । ननु धोमते रोचताम् । यावता हि यो द्वोष्टि तस्य कथं रोचते द्विषेपि अमृतं बीढं धीमते च । न कस्मै रोचते किन्तु रोचत एव ॥ ४० ॥ · : ___ अर्थ-हे गम्भीरहृदय पुष्पदन्त भगवान् ! आपका यह पवित्र मत-आगम आस्वादन किये जानेपर-श्रवण पठन १ पाकः। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वमइमारती rammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm चिन्तन श्रादि किये जानेपर-प्रत्येक को भापके भक्त और विद्वेषो दोनों प्राणियोंको-ज्ञानवृद्धि एवं प्रीतिका देने वाला है; क्योंकि अमृत पास्वादन किये जाने पर किस बुद्धिमानको अच्छा नहीं लगता.१ भले ही वह उससे द्वोष रखता हो। भावार्थ - अमृतसे चाहे कोई स्नेह रखे चाहे द्वेष,प्रास्वादन करनेपर वह जिस तरह सबको सुख पहुँचाता है उसी तरह कोई आपसे स्नेह करता हो चाहे विद्वेष, आपका आगम-सबको सुख पहुँचाता है-सुखका रास्ता बतलाता है। उसका कारण आपकी धीरता-गम्भीरता और स्तुति-निन्दामें समानता है जिसे कि 'धीर' इस विशेषणसे आचार्य श्रीसमन्तभद्रने श्लोकमें अङ्कित किया है।॥ ४०॥ शीतल-जिन-स्तुतिः (मुरजः) एतच्चित्रं क्षितेरेव घातकोपि प्रसादकः । भूतनेत्र पतेस्यैव' शीतलोपि च पावकः ॥४१॥ एतदिति-एतत् प्रत्यक्षवचनम् । चित्रं श्राश्चर्यम् । हिते: पृथिव्याः। एव अप्यर्थ । घातकोपि हिंसकोपि । प्रसादकः प्रपालकः भूताना जीवानां नेत्रं चक्षुः भूतनेनं तस्य सम्बोधन है भूतनेत्र । पसे स्वामिन् । असि भवसि । एष प्रत्यर्थे । शीतलः भव्याहारकः दशमतीर्थविधाता । अपि च तथापि । पावकः पवित्रः । विरुद्धमेतत कथं शीतलः शीतलक्रियः पावकः अग्निः । यदि शीतलः कथं पावकः। अथ पावकः कथं शीतलः। यथा यो घातकः कथं प्रसादकः। अथ प्रसादकः कथं घातकः विरुद्धमेतत् । एतदुक्त भवति-हे भूतनेत्रपते शितेरेव आश्चर्यमेतत् । यो वातकोपि प्रसादकः । त्वं पुनः शीतलोपि च पावकः भवस्येव ॥४१॥ .. 'पते+असि+एव' इति पदच्छेदः। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिषिया - अथे-हे प्राणिलोचन ! प्रभो! यह आश्चर्यकी बात है कि श्राप पृथिवीके-पृथिवीगत प्राणियोंके (पक्षमें-ज्ञानावरणादि कर्मपुद्गलोंके )-घातक हो कर भी पालक हैं-रक्षक हैं-और शीतल-शीतगुण विशिष्ट-ठण्डे (पक्षमें-शीतलनाथ दशम तीर्थकर) होकर भी पावक-अग्नि (पक्षमें-पवित्र करने वाले) हैं। ___ भावार्थ-इस श्लोकमें विरोधाभास अलंकार है अतः पहले इसमें विरोध मालूम पड़ता है परन्तु बाद में उसका परिहार होजाता है। जहां श्लेष इसका मूल होता है वहां विशेष चमत्कार उत्पन्न हो जाता है। यहां 'क्षिति' 'शीतल' और 'पावक' शब्द श्लिष्ट हैं । जो पृथिवीका घातक होगा वह पालक कैसे होगा ? यह विरोध है परन्तु परिहार पक्षमें क्षितिका अर्थ कर्मरूप पार्थिव-पुद्गलपरमाणु-लेनेसे विरोध दूर हो जाता है। इसी तरह जो शीतल-ठण्डा होगा वह पावक-अग्नि कैसे होगा ? यह विरोध है परन्तु शीतलका अर्थ दशमतीर्थकर और पावकका अर्थ पवित्र करने वाले लेनेसे सब विरोध दूर हो जाता है । अथवा हे भगवन् ! 'आप घातक होकर भी प्रपालक हैं और शीतल होकर भी अग्नि हैं। यह 'विरोध' क्षितेरेव-पृथिवीवत् जड़ मनुष्योंको ही हो सकता है न तु विदुषाम्विद्वानोंको नहीं ॥४१॥ (मुरजः) काममेत्य जगत्सारं जनाः स्नात महोनिधिम् । विमलात्यन्तगम्भीरं जिनामृतमहोदधिम् ।।४२॥ कामेति-काममत्यर्थ कमनीयं वा । एत्य गत्वा । जगत्सारं त्रिलोकसारम् । जनाः लोकाः । स्नात अज्ञानमलप्रक्षालनं कुरुध्वम् । महसां तेजसां' निधिः अवस्थानं यः सः श्रतस्तं महोनिधिम् । विमलः १ 'महस्तूत्सवतेजसोः' इति विश्वलोचनः । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-मारती निर्मलः अत्यन्तः अपर्यन्तः गम्भीरः भगाधः यः सः विमलात्यन्तगम्भीर अतस्तं विमलात्यन्तगम्भीरम् । जिन एव अमृतमहोदधिःक्षीरसमुद्र जिनामृतमहोदधिः प्रतस्तं जिनामृतमहोदधिम् । एतदुक्तं भवति-यत एवंभूतः शीतलभट्टारकः ततस्तं शीतलं जिनामृतमहोनिधिं विमल अत्यन्तगम्भीरं हे जना एत्य गत्वा स्नात कामम् ॥४२॥ अर्थ - हे भव्यजीवो ! तुम उस जिनेन्द्ररूपी क्षीरसमुद्रको प्राप्त कर यथेष्ट स्नान करो-कममलको धोकर अपने आपको पवित्र बनाओ-जो कि तीनों लोकोंमें श्रेष्ठ है, उत्सव अथवा तेजका स्थान है, विमल है-कर्ममल और कर्दम आदिसे रहित है, अत्यन्त है- विनाश-रहित और पार-रहित है, तथा गम्भीर है-धीरवीर और गहरा है।। ___ भावार्थ-इस श्लोक में रूपकालंकारसे जिनेन्द्रदेव और क्षीर समुद्र में अभेद किया गया है। इसके जो विशेषण दिये गये हैं वे प्रायः श्लेषमय होनेसे दोनोंके-जिनेन्द्र और क्षीरसमुद्र के-पक्ष में ठीक ठीक बैठ जाते हैं। यथा-जिस प्रकार जिनेन्द्रदेव तीनों लोकोंमें सारभूत हैं उसी तरह क्षीरसमुद्र भी सारभूत है जिनेन्द्रदेव जिस प्रकार अनन्त ज्ञान, अनन्त पराक्रम आदि तेजके भण्डार हैं उसो तरह क्षीरसमुद्र भी देवकत अनेक उत्सवोंका भण्डार है । जिनेन्द्रदेव जिस तरह कर्ममलसे रहित होनेके कारण विमल हैं उसी तरह क्षीरसमुद्र भी कर्दम शैवाल आदि मलके न होनेसे विमल है। जिस तरह जिनेन्द्र देव अन्तसे रहित हैं उसी तरह क्षीरसमुद्र भी अन्तसे-पारसे रहित है-त्रात्यन्त विस्तृत है। और जिनेन्द्रदेव जिस प्रकार गम्भीर हैं--रागद्वेषसे रहित होनेके कारण धीरवीर हैं-उसी तरह क्षीरसमुद्र भी गंभीर हैं-गहरा है। इस जिनेन्द्र रूपी भव्य क्षीरसमुद्र में स्नान करनेसे--भक्तिपूर्वक उनका ध्यान करनेसे-सब कर्ममल नष्ट हो जाते हैं । इसीलिये आचार्यने भव्य Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविधी ५३ जीवोंको इस अनुपम क्षीरसागर में स्नान करनेका आदेश दिया है ॥ ४२ ॥ श्रेयोजिन - स्तुतिः ( श्रद्ध भ्रमनिरौष्ठयगूढचतुर्थपादः ) हरती ज्याहिता तान्ति रक्षार्थायस्य नेदिता । तीर्थादे श्रयसे नेताज्यायः श्र ेयस्ययस्य हि ॥ ४३ ॥ | हरतीति--न भ्रमति यतः श्रष्ट्या चरमपि न विद्यते सर्वश्र चतुर्थपादाक्षराणि च सर्वेषु पादेषु सन्ति ततो भवत्ययं एवंगुणः । हरति विनाशयति । इज्या पूजा । श्राहिता कृता । तान्तिं खेदं क्लेशं दुःखम् । रक्षार्था पालनार्था, श्रायस्य प्रयस्य यत्नं कृत्वा । नेदिता समीपीकृता श्रन्तिकस्य णिचि कृते नेदादेशस्य रूपमेतत् कान्तस्य । शीतलतीर्थविच्छेदे उत्पन्नो यतः ततः तीर्थादिः संजातः तस्य सम्बोधनं हे तीर्थादे 1 श्रेयसे अभ्युदयाय । नेता नायकः । श्रज्यायः वृद्धत्वहीनः । श्रयसि एकादशतीर्थंकरे त्वयि । श्रयस्य पुण्यस्य । हि यस्मात् । एतदुक्तं भवति -- हे तीर्थादे श्रज्यायः त्वयि श्रयसि श्राहिता इज्या रक्षार्थ प्रयस्य पुण्यस्यान्तिका श्रयोर्था इह लौकिकार्था तान्तिं दुःखं हरति । यतस्ततस्त्वं नेता नायक एवं नान्यः । उत्तरश्लोके यानि विशेषणानि तान्यत्रैव दृष्टव्यानि ॥ ४३ ॥ अर्थ - हे तीर्थ के आदि में होनेवाले ! जरारहित ! श्रेयान्सनाथ भगवन् । प्रयत्नपूर्वक समीपीकृत तथा मन वचन काय - की एकाग्रता से की गई आपको पूजा सांसारिक सन्तापको १ यह श्लोक श्रर्धभ्रम है, इसमें श्रोष्ठस्थानीय वर्ण नहीं हैं और चतुर्थपादके समस्त अक्षर तीन पादों में गूढ़ हैं । १२ भगवान् शीतलनाथके तीर्थ के श्रन्तिम समय में तीर्थ-धर्मका विच्छेद हो गया था उसके बाद श्रेयान्सनाथका जन्म हुआ था । इसलिये उन्हें तोर्थ आदिमें होने वाला कहा है । प्र Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समरभद्र-भारती हरती है, पुण्यकी रक्षा करती है और अनेक कल्याण प्राप्त कराती है, अतः श्राप हो जगत्के सर्वश्रेष्ठ नायक हैं ॥४॥ (अद्धभ्रमः) अविवेको न वा जातु विभूषापन्मनोरुजा । वेषा मायाज वैनो वा कोपयागश्च जन्म न ॥४४॥ अविवेकेति-स्वयि श्रेयसि इत्यनुवर्तते । अविवेकः अनालो. चनम् । न प्रतिषेधवचनम् । वा समुच्चये। जातु कदाचित् । विभूषा शरीरालंकारः । आपत् विपत्. महासंक्लेशः । मनोरुजा चित्तपोढ़ा बेषा शरीरविन्यासः । माया वंचना । हे अज सर्वज्ञ । वा समुच्चये एनो वा पाप वा । कोपः क्रोधः हिंसापरिणामः । श्रागश्च अपराधश्च | जन्म उत्पत्तिः। न प्रत्येकम भिसम्बन्धनीयः । किमुक्तं भवतिश्रेयन् अस्मिन् स्वयि अविवेको न कदाचिदभूत, विभूषा वा न, आपद्वा न, मनोरुजा वा न, वेषां चा न, माया वा न, हे अंज एनो वा न, कोपः आगश्च जन्म च न, यतः यतः ततो भवानेव नेतेति सम्बन्धः । अविवेक नास्तीति वचनेन सांख्य-सौगत-योगानां निराकरणं कृतम् । अन्यैर्वि शेषणैरन्ये निराकृताः ॥ ४ ॥ अर्थ-हे सर्वज्ञ ! ( सर्वज्ञ अवस्था प्राप्त होनेपर ) आप. में कभी अज्ञान नहीं था, आपके शरीरपर कभी आभूषण न थे तथा आपत्ति-शारीरिक व्यथा, मानसिक व्यथा, तरह तरह के वेष, छलकपट, पाप, क्रोध, अपराध तथा जन्म आदि कभी नहीं थे इस कारण आप हो सबके नायक हैं। . भावार्थ-सांख्य, बौद्ध तथा नैयायिक ईश्वरको ज्ञानस्वरूप नहीं मानते किन्तु ज्ञानगुणकाआधार मानते हैं अतः उनका निरा. करण करनेके लिये कहा गया है कि आपमें अविवेक कभी नहीं था--आप हमेशा ज्ञानस्वरूप रहते हैं। कितने ही मताव. लम्बी अपने देव-देवताओंको वरह तरहके आभूषण, वेषविन्यास, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या. 22 तथा शत्रुको मारने के लिये चिन्ता छल कपट क्रोध पापाचार एवं अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका धारण करना मानते हैं । कुछ लोग यह भी मानते हैं कि हमारे ईश्वर एक बार मुक्त हो चुकने पर भी असत् पुरुषोंके निग्रहके लिये, सज्जनोंके उपकारके लिये और सद्धर्म की स्थापनाके लिये पुनर्जन्म लेते हैं- फिरसे संसारके दुःखोंको प्राप्त होते हैं ? । इसलिये लोकगत अन्य समस्त विशेषणोंसे उनका निराकरण हो जाता है ॥ ४४ ॥ ( मुरज: ) आलोक्य चारु लावण्यं पदाल्लातुमिवोर्जितम् । त्रिलोकी चाखिला पुण्यं मुदा दातु वोदितम् ॥४५॥ आलोक्येति - श्रालोक्य दृष्ट्वा । चारु शोभनम् । लावण्यं सारूप्यं सौभाग्यम् । पदात् पादात् । लातु ग्रहीतुम् । इव श्रौपम्ये ! ऊर्जितं मद्दत् । त्रयाणां लोकानां समाहारः त्रिलोकी । च प्रत्यर्थे । श्रखिना निरवशेषा । पुण्यं शुभम् । मुदा हर्षेण । दातु दत्तम् । भ्र ुवोदितं नित्योद्गतम् | श्रेयसीत्यनुवर्त्तते । किमु भवति - यस्य श्रेयसो भट्टारकस्य पादात् त्रिलोकी अखिला श्रालोक्य लावण्यं किं विशिष्टं पुण्यं दातु धवोदितमिवोर्जितं लतामिव ननाम इति सम्बन्धः ! भंडारकस्त्वं मा च इत्युत्तरसम्बन्धः ॥ ४५ ॥ ू १ अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥६॥ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । श्रभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥८॥ ५ - गीता, चतुर्थ अध्याय ४ श्लोक ६, ७, ८ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-मारतो अर्थ-हे प्रभो! हर्षपूर्वक पुण्य प्रदान करनेके लि. हमेशा प्रकाशमान और विस्तृत श्रापके चरणकमलोंके मनोहा सौन्दर्यको देखकर उनसे उसे लेने के लिये ही मानों ये तीन लोकके जीव आपको नमस्कार करते हैं। भावार्थ-भव्यजीव लोकोत्तर सौन्दर्यसे आकृष्ट होकर जिनेन्द्रदेवके चरणोंमें जो अपना मस्तक झुकाते हैं सो मानों उनके चरणकमलोंका सौन्दर्य लेनेके लिये ही उन्हें नमस्कार करते हैं। यह उत्प्रेक्षालंकार है। ।। ४५ ।। (श्लोकयमकः) अपराग समाश्रयन्ननाम यमितोभियम् । विदार्य सहितावार्य समुत्सन्नज वाजितः ॥४६॥ अपराग स मा श्रेवन्ननामयमितोभियम् । विदार्यसहितावार्य समुत्सन्नजवाजितः ॥४७॥ (युग्मं] अपरागेति-अपराग वीतराग । समाश्रयं सम्यगाश्रयम् । ननाम नौतिस्म । त्रिलोकी इति सम्बन्धः। यं भट्टारकं । इतः प्राप्तः । भित्र भीतिम् । विदार्य प्रमिय । सह हितेन वर्तन्ते इति सहिता. तेरावार्य परिवेष्टितः सहितावार्यः तस्य संबोधनं हे सहितावार्य । सम्यग् मुत् हर्षः यस्यासो समुत् । सन् भवन् । हे अज सर्ववित् । वाजितः कंरकितः । किमुक्त भवति-यस्य पादात् त्रिलोकी लावण्यं लातुमिव यं ननाम । यं वा भव्यजनः इतः भयं विदार्य सहर्षः सन् वाजितः कंटक्तिः पुलकित. शरीरो भवति स त्वं मा अव इत्युत्तरत्र सम्बन्धः ॥ ४६ ॥ __ अपरागेति-परागः संपरायः। न विद्यते परागो यस्यासावपरागः तस्य सबोधनं हे अपराग। स त्वं । मा अस्मान् । हे श्रेयन् एकादशती. , 'ननाम' इत्युत्तरलोकगत-क्रियया सम्बन्धः । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविधा पंकर । प्रामयः व्याधिः, न विद्यते प्रामयो यस्यासावनामयः & अनामयं, मा इति सम्बन्धः । इतः इतः प्रभृति । अभियं अभयम् । विद् ज्ञानम्, प्रायः साधवः; ते सहितः युक्तः विदार्यसहितः तस्य विदः शानिनः सम्बोधनं हे विदार्यसहित । अव रक्ष । पार्य पूज्य । समुत्सनजव । प्राजितः संग्रामात् कलहात् प्रणयसंधाभावाकिमुक भवतिस एवं विशिष्टः त्वं हे श्रेयन् इतः प्रभृति अनाभयं अभियं मा रच भाजितः समुत्सन्नजव अपराग ॥ ४ ॥ __ अर्थ-हेवीतराग ! हे सर्वज्ञ ! आप सुर, असुर, किन्नर आदि सभीके लिये आश्रयणीय हैं-सेव्य हैं-सभी आपका ध्यान करते हैं, आप सबका हित करने वाले हैं अतः हिताभिलाषीजन सदा आपको घेरे रहते हैं आपकी भक्ति वन्दना आदि किया करते हैं। आपकी शरणको प्राप्त हुए भक्त पुरुष भयको नष्ट कर-निर्भय हो, हर्षसे रोमाञ्चित हो जाते हैं। आप परागसे-कषाय-रजसे-रहित हैं। ज्ञानवान्-श्रेष्ठ पुरुषों से सहित हैं, पूज्य हैं, तथा रागद्वेषरूप संग्रामसे आपका वेग नष्ट होगया है-आप रागद्वेषसे रहित हैं। मैं आपके दर्शन मात्रसे ही आरोग्यता और निर्भयताको प्राप्त हो गया हूं। हे श्रेयान्स देव ! मेरी रक्षा कीजिये ॥ ४६॥४७॥ वासुपूज्य-जिन-स्तुतिः ( अनन्तरपादमुरजबन्धः) अभिषिक्तः सुरैर्लोकैस्त्रिभिभक्तः परैर्न कैः । वासुपूज्य मयीशेशस्त्वं सुपूज्यः क ईदृशः ॥४८॥ अभीति-प्रथमद्वितीययोस्तृतीयचतुर्थयोः पादयोः मुरजबन्धो हरव्यः । . : मिषितः मेरुमस्तके स्नापितः । सुरैः देवैः । सोकैस्त्रिमिः भवन Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ समन्तभद्र-भारती वासि मनुष्यदेवेन्द्रः । भक्तः सेवितः । परैरन्यैः कैर्न सेवितः किन्तु सेवित एव । हे वासुपूज्य द्वादशतीर्थंकर । मयि विषये मम वा ईशानामीशः ईशेशः स्वं । सुष्ठु पूज्यः सुपूज्यः । क ईदृशः युष्मत्समान भ्रभ्यः क इत्यर्थः । एतदुक्त ं भवति - हे वासुपूज्य यः लोकैः त्रिभिः अभिषिक्तः भक्तश्च सः श्रन्यैः कैर्न भक्तः सेवितश्च ततो मयि मम स्वमेव ईशेशः अन्यः ईदृशः सुपूज्यः कः यः श्रस्माकं स्वामी भवेत् ॥ ४८ ॥ अर्थ - हे प्रभो ! जब देवोंने ( मेरु पर्वतपर ले जाकर ) आपका अभिषेक किया और भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, मनुष्य, तिर्यञ्च आदि तीनों लोकोंके जीवोंने आपकी सेवा की तब ऐसा कौन होगा जो आपकी सेवा न करे ? हे वासुपूज्य आप मेरे विषय में ईश्वरोंके इश्वर हैं - मेरे लिये सर्वश्रेष्ठ ईश्वर आप ही हैं - अतः आप ही पूजनीय हैं। आप जैसे अर्हत्पुरुष से भिन्न और कौन है जो मेरा स्वामी हो सके ॥ ४८ ॥ . ( मुरजः ) चार्वस्यैव क्रमेजस्य तुरंगः सायो नमन्नभात् । सर्वतो वक्त्रमेकास्यमंगं छायोनमप्यभात् ॥४९॥ | चार्वेति - चारु शोभनम् । अस्यैव क्रमे पादे । श्रजस्य सर्वज्ञस्य । तुरंगः महान् । सायः सपुण्यः 1 नमन् स्तुतिं कुर्वन् । श्रभात् शोभते स्म । विरुद्धमेतत् । नमन् सन् कथं तुरंगः । अस्य पुनरजस्य नमन्नपि तु गः । अतः एवकारः श्रत्रैव । सर्वतः समंततः । वक्त्रं मुखं । एकमास्यं यस्याङ्गस्य तदेकास्यं एकमुखम् । श्रङ्ग शरीरम् | छायया ऊनं छायोनं छायारहितम् । अछायस्वं ज्ञापितं भवति । छायोनमपि श्रभात शोभतेस्म । बिरुद्धमेतत एका स्यमंगमपि सर्वतो वस्त्रं यद्येकास्यं कथं सर्वतो वक्त्रं, अथ सर्वतो वक्त्रं कथमेकास्यम् । एतदपि विरुद्धम् -- यदि छायोनं कममभात्, प्रथाभात् कम' छायोनम् । अन्यत्र बिरुद्ध अस्य पुनः सर्वज्ञस्य न Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतिविण विल्बम् । घटत एव सर्व यतश्च विरुदालंकृतिरियम् । किमुक भवतिअनेन ब्याजेन माहात्म्यं प्रदास्य स्ववनं कृतं भवति ॥ ४॥ अर्थ-इन सर्वज्ञ वासुपूज्य स्वामीके चरणकमलोंमें नम. स्कार करनेवाला पुरुष निश्चयसे पुण्यवान् और उच्च होता हुश्रा अत्यन्त शोभायमान होता है। इनका शरीर यद्यपि एक मुखवाला है तथापि उसमें चारों ओरसे मुख दिखाई देते हैंवह चतुर्मुख है तथा छाया-कान्ति से ( पक्षमें परछाई से) रहित होकर भी अत्यन्त शोभायमान होता था। - भावार्थ-इस श्लोक में विरोधाभास अलंकार है- 'जो चरणों में नम्र होता है वह उच्च नहीं होता और जो उच्च होता है वह किसी के चरणों में नम्र नहीं होता'--यह लोकगतविरुद्ध बात है, परन्तु भगवान् वासुपूज्य लोकोत्तर पुरुष हैं उनमें लोकगत विरोध स्थान नहीं पा सकता-उनके चरणोंमें नमस्कार करनेवाला पुरुष निश्चित ही सातिशय पुण्य बन्धकर उच्च पद पाता है। _ 'जिसके एक मुख होगा वह सामनेसे ही दिखाई देगा-चारों ओर से नहीं, परन्तु भगवान् वासुपूज्यके एकमुख होकर भी सब ओरसे दिखाई देता था यह विरुद्ध बात हैं परन्तु यह विरोध भी उनमें लागू नहीं होता क्योंकि केवलज्ञानके काल में होनेवाले अतिश्यविशेषसे उनका मुख चारों ओरसे दिखाई देता है। 'जो शरीर छायासे रहित होता है वह शोभित नहीं होता, परन्तु भगवान् वासुपूज्य का शरीर छायासे रहित होकर भी अत्यन्त शोभायमान होता था'--यह विरुद्ध बात है परन्तु उसका परिहार निम्न प्रकार है--यहां छाया शब्द के दो अर्थ हैं- कान्ति' और प्रतिबिम्ब । उनमें प्रथम कान्ति अर्थसे विरोध पाता है और द्वितीय प्रतिबिम्ब अर्थसे उसका परिहार २ 'छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनावा हत्यमरः । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र भारती होजाता है। भगवानके शरीर की परछाई नहीं पड़ती फिर में वह कान्तिसे अत्यन्त सुन्दर होता है।। ४६ ॥ विमल-जिन-स्तुति. (इष्टपादमुरजबन्धः) 'क्रमतामक्रमं क्षेमं धीमतामय॑मश्रमम् । श्रीमद्विमलमर्चेमं वामकामं नम क्षमम् ॥५०॥ क्रमेति-क्रमतां अप्रतिबन्धेन व्रजतु । व्रजतां वा । अक्रम युगपत् । क्षेमं कुशलं सुखम् । धीमता बुद्धिमताम् । कर्तरि ता। अध्ये पूज्यम् । अश्रमं श्रमरहितं अक्लेशम् । श्रीमांश्चासौ विमलश्च श्रीम द्विमलः अतस्तं श्रीमद्विमलं परमतीर्थकरं त्रयोदशम् । अर्च क्रियापई जोडन्तम् । इमं प्रत्यक्षवचनम् । वामः प्रधानः काम्यते इष्यते हात वामकामः अतस्तं वामकामम् । नम च चशब्दोऽनुक्तो दृष्टव्यः । क्षमं समर्थ क्रोधादिरहितमित्यर्थः । एतदुक्तं भवति-श्री द्विमलं सर्वविशेषणविशिष्टं श्रर्च नम च धीमतामय॑ क्षेमं क्रमा अक्रम सर्वेषां प्रणामादेव शान्तिर्भवति ॥ १० ॥ __ अर्थ-हे भव्यजनो ! जो एक साथ सब पदार्थोंको जानते हैं, मंगलरूप हैं, बुद्धिमानोंके पूज्य हैं, खेदरहित हैं, अनन्त शक्तिसे सहित हैं और इन्द्र चक्रवर्ती आदि प्रधान पुरुष जिनकी सेवा करने की इच्छा करते हैं ऐसे अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मीसे सहित इन विमलनाथ तीर्थ करको पूजो तथा नमस्कार करो और उसके फलस्वरूप तत्तण उस कुशल अथवा सुखको विना किसी रुकावट के प्राप्त करो जो कि बुद्धिमानोंक द्वारा पूज्य है, परिश्रमसे रहित है और बड़े बड़े पुरुष जिसकी निरन्तर चाह रखते हैं। , लोढन्तप्रयोग: 'वृत्तिसर्गतापनेषु क्रमः' (१।३।३८ अष्टाध्यायी) इत्यात्मनेपदम् । वृत्तिरप्रतिबन्धः । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या ६१ भावार्थ – संसारमें दुःख प्राप्तिके मुख्य दो कारण हैं एक कषाय और दूसरा अज्ञान । हमारे आराध्यदेव वीतराग हैं - कषायरहित हैं और सर्वज्ञ भी हैं - अज्ञानसे रहित हैं अर्थात् दुःखके दोनों कारणोंसे रहित हैं - अनन्त सुख सम्पन्न हैं । जो भव्यजीव सच्चे हृदय से उनकी भक्ति करता है वह भी तंदुरूप होनेसे तत्कालमें सुखका अनुभव करने लगता है । अतः इस श्लोक में आचार्य समन्तभद्रने सुखाभिलाषी जीवोंको सुखप्राप्तिका उपाय बतलाया है। वह यहीं कि भगवान् विमलनाथको पूजो और नमस्कार करो । ।। ५० ।। ( द्वयक्षरपादाभ्यासयमकः १ ) ततोमृतिमतामीमं तमितामतिमुत्तमः । मतोमातातिता तो. तमितामतिमुत्तमाः ॥ ५१ ॥ तोमृतीति द्वितीयपादोभ्यस्तः पुनरुक्तः तकार मकारयोरेवास्तित्वं नान्येषाम् । यतस्ततो भवत्ययं द्वयक्षरपादाभ्यासयमकः । विमल इत्यनुवत्त ते । ततस्तस्मादहं विमलं अमृतिं मरणवर्जितम् । श्रतामि सततं गच्छामि । इमं प्रत्यक्षवचनम् । तमिता विनाशिता. श्रमतिः श्रज्ञानं येनासौ तमितामतिः तं तमितामतिम् । उत्तमः प्रधानः यतस्त्वमिति सर्वत्र सम्बन्धः । मतः पूजितः । श्रमाता श्रहिंसकः । प्रतिता सततगतिरह मिति सम्बन्धः । तत्तु प्रेरितुम् । तमितां श्रमस्व रूपम् । श्रति पूज्य । मुत् हर्षः यस्यासौं प्रतिमुत्, सर्वे इमे प्रतिमुदः, एतेषां मध्ये श्रयमतिशयेन श्रतिमुत्प्रतिमुत्तमः किमुक्त' भवति - यतो भवतः प्रणामादक्रमं क्षेमं क्रमते स्तोतॄणाम् ततोऽहमुत्तमः सन् अति : १ यह श्लोक सिर्फ 'त' और 'म' इनदो अक्षरोंसे बनाया गया है। तथा इसका दूसरा और चौथा पाद एक समान हैं इसलिये इसमें व्यंजनचित्र और यमक कंकार है । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ समन्तभद्र- भारती मुत्तमः सन् मतः अमाता प्रतिताई तो तमित क्लेशितु प्रता चिमनं भ्रमृतिम् ॥११॥ - अर्थ- जब कि पूजा और नमस्कार करनेसे भव्य पुरुषों क तत्क्षणमें अनेक कल्याण प्राप्त होते हैं उनका संसार-भ्रमण त रुक जाता है, तब मैं भी अपने दुःखों को नष्ट करने के उद्देश्य अत्यन्त हर्षित होता हुआ मृत्युरहित और समस्त अज्ञानको न करनेवाले उन विमलनाथ स्वामीकी शरण में जाता हूं - उनकी पूजा और वन्दना करता हूं जोकि सर्वोत्तम हैं, सर्वपूजित हैं। और परम हिंसक हैं तथा मैं इसके विपरीत चतुर्गतिरूप संसारमें भ्रमण करनेवाला हूँ ॥५१॥ ( चक्रश्लोकः ) श्रचरद्वयविरचितसमुद्गयमकः ) नेतानतनुते' नेनोनितान्तं नाततो नुतात् । नेता न तनुते नेनो नितान्तं ना ततो नुतात् ॥५२॥ नेतेति - यारम्भूतं पूर्वाद्ध पश्चाद्धमपि तादृग्भूतमेव । तकारन कारयोरेवास्तित्वं नान्येषाम् । अतः एवंभूतः । न प्रतिषेधः । इतान् प्राप्तान् । श्रतनुते श्रशरीरिवे ( तलन्तं ) तर्स विकल्पेन श्रडागमः । न विद्यते एनः पापं यस्यासौ अनेना: त सम्बोधनं हे श्रनेनः । श्रनितान्तं क्लेशरहितं यथा भवति । न त १ 'श्रतनुते' इतिच्छेदः । तनोर्भावः कर्म वा तनुता, अविद्यमान तनुता यस्मिन् तस्मिन् श्रतनुते अशरीरित्वे - सिद्धस्वपर्यांये इत्यर्थः समासे सति 'गोस्त्रियोरूप सर्जनस्य' इत्युपसर्जनह्रस्वत्वे सत्यकाराम रूपम् । यतु संस्कृतटीकायां तलन्तस्य प्रतनुता शब्दस्य विकल्पे श्रागम उक्तं तचिन्त्यं, तलन्तस्य नित्यस्त्रीलिङ्गत्वात् । २ 'नुतात्' इत्यत्र भावे क्तः । नमस्कारादित्यर्थः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतिषिया सदा पछता पूर्वोपि न शब्दः अत्रैवाभिसम्बम्धनीयः तेन किमुक्त भवति-न प्रततः प्रतत एव । द्वौ प्रतिपेयी प्रकृतमचं गमयतः । धुमत् प्रणुतात् । नेता नायकः । न तनुते महान् संपद्यते, न अत्रापि पूर्ववत् सम्बन्धः । न न तनुते किन्तु तनुत एव । इनः स्वामी सन् । नितान्तं प्रत्यर्थ । ना पुरुषः । ततः तस्मात् । नुतात् नुयात् । तातउम्तं क्रियापदम् । किमुक्तं भवति-इतान् प्राप्तान न न प्रतत: संसा. रियः अतनुते अशरीरिवे सिद्धस्वे तनुते विस्तारयति नायकः स्वामी यः अपामारतोः । अतः तं ना नुतात् ॥१२॥ अर्थ-हे पापरहित ! विमलनाथ जिनेन्द्र ! आप शरणमें पाये हुये संसारी प्राणियोंको विना किसी क्लेशके शरीररहित अवस्था-सिद्धत्व पर्याय-प्राप्त करा देते हैं तथा आपको नमस्कारकरनेसे प्राणी सबका स्वामी और नायक होजाता है। अतः हे भन्यजनों ! ऐसे इन विमलनाथ स्वामीको तुम भीनमस्कार करो। भावार्थ-आपको नमस्कार करनेवाले मानव अरहन्तअवस्था प्राप्त कर सबके स्वामी और नायक बनते हैं और अन्तमें पाप से-कर्ममलसे- रहित होकर सिद्धत्व पर्यायको पा लेते हैं, इसलिये प्राचार्य समन्तभद्रने भव्य जीवोंको आपकी भक्ति करनेके लिये प्रेरित किया है ॥५२॥ (चकश्लोकः) नयमानक्षमामान न मामार्यातिनाशन । नशनादस्य'.नो येन नये नोरोरिमाय न ॥५३॥ , 'अस्य' इति असु प्रक्षेपे इत्यस्यदैवादिकस्य धातोर्लोट मध्यमपुरुषैकवचनस्य रूपम् । २-३ न नों नये न न अरिमाय इत्युभयत्र प्रतिषेधवाचको द्वौ नञ् शब्दो प्रकृतार्थ दृढ़यतः । अयं श्लोकोऽलंकार• चिन्तामणौ द्वितीयपरिच्छेदे चित्रालंकारस्यावान्तरभेदस्य पादोत्तरजातेदाहरणरूपेणोपन्यस्तः । नयाहि Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्समद्र-भारती नयमति · · जयमानधम पूज्यमानक्षम नयमानाः मा यस्ता नयमानक्षमः तस्य सम्बोधनं हे नयमानक्षम । न विद्यते मानं उद्धतिः पा माणं वा यस्यासावमानः तस्य सम्बोधन हे अमान । न प्रतिषेधवचनम मां अस्मदः इवन्तस्य रूपम् । आर्याणां साधूनां अतिः पीडा तानाशय ख्यातिनाशनः कर्तरि ल्युट बहुलवचनात् । ततः हे आर्यात्तिनाशन नशनात् विनाशात् जातिजरामरणेभ्यः इत्यर्थः । अस्य उत्सारय । अ क्षेपणे इत्यस्य धोः लोडन्तस्य रूपम् । नो प्रतिषेधः । येन कारणेन में पूजामहं बभे संमाननेयं विधिः । न नो प्रतिषेधवचने अत्र सम्बन्धनोले न नो नये किन्तु नये एव । द्वौ प्रतिषेधौ प्रकृतमर्थ गमयतः । न प्रवि षेधे । हे उरो महन् । अरिमाय अरिहिंसक । अरीन् अन्तः शत्रून् कि नाति हन्तीति अरिमायः ततः हे अरिमाय । पूर्वोक्तोऽपि न अत्र सम्बन नीयः । हे न न अरिमाय । किमुक्त भवति-हे नयमानक्षम अमा प्रासंतिनाशन न न अरिमाय मां विनाशात् अस्य अपनय । येन न में नये अहं । येन पूजामहं लभे इत्यर्थः ॥१३॥ नयप्रमाणसम्बुद्धिः शमः का श्रीमुखेऽपि सा । किं निषेधेऽव्ययं लोक-नाशिनी दुःखि किं कुलम् ॥७३॥ कः मानन्नसम्बुद्धिः का च नश्वरनिःस्वने । लोटि किं पदमस्माकमित्यर्थे केन नाश्यते ॥७॥ वस्त्वंशो बुध्यते केन वृक्षश्चक्र रमा च का। सम्बत्सरासम्बुद्धिः का कथं जिन ईडयते ॥७॥ नयमानक्षमामान. न मामार्यातिनाशन । नशनादस्य नो येन नये नोरोरिमाय न ॥७॥ नयमान ! क्षमा। मानन- लक्ष्मीमुख । मा। मारी। आति-अर्तध्यान मस्थास्तीति । ना । अशन | नशनाद नश्यतीति नशस्तस्यनाद । स्यषोऽन्तकर्मणोति धातोर्मध्यमपुरतः । नः । येन-यमेन। नयेन । उरः अरि-अराः सन्स्यस्मिन्निति । मा।अयन । कथं जिन ईन्यते हो प्रश्नस्य सर्वश्लोकार्थः । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या अर्थ-हे प्रशंसनीय क्षमासे युक्त । हे अहंकार-शून्य ! हे साधुपुरुषोंकी पीड़ाको नष्ट करनेवाले ! हे कर्मशत्र ओंके घातक ! हे सर्वश्रेष्ठ ! विमलनाथ स्वामिन् ! आप मुझे इस जन्ममरणरूप विनाशसे दूर कीजिये-मेरे जन्म-मरणके दुःख नष्ट कीजिये, जिससे मैं भी (आपकी तरह) उत्तम स्थानको-स्वात्मस्थितिरूप निर्वाणपदको-प्राप्त हो सकूँ ।।५।। (गूढस्वेष्टपादचक्रश्लोकः' ) वर्णभार्यातिनन्द्याव' वन्द्यानन्त सदारव । वरदातिनता-व वातान्तसभार्णव ॥५४॥ वर्णेति-प्रात्मनः इष्टं पादः सोन्येषु पादेषु गुप्यते यतः । वर्णेन शरीरप्रभया भाति शोभते इति वर्णभः शरीरकान्त्युस्कट इत्यर्थः तस्य सम्बोधनं हे वर्णभ । प्रार्य पूज्य । अतिनन्ध सुष्टुसमृद । अव रत । खोडन्तस्य रूपं क्रियापदम् । बन्ध देवासुरैरभिवन्ध । हे. अनन्त चतुदंशतीर्थकर । सन् शोभनः पारधः वाणी सर्वभाषास्मिका यस्यासो सदारवः तस्य सम्बोधनं हे सदारव । घरद इष्टद कामदायक । प्रति शोभनं नताः प्रणताः प्रतिनताः अतिनताश्च ते प्रायोश्च अतिनतााः तान् अधति रक्षतीति अतिनतार्यावः तस्य सम्बोधनं हे अतिनतार्याव । धयं प्रधान । सभा एव अर्णवः समुद्रः सभार्णवः अतान्त अस्विभिन्नः अक्षुभितः सभार्णवः समवसृतिसमुद्रः यस्यासौ प्रतान्तसभार्णवः तस्य सम्बोधनं हे अतान्तसभार्णव । किमुक्तं भवति-हे अनन्त वर्णमांदिविशेषणविशिष्ट अव पालय मामिति सम्बन्धः । अन्यांश्च पालय ॥५४i अर्थ-हे अनुपम सौन्दर्यसे शोभायमान ! हे अष्ट महा... . इसश्लोकमें स्वेष्ट-मन चाहा-पाद शेष तीन पादोंमें गूढ़ है तथा पक्रबद्ध नामक चित्रालंकार भी है। - २ वर्णभ+मार्य+ अतिनन्य+ अब इति पदच्छेदः । अव ति. कियापदम् । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती प्रातिहार्यरूप विभूतिसे सम्पन्न! हे सुर-असुरोंके द्वारा वन्द. नीय ! हे उत्तम दिव्यध्वनिसे सहित ! हे इच्छित पदार्थों के देने वाले ! हे अत्यन्त नम्र साधुपुरुषोंके रक्षक ! हे श्रेष्ठ ! हे दोभरहित! समवसरण-समुद्रसे संयुक्त! अनन्तनाथजिनेन्द्र ! मेरी रक्षा कीजिये-मुझे संसारके दुःखोंसे बचाइये ॥५४॥ अनन्त-जिन-स्तुतिः . (गूढद्वितीयतृतीयान्यतरपादयक्षरमयश्लोकः) नुन्नानृतोन्नतानन्त नूतानीतिनुताननः । नतोनूनोनितान्तं ते नेतातान्ते निनौति ना ॥५५॥ नुन्नेति-द्वितीयतृतीयान्यतरपादो गुप्यते नकारतकारयोरेवास्तिस्वी नान्येषां यतः । नुन्नं क्षिप्तं अनृतं असत्यं येनासौ नुन्नानृतः तस्य सम्बोधनं है नुन्नानृतं अनेकान्तवादिन् । उन्नत महन् । अनन्यसम्भूतैगुणैर्यदि भट्टा रकस्य उन्नतत्वं न भवति कस्यान्यस्य भविष्यति । अनन्त अपरिमाण भट्टार कस्य नाम था । नूताः स्तुताः अनीतयः सिद्धा यैस्ते नूतानीतयः तैर्नु स्तुतं पूजितं श्राननं मुखं यस्य स्तोतुः असौ नूतानीतिनुताननः स्तुतिकन पुरुषः। नतः प्रणतः। अनूनः अविकलः सम्पूर्णः । अनितान्तं क्लेशरहिवं मलेशरहितं यथा भवति क्रियाविशेषणमेतत् । ते त्वां तुभ्यं वा। नेता नायक इन्द्रादिः । अतान्ते अतान्तनिमित्तम् मोक्षनिमित्तमित्यर्थः । निनोद प्रणौति । ना पुरुषः चक्रधरादिः । किमुक्तं भवति-हे अनन्त नुन्ना नत उन्नत नेता निनौति नेता नायकोपि सन् । विरुद्धमेतत् । यदि नायक कथमन्यस्य प्रणामं करोति अथ प्रणामं करोति कथं नायका स्वां पुनो नौति नायकोपि मोक्षनिमित्तं ततस्त्वमेव नायकः ॥१५॥ ३ नुन्नानृत+उन्नत+अनन्त इतिपदच्छेदः। - - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या अर्थ-एकान्तवादरूप समस्त असत्य को नष्ट करनेवाले ! सर्वश्रेष्ठ ! हे अनन्तनाथ जिनेन्द्र ! सिद्धपरमेष्ठीकी स्तुति करनेसे जिनके मुख पूज्य गिनेजाते हैं और जो आपके चरणोंमें नम्र रहते हैं ऐसे इन्द्र चक्रवर्ती आदि समस्त नायक-प्रधान पुरुष-भी मोक्षप्राप्तिके लिये विना किसी क्लेशके-सहज स्वभावसे प्रेरित होकर-आपको नमस्कार करते हैं। . भावार्थ-यद्यपि यह विरुद्ध बात है कि जो स्वयं नायक होगा वह अन्यको प्रणाम कैसे करेगा ? और अन्यको प्रणाम करेगा तो वह नायक कैसे होगा ? परन्तु आपको संसारके अन्य समस्त नायक नमस्कार करते हैं; क्योंकि आप ही उन सबमें श्रेष्ठ है और उस श्रेष्ठताका कारण यही है कि आपको नमस्कार करनेसे मोक्षप्राप्त होता है ॥५॥ धर्म-जिन-स्तुतिः (गूढद्वितीयचतुर्थान्यतरपादोऽद्ध भ्रमः' ) त्वमवाध दमेनर्द्ध मत धर्मप्र गोधन । वाधस्वाशमनागो मे धर्म शर्मतमप्रद ॥५६॥ त्वमेति-- त्वं युष्मदो रूपम् । न विद्यते वाधा यस्यासाववाधः तस्य सम्बोधनं हे अवाध । दमेन उत्तमक्षमया ऋद वृद्ध । मत पूजित । धर्मप्र उत्तमक्षमादिना आप्यायकपूरण । गोधन गौर्वणी धनं यस्यासौ गोधनः तस्य सम्बोधन हे गोधन । वाधस्व विनाशय । अशं दुःखम् । अनागः निर्दोष । मे मम । धर्म पञ्चदशतीर्थकर । शर्म सुखम् । सर्वाणि १ यहां द्वितीय अथवा चतुर्थ पादमेंसे कोई एक पाद अन्य पादोंके अक्षरों में गुप्त है। इसके सिवाय यह अर्धभ्रम भी है । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती इमानि शर्माणि एतेषां मध्ये अतिशयेन इमानि शर्माणि शर्मतमानि तानि प्रददाति यः सः शर्मतमप्रद तस्य सम्बोधनं हे शर्मतमप्रद ॥ एतदुक्तं भवति- हे धर्म अवाध दमेनई मत धर्मप्र गोधन अनागः शर्मतमप्रद त्वं मे प्रशं वाधस्व ।।१६।। - अर्थ हे बाधा (विनाश) रहित ! हे इन्द्रियदमन अथवा क्षमासे वृद्ध ! हे पूज्य ! हे उत्तम क्षमा आदि धर्मों के पूरक. धारक ! हे दिव्यध्वनिरूप। धनसे सहित ! हे निर्दोष ! हे मोक्षरूप उत्तम सुखके देनेवाले धर्मनाथ भगवन् ! मेरे दुःखको-- जन्ममरणकी बाधाको नष्ट कीजिये ॥५६॥ (गतप्रत्यागतैकश्लोकः) नतपाल महाराज गीत्यानुत ममाक्षर । रक्ष मामतनुत्यागी जराहा मलपातन ॥ ५७॥ नतेति-क्रमपाठे यान्यवराणि विपरीतपाठेपि तान्येव । नतान् प्रणतान् पालयति रक्षतीति नतपालः तस्य सम्बोधनं हे नतपाल । महातो राजानो यस्य स महाराज: 'टः सान्त:' तस्य सम्बोधनं महाराज । अथवा नतपाला महाराजा यस्यासौ नतपालमहाराजः तस्य सम्बोधन नतपालमहाराज । मम गीत्यानुत अस्मत्स्तवनेन पूजित । अक्षर अमश्वर । रक्ष पालय । मां अस्मदः इवन्तस्य रूपम् । अतनुत्यागी अनल्पदाता । जराहा वृद्धत्वहीनः, उपलक्षणमेतत् जातिजरामरणहीन इत्यर्थः । मलं पापं अज्ञानं पातयति नाशयतीति मलपातनः कर्तरि युट् बहुलचचा नान् । तस्य सम्बोधन हे मलपातन । एतदुक्त भवति - हे धर्म नतपाल महाराज गोत्यानुत् मम अक्षर जराहा मलपातन रच मां अतनुत्यागी यतस्त्वम् ॥ ५० ॥ अर्थ-हे नम्रमनुष्योंके रक्षक ! हे मत्कृत ( मेरे द्वारा की , जैनेन्द्रन्याकरणस्य सूत्रमिदम् ... Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या गई ) स्तुतिसे पूजित! हे अविनाशी ! हे दुष्कर्मरूपी मलको नष्ट करनेवाले ! धर्मनाथ महाराज ! मेरी रक्षा कीजिये-मुझे संसारके दुःखोंसे बचाकर अविनाशी मोक्षपद प्रदान कीजिये । क्योंकि आप महान् दाता हैं-सबसे बड़े दानी हैं और जन्मजरा आदिको नष्ट करनेवाले हैं ।। ५७ ॥ (मुरजः) मानसादर्शसंक्रान्तं सेवे ते रूपमद्भुतम् । जिनस्योदयि सत्त्वान्तं स्तुवे चारूढमच्युतम् ॥५॥ मानसेति-मन एव मानसं चित्तमित्यर्थः मनसमेवादर्श: दर्पणः मानसादर्शः मानसादर्श संक्रान्तं प्रतिबिम्बितं मानसादर्शसंक्रान्तम् । सेवे भजामि । ते तव । रुपं शरीरकान्तिम् । अद्भुतं पाश्चर्यभूतम् । जिनस्य त्रैलोक्यनाथस्य । उदयि उदयान्वितम् । सतः शोभनस्य भावः सध्वं, सत्त्वस्यान्तं अवसानं परमकाष्ठा सत्त्वान्तम् । स्तुवे वन्दे । च समुच्चये । श्रारूढं अध्यारूढं । अच्युतं अहीनं अक्षरम् । च समञ्चयार्थः । जिनस्य रूपं सेवेऽहं स्तुचे च किंविशिष्टं रूपं मानसादर्शसंक्रान्तम् । पुनरपि किंविशिष्ट अद्भुतं उदयि सत्वान्तमारूढ़ अच्युतमिति परममाक्तिकस्य वचनम् ॥ ५ ॥ अर्थ-मैं आपके उस अनुपम रूप-सौन्दर्य की उपासना और स्तुति करता हूँ जो कि सब जीवोंको आश्चर्य करनेवाला है, सदा उदयरूप रहता है, उत्तमताकी पराकाष्ठा है, आरूढ है, विनाशरहित है और मेरे मनरूपी दर्पणमें प्रतिबिम्बित होरहा है ।। ५८ ॥ (मुरजा) यतः कोपि गुणानुक्त्या नावाब्धीनपि पारयेत् । न तथापि क्षणाद्भक्त्या तवात्मानं तु पावयेत् ॥५९॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभन्द्र-भारती यतः इति यतः यस्मात् । कोपि कश्चिदपि । गुणान् जिनंस्थासाधारणधर्मान् । उक्त्या वचनेन । नावा पोतेन । श्रधीन् समुद्रान् । श्रि संभावने । पारयेत् प्लवताम् । न प्रतिषेधे । तथापि एवमपि क्षणाव 1 श्रक्षिसंकोचात् समयाद्वा । भक्त्या सेवया । तव ते । श्रात्मानं स्वम् । तु पुनः । पावयेत् पवित्रीकुर्यात् । समुदायार्थ:- यतो निश्चितं चेतो मम नावान्धीनकि पारयेत् तव गुणाननन्तान् कश्चिदपि न पारयेत् यद्यपि तथापि क्षणात भक्त्या तवात्मानं तु पावयेत् । कुतएतत् स्तुतिमाहात्म्यात् ॥ ५६ ॥ ७० अर्थ - हे भगवन् ! यदि कोई चाहे तो नावके द्वारा समुद्रों को पार कर सकता है । परन्तु स्तुतिरूप वचनों से आपके गुणों को पार नहीं कर सकता - आपके गुण अनन्त हैं । यद्यपि यह निश्चित है तथापि भक्तपुरुष क्षणभरकी आपकी भक्ति से अपने आपको पवित्र बना सकता है - आपकी भक्तिका माहात्म्य अचिन्त्य है । भावार्थ -- हे भगवन् ! आपके अनन्त गुणों का वर्णन करनेकी सामर्थ्य किसीमें भी नहीं है फिर भी भव्यप्राणी आपकी भक्तिरूप शुभ भावना से अपनी आत्माको पवित्र बना लेते हैं-- अशुभ कर्म से रहित कर लेते हैं और परम्परासे मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं ॥ ५६ ॥ ( मुरजः ) रुचं बिभर्ति ना धीरं नाथाति स्पष्टवेदनः । वचस्ते भजनात्सारं यथायः स्पर्शवेदिनः ॥ ६० ॥ रुचमिति - रुचं दीप्तिं तेजः । बिभर्ति धरते । ना पुरुषः वीरं गभीरं सावष्टम्भं यथा भवति क्रियाविशेषणमेतत् । हे नाथ स्वामिन् श्रतिस्पष्टवंदनः अतिस्पष्टं विशदं वेदनं विज्ञानं यस्यासा वतिस्पष्टवेदनः । बच: वचनम् । ते तव । भजनातू सेवनात् । सारं पर Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या मतस्वभूतम् + यथा इवार्थे । श्रयो लोहम् । स्पर्शवेदिनः । सुवर्णभावकारिणः स्पर्शपाषाणस्य भजनात सेवनात् । श्रस्य समुदायार्थः कथ्यतेहे नाथ ना रुचं बिभर्ति ते भजनात् वचश्च सारं धीरं यथाभवति किं विशिष्टः सना प्रतिस्पष्ट वेदनः । कथं ? दृष्टान्तं प्रदर्शयति यथा श्रयः स्पर्शवेदिनः ॥ ६० ॥ अर्थ - हे नाथ ! जिस प्रकार पारस पत्थर के स्पर्श से लोहा ( सुवर्णरूप होकर ) तेज धारण करता है और उसके फलस्वरूप अत्यन्त श्रेष्ठ होजाता है उसी प्रकार भव्य पुरुष भी आपकी सेवासे - श्राराधनासे—अत्यन्त प्रत्यक्ष केवलज्ञानसे सहित होता हुआ विशुद्ध-सुस्थिर आत्मीय तेजको धारण कर लेता है । तथा उसके वचन भी श्रेष्ठ होजाते हैं । भावार्थ - हे भगवन्! आपकी भक्तिसे पुरुष केवलज्ञान तथा सातिशय दिव्य ध्वनिको प्राप्त होते हैं ॥ ६० ॥ ( मुरजः ) प्राप्य सर्वार्थसिद्धिं गां कल्याणतः स्ववानतः । अप्यपूर्वार्थसिद्ध्येगां कल्याऽकृत भवान् युतः ||६१॥ ७१ प्राप्येति - प्राप्य कृत्वा । सर्वार्थसिद्धि विश्वकार्यनिष्पत्तिम् । गां पृथिवीम् | कल्याणेतः कल्याणानि स्वर्गावतरणादीनि इतः प्राप्तः कल्या चैत: । स्ववान् श्रात्मवान् । श्रतः श्रस्मात् । श्रपि । श्रपूर्वार्थस्य केवलज्ञानादिचतुष्टयस्य सिद्धिः प्राप्तिः अपुर्वार्थसिद्धिः तया श्रपूर्वार्थसिद्धया केवलज्ञानादिप्राप्त्या । इगां ईहां चेष्टां विहरणम् । हे कल्य समर्थ । श्रकृत कृतवान् । भवान् भट्टारक: । युतः युक्तः । समुदायार्थः - भवान् कल्याणेतः सन् पुनरपि आत्मवान् सन् प्राप्य सर्वार्थसिद्धिं गां अस्मादूर्ध्व पूर्वार्थसिद्धया युतोपि हे कल्य त्वं तथापि चेष्टां विहरणं ऋकृत प्रत: प्रत्यमेतत् “परार्था हि सतां चेष्टा" ॥ ६१ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ समन्तभन्द्र-भारती अर्थ-हे कल्या-समर्थ ! जहां सब अर्थों-प्रयोजनों सिद्धि-पूर्ति होती है ऐसीसर्वार्थसिद्धि'नामक पृथिवीको पाकर गई जन्म आदि कल्याणकोंसे सहित हो आप स्ववान् -आत्मा ( पक्षमें धनवान् ) हुए थे- उत्पन्न हुए थे तथा इसके का आपने अनन्तचतुष्टयरूप अपूर्व अर्थकी सिद्धिसे सहित होने भी विहार किया था। (हे भगवन् ! इन सब बातोंसे स्पष्ट कि 'परार्था हि सतां चेष्टा-सत्पुरुषोंकी समस्त चेष्टाए पसे कारके लिये ही होती हैं)। भावार्थ-जो पुरुष ऐसे स्थानको पा चुका हो जहां उस सब मनोरथोंकी पूर्ति होती हो, अनेक कल्याण अथवा मंगला सहित हो, स्व-धन भी उसके पास पर्याप्त हो तथा इसके सा अनोखे २ पदार्थों की प्राप्ति भी सदा होती रहती हो। सारांशतः हर एक तरहसे सुखी हो वह मनुष्य फिर भी यदि जहां तो भ्रमणकर उपदेश आदि देनेकी चेष्टाएँ करता हो तो उसी उसका निजी प्रयोजन कुछ भी नहीं रहता। उसकी समझे चेष्टाएँ परोपकारके लिये ही रहती हैं। प्रकृतमें-भगवा धर्मनाथ भी पूर्वमें तपस्या करके सर्वार्थसिद्धि विमानको प्राप्त थे। वहांसे चयकर जब वे पृथिवीपर श्रानेको उद्यत हुएवं देवोंने गर्भ-जन्म कल्याणक किये। गर्भमें आनेके छह मा पहले से-पन्द्रह माह तक-प्रतिदिन साढ़े दश करोड़ रत्नोंव वर्षा की। इसके बाद जब ये दीक्षित हुए तब देवोंने तपःकल्या एक किया और जब इन्हें अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्तसुर और अनन्त वीर्यरूप अपूर्व अर्थकी प्राप्ति हुई तब भी देवा ज्ञानकल्याणकका उत्सव किया-फलतः भगवान् धर्मनाथ भगवान् धर्मनाथ सर्वार्थसिद्धि विमानसे चय कर गर्भ में अप तीर्ण हुए थे। -धर्मशर्माभ्युदय । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या ७३ निजके सब मनोरथ पूर्ण होचुके थे फिर भी इन्होंने जो अनेक आर्य देशों में विहारकर सब जीवोंको हितका उपदेश देनेकी चेष्टा की थी उसमें उनका निजी प्रयोजन कुछ भी नहीं था । केवल संसार के पथभ्रान्त पुरुषोंको सुपथ पर लाना ही उनका प्रयोजन था। इस श्लोक में 'सर्वार्थसिद्धि' 'कल्याण' 'स्व' और 'अपूवर्थ' ये पद श्लिष्ट है - द्विश्रर्थक हैं, जिनका समन्वय ऊपर प्रकट किया गया है। इस श्लोक की रचनाके पहले आचार्यके सामने अव्यक्त रूपसे एक प्रश्न उपस्थित होता है कि - जिनेन्द्रदेव जब मोहनीय कर्मका क्षय कर चुकते हैं - अपनी सब इच्छाओंका लय कर चुकते हैं - तब बिना इच्छाके उनका विहार और उपदेश कैसे होता है ? इस प्रश्नका उत्तर भी आचार्य समन्तभद्रने अव्यक्त रूपसे इसी श्लोकमें दिया है अर्थात् निजका कुछ प्रयोजन न रहते हुए भी जिनेन्द्रदेवका विहार आदि होता हैं- सिर्फ परोपकार के लिये । यद्यपि वास्तव में भगवान् के परोपकार करनेकी भी इच्छा नहीं रहती; क्योंकि वे इच्छाओंके मूलभूत मोहनीय कर्मका क्षय कर चुकते हैं-उनकी समस्त क्रियाए मेघोंकी तरह, सिर्फ भव्य जीवोंके सौभाग्य से ही होती हैं। आचार्यने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्वयं कहा है कि 'अनात्मार्थ विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शामुरजः किमपेक्षते' | (मुरज :) भवत्येव धरा मान्या सूद्यातीति न विस्मये । देवदेव पुरा धन्या प्रोद्यास्यति भुवि श्रिये ॥ ६२ ॥ भवतीति - भवति भट्टारके त्वयि । एव अवधारणम् । धरा पृथिवी । मान्या पूज्या । सूचाति उद्गच्छति प्रभवति । इति यस्मात् । न विस्मयेहं Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ समन्तभद्र-भारती mamiwwwmmmmmmmmmm न ममाश्रयंम् । हे देवदेव देवानां देवः देवदेवः तस्य सम्बोधनं हे देवदे परमेश्वर । पुरा पूर्वमेव । धन्या पुण्या। प्रोद्यास्यति प्रोद्गमिष्यति प्रम विष्यति । भुवि अस्मिन् लोके । श्रिये श्रीनिमित्तम् । समुदायेनार्थः कथ्यते । हे देवदेव सूद्याति भवति भगवति धरा मान्या भवतीति न विस्मये ऽहम् । यत: प्रोद्यास्यति भगवति पुरैव धन्या भुवि श्रीनिमित्तम् ॥ ६२ अर्थ-हे देवोंके देव ! यह पृथिवी आपके जन्म लेनेसे ही पूज्य मानी जाती है-इस विषय में मुझे कुछ भी आश्चर्य नहीं है; क्योंकि आपके जन्म लेनेसे पहले ही यह पृथ्वी रत्नवर्षा आदिके द्वारा धन्य गिनी जाने लगती है तथा लक्ष्मीसे सम्पन्न हो जाती है। भावार्थ--जब तीर्थकर भगवान् गर्भ में आते हैं उसके छह मास पहलेसे ही कुबेर सुन्दर नगरीकी रचना करता है, उसे धन धान्य सुवर्ण रजत आदिसे सम्पन्न करता है और जन्म-समय तक अर्थात् पन्द्रह मास तक प्रतिदिन रत्नों की वर्षा किया करता है। हे प्रभो! जब आपके उत्पन्न होने के पहले हो यह पृथ्वी उत्तम हो जाती है तब आपके जन्म लेनेसे क्यों न उत्तम मानी जावेगी ? अवश्य मानी जावेगी ॥ ६२ ॥ (मुरजः) एतच्चित्रं पुरो धीर स्नपितो मन्दरे शरैः। जातमात्रः स्थिरोदार क्वापि त्वममरेश्वरैः ॥६३॥ एतदिति--एतत् प्रत्यक्षवचनम् । चित्रं आश्चर्यम् । पुरः पूर्वस्मिन् काले । धीर गभीर | स्नपितः अभिषेकितः । मन्दरे मेरुमस्तके। शरैः पानीयैः । जातमात्र: उत्पत्तिक्षणे । स्थिर सावष्टम्भ । उदार दानशील महन् । क्वापि एकस्मिन्नपि काले । त्वं युष्मदो रूपम् । अमरेश्वरै देवदेवेन्द्रः । समुदायार्थः-हे धीर मन्दरे शरैः त्वं स्नपितः जातमात्र सन् हे स्थिरोदार अमरेश्वरैः पुरः क्वापि । चित्रमेतत् । कथं चित्रम् । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या wwanmmmmmmmmmm बालस्य अस्माभिर्मन्दरे [गमनं स्नपनं वा] क्वापि न दृष्टं यतः ततः पाश्चर्यम् । अथवा एवं चित्रमेतत् भट्टारके तीर्थे सपि प्राणिनः स्नान्ति, कथं पुरः देवैर्मन्दरे स्नपितश्चोद्यमेतत् । अथवा यो भवादृशः शरैः स कथं स्नाप्यते तथापि भवान् देवैः शरैः पानीयैः स्नपितः चित्रमेतत् ॥६३॥ ___ अर्थ हे धीर ! हे स्थिर ! हे उदार ! आपके उत्पन्न होते ही सबसे पहले, समस्त देव और इन्द्रोंने अद्भुत-अत्यन्तउत्तुङ्ग एवं शोभा-सम्पन्न मेरु पर्वतपर क्षीरसागरके जलसे आपका अभिषेक किया था यह आश्चर्य की बात है। भावार्थ --यहां आश्चर्य निम्न बातोंसे हो सकता हैतत्कालमें उत्पन्न हुआ बालक मेरुपर्वतपर पहुँच जावे यह बात कभी देखने में नहीं आई इसलिये यह बात आश्चर्यजनक है अथवा तत्काल में उत्पन्न हुए बालकका योजनों प्रमाण एक हजार आठ कलशोंसे अभिषेक किये जाने पर भी वह ज्योंका त्यो स्थिर रहा श्रावे यह आश्चर्यकी बात है। अथवा जिसके तीर्थमें--उपदिष्ट धर्म में संसारके समस्त प्राणी स्नान करते हैंतदनुकूल आचरणकर आत्मकल्याण करते हैं--उसका किसी दूसरेके द्वार। अभिषेक किया जाना आश्चर्य की बात है । अथवा लोकोत्तर--सर्वश्रेष्ठ-प्रभावशाली-प्रभुका अभिषेक इन्द्रोंने जल-जैसे न-कुछ-तुच्छ पदार्थसे किया यह आश्चर्यकी बात है। अथवा जो स्वयं शुद्ध है और अपनी पवित्रतासे दूसरोंको पवित्र करनेवाला है उसको भी इन्द्र-जैसे बुद्धिमान् पुरुषोंने अभिषेक-द्वारा शुद्ध करने की व्यर्थ चेष्टा की यह बात आश्चर्य करनेवाली है। अथवा इन्द्रने शरसे-तृण अथवा बाणसे आपका अभिषेक किया जोकि असंभव होनेसे आश्चर्यकारी है ( परिहार पक्षमें शरका अर्थ जल लिया जावेगा)। इस श्लोकमें कविने जिन बातोंसे आश्चर्य प्रकट करते हुए विरोध प्रकट किया है उन सबका परिहार 'धीर' 'स्थिर' और Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती उदार विशेषणोंसे होजाता है । यथा-हे भगवन् ! आप इता धीर और स्थिर है--इतने शक्तिशाली हैं--कि उत्पन्न होते है। निन्यानवे हज़ार योजन ऊँचे मेरुपर्वत पर एक हजार पार कलशोंसे अभिषेक होने पर भी आपमें किसी प्रकारका विका उत्पन्न नहीं हो पाया। आपका अतुल्य बल प्रशंसनीय है।। प्रभो ! आप इतने उदार हैं महान हैं-कि अल्पज्ञोंके द्वारा के हुई निःसार क्रियाओंसे आपको रोष नहीं आता--आप अपने अगाध क्षमतासे सबको क्षमा कर देते हैं ।। ६३ ॥ (अनन्तरपादमुरजः ) तिरीटघटनिष्ठ्य तं हारीन्द्रौघविनिर्मितम् । पदे स्नातः स्म गोक्षीरं तदेडित भगो'श्विरम् ॥६४॥ तिरीटेति-तिरीटानि मुकुटानि तान्येव घटाः कुम्भाः तिरोटघटा तैर्निष्ठ्य तं निर्गमितं तिरीटघटनिष्ठय तम् । देवेन्द्रचक्रधरादिमुकुट घटनिर्गतम् । हारि शोभनम् । इन्द्रौघविनिर्मितं देवेन्द्रसमितिविर चितम् । इन्द्राणामोघः इन्द्रौघः तेन विनिम्मितं कृतं इन्द्रौघविनिम्मितम् । पदे णदौ । स्नातः स्म स्नातवन्तौ । गोक्षीरं रश्मिपयः । अथवा पदे पदनिमित्तं स्नातः स्म स्नातबन्तौ गोक्षीरम् । तदा स्नानानन्तरं सुरेन्द्रः प्रणामकाले । ईडित पूजित । भगोः भगवन् । चिरं प्रत्यर्थ सुष्ठु इत्यर्थः । किमुक्तं भवति-हे भगवन् ईडित स्नानकाले ते पदे गोक्षीरं स्नातः स्म । किं विशिष्टं गोक्षीरं तिरीटघटनिष्ठ्य तं हारीन्द्रौघविनिर्मितम् ॥६॥ अर्थ-हे पूज्य ! अभिषेकके बाद इन्द्रोंके समूहने जब आपके चरणकमलोंको नमस्कार किया था, तब उनके मुकुटुरूपी घटसे मनोहर किरणरूपी दुग्ध प्रकट हुआ था, उसमें आपके चरण. कमलोंने मानो चिरकालतक स्नान किया था। १ भगोस्' इति सम्बुद्धयर्थकोऽव्ययः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या जन्माभिषेक हो चुकने के बाद इन्द्र-समुदाय जिस अभिषिक्त पालक के चरणों में मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं,नमस्कारके मय इन्द्रोंके मुकुटोंकी शुक्ल किरणें उस भगवान्के चरणोंपर हती हैं उससे ऐसा मालूम होता है मानों भगवान्के चरण इन्द्रोंमुकुटुरूपी घटोंसे भरते हुए किरणरूप दूधमें स्नान कर रहे । यहां रूपक और उत्प्रेक्षा अलंकारसे वर्णन किया गया है। लोकमें आये हुए 'पदे' शब्दको 'पद' शब्दसे चतुर्थ्यन्त मानकर नः आवृत्ति करने और 'चिरं' शब्दपर अधिक लक्ष्य देनेसे क और विचित्रभाव प्रतीत होने लगता है।] | भवार्थ--'इन्द्रोंने भगवानका अभिषेक क्षीरसमुद्रके जलसे हो कि क्षीरके समान था, किया था। उससे उनका शरीर क्षीरजैसा धवल होगया था । अभिषेक पूर्ण हो चुकने पर इन्द्रने त्तम वस्त्रसे जब उनके शरीरको पोंछ लिया तब उसपरम खीरकी प्रभा दूर होगई थी । परन्तु चरणकमलों पर नमस्कारक समय इन्द्रोंके मुकुटोंकी सफेद किरणें फिर भी पड़ रही थीं इसलिये चरण-कमल वस्त्रसे पोंछे जाने पर भी सफेद सफेद दिख रहे थे । उससे ऐसा मालूम होता था कि भगवानके पदे-चरण, पदे ( चतुर्थ्यन्त ) किसी उत्तम पदको पानेके लिये शरीर के अन्य अवयवोंकी अपेक्षा चिर काल तक नान करते रहे हों। जो इतरजनोंकी अपेक्षा अपने आपको किसी अधिक उत्कर्षको प्राप्त कराना चाहता है उसको दूसरे जनोंकी अपेक्षा अधिक तल्लीनताके साथ उस कामको करना पड़ता है-यह स्वाभाविक बात है। चरणोंने चिरकाल तक क्षीरस्नानके द्वारा अपने आपको अत्यन्त पवित्र बना लिया था इसीलिये मानों इन्द्र आदि लोकोत्तर पुरुष उनके घरणोंको नमस्कार करते थे-हस्त, उदर और मस्तक आदिको नहीं ॥१४॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OC समन्तभद्र-भारती (मुरजबन्धः) कुत एतो नु सन्वर्णो मेरोस्तेपि च संगतेः । उत क्रीतोथ संकीर्णो गुरोरपि तु संमतेः ॥६५॥ कुत इति-कुतः कस्मात् । एतः पागतः । नु वित।। शोभनः । वर्णः रूपं दीप्तिस्तेजः । मेरोः मन्दरस्य । ते तव । अपि ननु इत्यर्थः । संगतेः सङ्गमात् मेलापकात् । उत वितर्के । क्रीत: द्रन गृहीतः । अथ श्राहोस्वित् । संकीर्णः वर्णसंकरः । गुरोः भतु ।। तु उताहो । सम्मतेः प्राज्ञायाः। किमुक्तं भवति---मेरोर्योऽयं सन वर्ण, कुतः पागतः किं ते संगतेः उत क्रीत: अथ सङ्कीर्णः । अपितु संमतेः । ननु निश्चितोस्माभिस्तव संमतेः ॥६॥ ... अर्थ-हे भगवन् ! हम लोगोंको अब तक सन्देह था कि में पर्वतका ऐसा सुन्दररूप कहांसे आया ? क्या आपकी संगी अथवा आपका वहां जन्माभिषेक होनेसे उसका वैसा सुन्दरी होगया ? या मूल्य देकर खरीदा गया अथवा किसी भी सुन्दर वस्तुका रूप उसमें संर्कीण कर दिया गया-मिला दि गया ? परन्तु अब हमें निश्चय होगया कि मेरुका वह मुन्दर श्रापकी संमतिसे-आज्ञामात्रसे-होगया है, किसी दूस जगहसे नहीं आया है। भावार्थ-जिस मेरु पर्वतपर जिस बालकका अमि होता है वह पर्वत सुवर्ण और रत्नोंकी कान्तिसे अत्यन्त म हर होता है। यहां प्राचार्यने भक्ति में तल्लीन होकर बतलाया है मेरु-पर्वतका वह अत्यन्त सुन्दररूप भगवान् धर्मनार्थको संमा ही हुआ था। हे प्रभो! जब आपकी संमतिसे-आज्ञासेअचेतन पदार्थ भी सद्वर्ण-सुवर्ण या उत्तम रूपको पा सकता है। आपको आज्ञासे-आपके सम्यग्ज्ञानसे अथवा आपके सम्म मनन ध्यान या अनुभवनसे सचेतन प्राणी सद्वर्ण-उत्तमा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतित्रिया L बारी, उच्चकुली अथवा उत्तम यशसहित हो जावे तो इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि आप गुरु हैं - सर्वश्रेष्ठ, महान् या स्वामी हैं । अथवा आपकी संगति से सचेतन शिष्य सद्वर्णकोउत्कृष्ट अक्षर परिज्ञानको — प्राप्त हो जायें तो क्या आश्चर्य हैं ? क्योंकि आप गुरु हैं - उपाध्याय हैं। गुरुकी संमतिसे शिष्यको क्या नहीं प्राप्त हो जाता ? ( अनन्तरपादमुरज: ) हृदि येन धृतोसीनः स दिव्यो न कुतो जनः । त्वयारूढो यतो मेरुः श्रिया रूढो मतो गुरुः ॥ ६६ ॥ 1 हृदीति - हृदि हृदये । येन जनेन धृतो विधृतः । असि भवसि । इनः स्वामी इति कृत्वा । सः पूर्वोक्तः प्रतिपादकः । दिव्यः पुण्यवान् कृतार्थं इत्यर्थः । न कुतः न कस्मात् । जनः भव्यलोकः । त्वया भट्टारकेण । श्रारूढः श्रधिष्ठितः । यतो यस्मात् । मेरुः गिरिराजः । श्रिया लक्ष्म्या । रूढः प्रख्यातः श्रीमान् जात: । मतः ज्ञातः । गुरुः महान् । एवं सम्बन्धः कर्त्तव्यः— हे • भट्टारक स्वं येन जनेन हृदि घृतो भवसि इन इति कृत्वा स जनः कुतो न दिव्यः किन्तु दिव्य एव । यतो मेरुरपि स्वयारूढः सन् श्रिया रूढः मतः गुरुश्च मतः ॥ ६६॥ अर्थ - हे भगवन् ! जिस भव्य जीवने आपको स्वामी मान कर अपने हृदय में धारण किया है वह पुण्यवान् क्यों न होगा ? अवश्य होगा। क्योंकि मेरुपर्वत, आपके द्वारा अधिष्ठित होनेसेही श्रीसम्पन्न और महान् होगया था । भावार्थ - सुवर्ण और रत्नोंसे खचित होने के कारण मेरुपर्वत श्रीमान् – लक्ष्मी सम्पन्न अथवा शोभासे युक्त - कहा जाता है और एक लाख योजन ऊँचा होने के कारण गुरु- महान् कहा जाता है। यहां कविका विश्वास है कि मेरुपर्वतको जो असीम श्री — लक्ष्मी अथवा शोभा और महत्ता - प्राप्त हुई है वह आपके Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ វ समन्तभद्र-भारती offi ही अधिष्ठान हुई है। यदि आपका उसपर जन्माभिषे होता तो वह कभी भी इतना श्रीमान् और महान नहीं सकता। यहां मेरुपर्वतके उदाहरण से यह बात ध्वनित की ग कि जब आपके आश्रय से अचेतन - पर्वत भी श्रीसम्पन्न महान् हो सकता है तब सचेतन - भक्तिभाव से परिप्लुत-भ प्राणी आपको हृदय में धारणकर - आपका ध्यान स्मरण कर यदि दिव्य - पुण्यवान् इन्द्र अहमिन्द्र आदि - हो और क अनन्तचतुष्ट्यरूप श्री से सम्पन्न होकर समस्त विश्वसे गुरु श्रेष्ठ हो जावे तो क्या आश्चर्य है ? || ६६ || शान्ति - जिन - स्तुतिः ( मुरजः ) । चक्रपाणेर्दिशामूढा भवतो गुणमन्दरम् । के क्रमेणेदृशा रूढाः स्तुवन्तो गुरुमक्षरम् ॥६७॥ चक्रेति - चक्रपाणेः चक्रवर्तिनः पूर्वराज्यावस्थाविशेषणमेत दिशामूढा दिग्मूढा श्रविज्ञातदिशः । भवतः भट्टारकस्य । गुणमन्दरं गुरु पर्वतम् | के किमो रूपम् । क्रमेण न्यायेन परिपाटमा । ईदशा ईदृग्भूते रूढाः प्रख्याताः । स्तुवन्तो वन्द्यमानाः । गुरु महान्तम् । श्रक्षरं न रम् । किमुक्त भवति - चक्रपाणभवतः गुणमन्दरं ईदशा क्रमेण मुर बन्धैश्चकवृत्तः स्तुवन्तः रूढाः के नाम दिशामूढाः अपि तु भवन्त्येव । किं विशिष्टं गुणमन्दरं गुरुं अक्षरम् ॥ ६७ ॥ ' अर्थ - हे प्रभो ! आप चक्रवर्ती हैं- राज्य अवस्थामें आपने रत्न हाथ में लेकर षट्खण्ड भरत क्षेत्रकी दिग्विजय की थी इस क्रम से - मुरजबन्ध चक्रवृत्त आदि चित्रबद्ध स्तोत्रों से आप Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या अविनाशी और महान् गुणरूपी मेरुपर्वतकी स्तुति करनेवाले कौन प्रसिद्ध पुरुष दिशाभूल हुए हैं ? अर्थात् कोई भी नहीं। भावार्थ- मेरुपर्वत हर एक जगहसे उत्तर दिशामें पड़ता है इसलिए जो मेरुपर्वतको प्रत्येक क्षण देखता रहता है वह कभी दिशा नहीं भूल सकता-वह मेरुको देखकर अपनी इष्टदिशाको पहुँच सकता है। यहां आचार्यने भगवान शान्तिनाथ के गुणोंको मेरुपर्वतका रूपक दिया है । उससे यह अर्थ स्पष्ट होता है कि जो पुरुष भगवान् शान्तिनाथके गुणरूप मेरुपर्वतकी स्तुति करेगा वह संसारकी अन्य उलझनोंमें उलझ जानेपर भी अपने कर्तव्य-मार्गको नहीं भूलेगा । वह अपने सबसे उत्तर-सबसे श्रेष्ठ-मार्गको अनायास ही पा जावेगा । अब भी तो रास्ता भूल जानेपर मनुष्य किसी ऊँचे पहाड़ या पेड़ वगैरह को लक्ष्यकर अपने इष्ट स्थान पर पहुंचते हैं। ॥६७। (मुरजबन्धः ) त्रिलोकीमन्वशास्संगं हित्वा गामपि दीक्षितः । त्वं लोभमप्यशान्त्यंग जित्वा श्रीमद्विदीशितः ॥६॥ त्रिलोकीति-त्रिलोकी त्रयाणां लोकानां समाहारः त्रिलोकी "रादितिडीविधिः” तां त्रिलोकीम् । अन्वशाः अनुशास्तिस्म अनुशासितवान् । संगं परिग्रहम् । हित्वा त्यक्त्वा । गामपि पृथिवीमपि । दीक्षितः प्रबजितः । स्वं युष्मदोरूपम् । लोभमपि सङ्गगतचित्तमपि । तृष्णामपि । अशान्त्यङ्ग अनु प्रशमनिमित्तम् । शान्तः अङ्ग कारणं शान्त्यङ्ग न शान्त्यङ्ग प्रशान्त्यङ्गम् । जित्वा विजित्य । श्रीमद्विदीशितः लक्ष्मीमद्ज्ञानीश्वरः । विदामीशितः विदीशितः श्रीमांश्चासौ विदोशितन श्रीमद्विदीशितः। किमुक्त भवति- हे शान्तिभट्टारक स्वं संगं हित्वा गामपि दीक्षितः सन् त्रिलोकीमन्वशाः लोभमपि प्रशान्त्यंग जित्वा श्रीमद्विदोशितः सन् ॥६॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती अर्थ- प्रमओ ! यद्यपि आप समस्त परिग्रह और सम पृथिवीको छोड़कर दीक्षित हो गये थे-नग्न दिगम्बर हो जङ्गा में जाकर तपस्या करने लगे थे-तथापि आपने तीनों लोकों अनुशासित किया था-लोकत्रयके समस्त प्राणी आपके उप दिष्ट मार्ग पर चलते थे । इसके सिवाय आपने अशान्ति कारणस्वरूप लोभको भी जीत लिया था फिर भी आप लक्ष्मीवा और विद्यावानोंमें ईश्वर गिने जाते हैं। भावार्थ-यहां आचार्यने अपि' शब्दसे विरोध प्रकट किया है। लोकमें देखाजाता है कि जो पृथिवीका मालिक होता है-धनधान्य का स्वामी होता है-और सेना वगैरह अपने पास रखता है वह कुछ मनुष्योंपर-अपने आश्रित देशमें रहनेवाले लोगोंपरशासनकर पाता है; परन्तु आपने शासन करनेके सब साधनों छोड़ देनेपर भी कुछ नहीं किन्तु तीनों लोकोंके लोगोंपर शास किया है यह विरुद्ध बात है। यहां शासनका अर्थ मोक्षमार्गक उपदेश लेनेपर विरोधका परिहार होजाता है। इसी प्रकार जे लोभ और तृष्णासे सहित होता है वही धनधान्यादिक लक्ष्मीक अपने पास रखता है परन्तु आप लोभको जीतकर भी श्रीमान्लक्ष्मीवानोंके ईश्वर-बने रहे यह विरुद्ध बात है,परन्तु श्रीमानका अर्थ अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मोसे सहित लेनेपर विरोधका परित हार हो जाता है ॥ ६॥ (मुरजबन्धः ) केवलाङ्गसमाश्लेषबलाढ्य महिमाधरम् । तव चांगं क्षमाभूषलीलाधाम शमाधरम् ॥६९॥ केवलेति-केवलं केवलज्ञानम् । अङ्ग शरीरम् । केवलमेव अश केवलाङ्ग केवलान समाश्लेषः सम्बन्धः आलिङ्गनं केवलासमाश्लेष Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या तस्य तेन तदेव वा बलं सामर्थ्य केवलाङ्गसमाश्लेषवलं तेन पाहा. परिपूर्णः केवलाङ्गसमाश्लेषबलाढ्यः तस्य सम्बोधनं हे केवलाङ्गसमाश्लेष बलाढ्य । अथवा केवलाङ्गसमाश्लेषबलाढ्यो महिमा केवलाङ्गसमाश्लेषबसाढ्यमहिमा तां धरतीति अंगस्यैव विशेषणम् । महिमा माहात्म्यं महिमानं प्राधरतीति महिमाधरं माहात्म्यावस्थानम् । तव ते । च अवधारगर्थे दृष्टव्यः । अंग शरीरम् । क्षमैव भूषा यस्य तत् समाभूषम् । लीलानां कमनीयानां धाम अवस्थानं लीलाधाम । क्षमाभूषं च तत् लीलाधाम च तत् क्षमाभूषलोलाधाम । शमस्य उपशमस्य प्राधरः गौरवं यस्मिन् तत् शमाधरम् । अङ्गमिति सम्बन्धः । समुच्चयार्थ:-हे शान्तिभट्टारक केवलाङ्गसमाश्लेषबलाढ्य महिमाधरं तव चाङ्गकि विशिष्ट उमाभूषलीलाधाम शमाधरम् । किमु भवति-तवैवाङ्गमीटग्भूतं नान्यस्य | अतस्त्वमेव परमात्मा इत्युक्तंभवति ॥ ६६ ॥ ' अर्थ-केवलज्ञानरूप शरीरसे आलिङ्गित तथा अनन्त बलसे सहित हे शान्तिनाथ जिनेन्द्र ! आपका यह परमौदारिक शरीर बड़ी महिमाको धारण करनेवाला है, क्षमारूप अलंकारसे अलं. कृत है, सुन्दरताका स्थान है और शान्तिरूपता-सौम्यतारूप गौरवसे सहित है। .. श्लोकमेंजो 'च' शब्द आया है उसका अवधारण अर्थ है। इसलिये श्लोकका भाव होता है कि हे भगवन् ! ऐसा शरीर आपका ही है अन्यका नहीं है अतः आप ही सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। यहां यह याद रखना चाहिये कि भगवान् शान्तिनाथ 'कामदेव, पदवीके भी धारक थे ॥६६॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ समन्तभद्र-भारती ( मुरजबन्धः ). त्रयोलोकाः स्थिताः स्वैर योजनेधिष्ठिते' त्वया । भूयोन्तिकाः श्रितास्तेरं राजन्तेधिपते श्रिया ॥७०॥ त्रय इति-त्रयोलोकाः भवनवासिव्यन्तरज्योतिप्ककल्पवा सिमनुष्यतियञ्चः । स्थिताः स्वैरं स्वेच्छया योजने सगम्यूतियोज नचतुष्टये। अधिष्ठिते अध्यासिते । त्वया युष्मदो भान्तस्य रूपम् । भूब बाहुल्येन पुनरपि वा। अन्तिकाः समीपस्थाः। श्रिताः आश्रिताः ।। तव । अरं प्रत्यर्थम् । राजन्ते शोभन्ते । अधिपते परमात्मन् । त्रिय लक्षम्या । समुच्चयार्थ:-हे भट्टारक त्वया अधिष्ठिते योजनमा त्रयो लोकाः स्वैरं स्थिताः भूयोऽन्तिकाः श्रिताः सन्तः ते अधिपते भिया । राजन्ते ॥ ७० ॥ अर्थ-हे स्वामिन् ! आप जिस समवसरणमें विराजमान हुए थे उसका विस्तार यद्यपि साढ़े चार योजनमात्र था तथा उसमें भवनवासी ब्यन्तर ज्योतिषी कल्पवासी मनुष्य तिर्य आदि तीनों लोकोंके जीव बहुत ही स्वच्छन्दताके साथ बैठ जाते थे। और जो आपके समीप आकर आपका आश्रय लेते हैंआपका ध्यान करते हैं-वे शीघ्र ही आप जैसी उत्कृष्ट लक्ष्मी सुशोभित होते हैं-आपके समान परमात्मपदको पा ले। हैं ।। ७०॥ १ यद्यपि श्लोकंमें 'योजने' यह सामान्य पद है तथापि 'द्वादशयो जनतस्ताः क्रमेण चाद्धार्धयोजनन्यूनाः । तावद्यावन्नेमिश्चतुर्थभागोनिता परतः' (समवसरण स्तोत्रे, विष्णुसेनः ) श्रादि प्रसिद्ध उल्लेखोंसे सा पार योजन अर्थ लेना चाहिये। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या (मुरजबन्धः ) परान् पातुस्तवाधीशो बुधदेव भियोषिताः । दूराद्धातुमिवानीशो निधयोवज्ञयोज्झिताः ॥७॥ परेति-परान् पातुः अन्यान् रक्षकस्य । तव ते । अधीशः स्वामिनः बुधानां पण्डितानां देवः परमात्मा बुधदेवः तस्य सम्बोधनं हे बुधदेव सत्यपरमात्मन् । भिया भयेन । उषिता स्थिताः 'वस निवासे इत्यस्य धोः क्तान्तस्य कृताजित्वस्य रूपम् । दूरात् दूरेण हातुमिव त्यक्तुमिव । अनीशाः असमर्थाः निधयः निधानानि । अवज्ञयोज्झिता: अनादरेण स्यक्ताः । अस्य एवं सम्बन्धः कर्तव्यः-हे देवदेव परान् पातु: तवाधीश: त्वया निधयोऽवज्ञया उज्झिता: भिया दूरेण उषिताः त्वा हातुमिव अनीशाः ॥७॥ __ अर्थ हे विद्वानोंके देव-सर्व श्रेष्ठ ज्ञाता-सर्वज्ञ ! आप अन्य समस्त प्राणियोंके रक्षक और स्वामी हैं। आपने जिन नौ निधियोंको तुच्छ समझकर अनादरके साथ छोड़ दिया या वे निधियां आपको छोड़नेके लिये असमर्थ होकर मानों भयसे ही दूर दूर निवास कर रही हैं। ___ भावार्थ-भगवान् शान्तिनाथ तीर्थंकर और कामदेवपदके सिवाय चक्रवर्ती पदके भी धारक थे-राज्य-अवस्थामें वे निधियों और १४ रत्नोंके स्वामी थे। जब वे संसारसे उदास होकर दीक्षा लेने लगे तब उन्होंने निधियों और रत्नोंको अत्यन्त तुच्छ समझकर अनादरके साथ छोड़ दिया था। तीर्थ करके समवसरणमें जो गोपुर द्वार होते हैं उनके दोनों तरफ अष्ट मङ्गल द्रव्य और नौ निधियां रखी होती हैं । गोपुरद्वार भगवान्के सिंहासनसे काफी दूर होते हैं इसलिये उनके पास रखो हुई निधियां भी भगवानसे दूर कहलाई। यहां आचार्य समन्तभद्र उत्प्रेक्षा करते हैं कि भगवान्ने जिन निधियोंको अनादरके Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती साथ छोड़ दिया था वे ही निधियां अन्य रक्षक न देखकर भगवान्को ही सबका (सबके साथ अपना भो) स्वामी समझा मानों उन्हें नहीं छोड़ना चाहतीं परन्तु उनके द्वारा किये। अपमानको याद कर वे गोपुरके बाह्य द्वारपर ही सहम कर के गई जान पड़ती थी-वेभगवानके दिव्य तेजसे मानों डरगई। इसलिये उनसे दूर ही निवास कर रही थीं। जो पदार्थ जिस रक्षामें बहुत समय तक रहा हो और उसके द्वारा उसका का उपकार भी हुआ हो यदि वह आदमी वैराग्यभावसे स्नेह घटा के लिये उसे छोड़ देवे-उसको रक्षा करना स्वीकार न करे, कि बाद में वही पुरुष किन्हीं अन्य पदार्थों की रक्षा करना स्वीक करले और उनकी रक्षा करने भी लगे तो पहले छोड़ा हु पदार्थ विचार करेगा कि 'इस आदमीका हृदय अमी रक्षक का मार लेनेसे विरक्त नहीं हुआ है। यदि सचमुच में वित हुआ होता तो मुझे छोड़ अन्य पदार्थों की रक्षा क्यों कर लगता' । इस तरह वह छोड़ा हुआ पदार्थ अपने रक्षकके हृद में अपने लिये गुंजाइश देखकर फिरसे उसके पास पहुंचता परन्तु अपने साथ किये हुए उसके रूखे व्यवहारसे वह सह जाता है। प्रकृतमें-शान्तिनाथस्वामीने दीक्षा कालमें उन निधियोंको छोड़ा था जिनके बल बूतेपर उन्होंने अप साम्राज्य षट्खण्ड भरतक्षेत्र में विस्तृत किया था परन्तु इ छोड़कर इनकी रक्षा का भार त्यागकर-वे सर्वथा उस अनुरा से रहित हो गये थे यह बात नहीं कि तु अन्यको-निधियों अतिरिक्त दूसरे पदार्थों की रक्षा करने लगे थे ( पक्षमें से जीवोंकोमोक्षमार्गका उपदेशदेकर जन्ममरणकेदुःखोंसे बचाने के थे)।रक्षा ही नहीं करने लगे थे किन्तु रक्षाकी सामर्थ्यसे सहित थे इन दोनों बातों को प्राचार्यने 'परान् पातुः' और 'अधोशः' । विशेषणोंसे निर्दिष्ट किया है । नौ निधियां सोचती हैं कि "भगवान Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या ८७ wwnwrmanen का राग यदि वास्तव में घटा होता तो ये ह... समान किसी अन्यके भी रक्षक न होते परन्तु ये अन्य समस्त प्राणियोंकी रक्षा कर रहे हैं और उसमें समर्थ भी हैं-हमारे रहते हुए भी ये अपने वैराग्यभावको सुस्थिर रख सकते हैं, क्योंकि बाह्य पदार्थ ही तो वैराग्यभावको लोपनेवाले नहीं है। हमारे सिवाय छत्रत्रय, चमर, सिंहासन, भामण्डल आदि विभूतियां भी तो इनके पास हैं, इन सबके रहते हुए भी इनके वैराग्यभावका लोप क्यों नहीं होता ? इससे स्पष्ट मालूम होता है कि ये हर एक तरहसे अधीश हैं-अपने भावोंके नियन्त्रण करने में समर्थ हैं। फिर हमें क्यों छोड़ा ? इनके सिवाय दूसरा और रक्षक भी नहीं है । यदि हम पुनः इनकी शरणमें जावें तो हमें ये अपनालेंगे, क्यों कि अभी इनके हृदयसे अनुराग नष्ट नहीं हुआ है" बस यही सोचकर और अपने लिये गुजाइश देखकर निधियां समवसरणमें उनके पास पहुँचना चाहती हैं परन्तु ज्यों ही उन्हें पूर्वकृत अना. दरका खयाल आजाता है-'फिर भी वही हाल न हो' ऐसा भाव उत्पन्न हो जाता है-त्यों ही वे गोपुरद्वार पर ठहर जाती है। कितनी गम्भीर है उत्प्रेक्षा और कविकी सूझ ? ( अभी इनका अनुराग नष्ट नहीं हुआ है इत्यादि उद्धरणोंसे भगवानको सरागी मत समझलेना। क्योंकि उत्प्रेक्षालंकारके कारण वैसी कल्पना करनी पड़ी है। उत्प्रेना हमेशा कल्पित होती है-उसमें सत्यांश नहीं होता)। समवसरणमें निधियोंका सद्भाव अन्य शास्त्रोंसे भी स्पष्ट हैं। ||७|| ' बाह्याभ्यन्तरदेशे षट्त्रिंशद्गोपुराः सन्ति । द्वारोभयभागस्था मङ्गलनिधयः समस्तास्तु ॥१०॥ संवाटकमृङ्गारच्छत्राब्द-व्यजन-शक्ति-चामर कलशाः । मङ्गलमष्टविध स्यादेकैकस्याष्टशतसंख्या ॥५॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स समन्तभन्द्र-भारती _(पादादिश्मकश्लोक:) समस्तपतिभावस्ते समस्तपति' तद्विषः । संगतोहीन भावेन संगतो हि न भास्वतः ॥७२॥ समस्तेति-समस्तपतीति प्रथमपादे यद्वाक्यं तद्वितीयपा। पुनरुच्चारितं । संगतोहीनभेति तृतीयपादे यद्वाक्यं तच्चतुर्थपादेपि पुत्र चारितम् यत: ततः पादादियमकः । समस्तानां निरवशेषाणां पतिभावः स्वामित्वं समस्तपतिभा विश्वपतित्वम् । ते तव । समः समानः । तपति सन्तापयति । तद्धि तस्य समस्तपतिभावस्य द्विषः शत्रवः तद्विषः तान् तद्विषः तच्छन, हे संगतोहीन परिग्रहच्युत । भावेन स्वरूपेण । संगतः संश्लिष्ठः । स्फुटम् । न प्रतिषेधे । भास्वतः दिनकरस्य । समुदायस्पार्थ:-हे संग हीन समस्तपतिभावस्ते समोपि तथापि तपति तद्विषः यस्मात् के भास्वतोभावेन न संगतो हि स्फुटम् ॥७२॥ प्रत्येकं साष्टशते ताः काल-महाकाल-पाण्डु-माणवशङ्खाः । नैसर्प-पद्म-पिङ्गल-नानारत्नाश्च नवनिधय: ॥१२॥ ऋतुयोग्य-वस्तु-भाजन-धान्यायुध-तूर्य-हर्म्य-वस्त्राणि । श्राभरण-रत्ननिकरान् क्रमेण निधयः प्रयच्छन्ति ॥५३॥ -~-विष्णुसेनविरचितसमवसरण स्त्रोत्र । १ ताति प्रकाशते, विवक्षया धातोरकर्मकत्वम् । २ तस्य द्विषः तद्विषोऽन्धकारादयः सन्तीति शेषः । अथ तस्य समस्तपतिभावस्य द्विषः शत्रवो-रागादयोऽन्धकारादयश्च तानि द्वितीयान्तपाठपक्षे तपतेः सकर्मकत्वम् । ते भास्वतश्च सम्मस्तपतिभाव समः सन् तद्विषस्तपति किन्तु त्वया निःशेषितास्ते, तस्स च सावशेषास इत्युपरितो योजनीयम् । ३ 'संगत:-परिग्रहत: हीनो रहितस्तत्समुदौ ।' 'संगत:+ग्रहीन भावेन', 'संगतः हीनभावन', 'संगत:+हि+इनभावेन' इति बहवोऽर्थाः Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या अर्थ- हे परिग्रहरहित भगवन् ! यद्यपि समस्तपतिभावसर्वस्वामित्व आपमें और सूर्य में समानरूपसे प्रकाशमान हैजिस तरह आप समस्त जगत् के स्वामी हैं उसीतरह सूर्य भी समस्त जगत्‌का स्वामी है, फिर भी आप सूर्यके स्वरूपसे संगत नहीं हैं - सूर्य आपको बराबरी नहीं कर सकता । क्योंकि आपने अपने कर्मशत्रुओं को सर्वथा नष्ट कर दिया है इस लिये आप अहीनभावेन संगत - उत्कृष्टतासे सहित - हैं । परन्तु सूर्य के अन्धकार आदि शत्रु अब भी विद्यमान हैं - गुफा आदि तिरोहित स्थानों तथा रात्रि में अब भी अन्धकार रहा आता है। इसलिये वह 'हीनभावेन संगतः - श्रनुत्कृष्टतासे संगत है। सूर्य ज्योतिष्क- देवों में सबसे उत्कृष्ट-इन्द्र नहीं किन्तु प्रतीन्द्र है, इसलिये आप समस्त पतिभावकी अपेक्षा 'इनभावेन संगत:'सूर्य के समान होने पर भी शत्रु, सद्भाव तथा हीनभावकी अपेक्षा उसके समान नहीं हैं । › भावार्थ - कई लोग कहा करते हैं कि समवसरण में विराज मान जिनेन्द्रदेवको प्रभा कोटिसूर्य के समान होती है परन्तु आचार्य समन्तभद्रको उनका वह कहना पसन्द नहीं आय। इसलिये उन्होंने उक्त व्यतिरेकसे सूर्य और भगवान् शान्ति नाथमें वैसादृश्य सिद्ध करनेका सफल प्रयत्न किया है ||७२|| ( मुरजबन्धः ) नयसत्त्वत्त' वः सर्वे गव्यन्ये चाप्यसंगताः । श्रियस्ते त्वयुवन् सर्वे दिव्यर्द्धया चावसंभृताः ॥७३॥ τε नयेति - नया: नैगमादयः । सत्वाः अहि-नकुलादयः । ऋतवः प्रावृट् प्रभृतयः । नयाश्च सत्वाश्च ऋतवश्च मयस्वचवः एते सर्वे परस्परं विरुद्धा | सर्वे समस्ताः । गवि पृथिव्याम् । न केवलमेते किन्तु श्रन्ये चापि ये विरुद्धा: असंगताः परस्परवैरिणः । श्रियः माहात्म्यात् । ते । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० समन्तभद्र-भारती •.new. ... ... ... ......... ~ aamrwwwwwwwwwwwwwwwwwwwxi तव । तु प्रत्यर्थे । अयुवन् संगच्छन्ते स्म । यु मिश्रणे इत्यस्य धोः लङ्न्तस्य रूपम् । सर्वे विश्वे । दिव्या च दिवि स्वर्गे भवा दिव्या, दिव्या चासौ ऋद्धिश्च दिव्यद्धिः तय दिव्यद्ध देवकृतव्यापारणेत्यर्थः । अवसंभृताः निष्पादिताः कृता इत्यर्थः । किमुक्तं भवति-हे शान्तिनाथ ते श्रियः तव माहात्म्यात् गवि पृथिव्यां नयसत्त्वत्तवः सर्वे अन्ये चाप्यसंगताः एते सर्वे प्रत्यर्थ अयुवन् संगतीभूताः केचन पुनर्दिव्याय च अवसंभृताः संगतीकृताः एतदेव तव माहात्म्यम् नान्यस्य ॥७३॥ . अर्थ-हे प्रभो द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक अथवा नैगमाविक नय, नेवला सर्प आदि प्राणी और वसन्त ग्रीष्म आदि ऋत. ये सब तथा इनके सिवाय और भी जो पृथिवीपर परस्पर विरोध, पदार्थ हैं-परस्परमें कभी नहीं मिलते वे सब आपके प्रभावसे-माहा. म्यसे--एक साथ संगत होगये थे-आपसके विरोधको भूल कर मिल गये थे। तथा कितने ही अन्य कार्य देवोंकी ऋद्धिसे निष्पन्न किये गये थे। ____भावार्थ-द्रव्यार्थिक नय जिस वस्तुको नित्य बतलाता है पयोयार्थिक नय उसी वस्तु को अनित्य बतलाता है । व्यवहार नय जिन कार्योंको धर्म बतलाकर उपादेय कहता है निश्चय नय उन्हीं कार्योंको अधर्म-आस्रवका कारण बतलाकर हेय कहता है। इस प्रकार नयोंमें परस्पर विरोध रहता है परन्तु नयोंका यह विरोध उन्हींके पास रहता है जो कि एकान्तवादी हैं-एक नयको ही सब कुछ मानते हैं । जिनेन्द्रदेव स्याद्वादनयके प्ररूपक हैं वे विवक्षासे सब नयोंको मानते हैं इसलिये उनके सामने नयों का विरोध दूर हो जाता है और वे मित्रकी तरह परस्परमें सापेक्ष रहकर संसारके कल्याणकारक पदार्थ होजाते हैं।' १ नित्यं तदेवेदमितिप्रतीतेन नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्ध। ___ न तद्विरुद्ध बहिरन्तरङ्गनिमित्तनैमित्तिकयोगतस्ते " Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या ___सर्प-नेवला, मूषक-मार्जार, गो-व्याघ्र आदि ऐसे जानवर हैं जिनका जन्मसे ही परस्पर वैर होता है वे आपसमें कभी नहीं मिलते । यदि कदाचित् मिलते भी हैं तो उनमें जो निर्बल होता है वह सबल के द्वारा नष्ट कर दिया जाता है । परन्तु जिनेन्द्र देवका यह अतिशय होता है कि उनके पास रहनेवाले जन्तु परस्परका वैर भूल जाते हैं-वास्तवमें उनका शरीर इतना सौम्य शान्तिमय और आकर्षक होजाता है कि उनके पास विचरने वाले प्राणी आपसके वैरको छोड़कर परस्परमें प्रेम और प्रीतिसे विह्वल होजाते हैं इसलिये आचार्यने ठीक ही लिखा है कि आपके सामने परस्परके विरोधी जीव भी मिल जाते हैं।' एक वर्षमें वसन्त ग्रीष्म वर्षा शरद् हेमन्त और शिशर ये छह ऋतुएँ होती हैं। इनका समय क्रमसे चैत्र वैशाख, ज्येष्ठ आषाढ, श्रावण भाद्रपद, आश्विन कार्तिक, मार्गशोर्ष पौष, और माघ फाल्गुन, इसतरह दो-दो मासका निश्चित है। वर्ष में मास परिवर्तन क्रमशः होता है अतः ऋतुओंका परिवर्तन भी क्रमशः होता है । एक साथ न मिलनेके कारण ऋतुओंमें परस्पर विरोध कहलाता है; परन्तु जिनेन्द्रदेव जहां विराजमान होते हैं वहां छहों ऋतुए एक साथ प्रकट हो जाती हैं-छहों ऋतुओं की शोभा दृष्टिगत होने लगती है। इसलिये आचार्यने जो कह 'य एव नित्यक्षणिकादयो नया मिथोनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः । त एव तत्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ॥' .. -स्वयंभूस्तोत्र, समन्तभद्राचार्यः । सारङ्गो सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं मार्जारो हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजकोम् । पैराण्या न्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवोऽन्ये त्यजन्ति श्रित्वा साम्यैकरून प्रशमितकुलु पोगिक पीयमोहम् ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ समन्तभद्र-भारती है कि परस्पर विरोधी ऋतुएं आपके माहात्म्यसे एक स्थानमें एक साथ प्रकट हो जाती हैं वह उचित ही है। इनके सिवाय कुछ और अतिशय-चमत्कार भी जिनभक्ता देवताओंके द्वारा प्रकट किये जाते हैं जो ये हैं-अर्धमागधी भाषा, दिशाओं का निर्मल होना, आकाशका निर्मल होना, चलने समय भगवान्के चरणकमलोंके नीचे सुवर्ण-कमलोंकी रचना होना, आकाशमें जय-जय ध्वनि होना, मन्द-सुगन्धितफ्वनका चलना, सुगन्धमय जलको वृष्टि होना, पृथिवीका कंटक-रहित होना, समस्त जीवोंका आनन्दमय होना, भगवान्के आगे धर्म चक्रका चलना और छत्र चमर आदि मंगल द्रव्योंका साथ रहना । श्लोकमें जो 'च' शब्द है उसको अवधारणार्थक माननेसे यह अर्थ ध्वनित होता है कि ऐसा माहात्म्य आपका ही है अतः सर्वतो महान् आप ही-आप जैसे ही-हैं अन्य नहीं ।।७३।। (मुरजबन्धः ) तावदास्व त्वमारूढो भूरिभूतिपरंपरः । केवलं स्वयमारूढो हरि ति निरम्बरः ॥७४॥ तावदिति-तावत् तदः वत्वं तस्य कृतात्वस्य रूपम् । आस्व तिष्ठ । पास उपवेशने इत्यस्य धोर्लोडन्तस्य प्रयोगः । तावदास्वेति किमुक्तं भवति तिष्ठ तावत् त्वं युष्मदो रूपम् । प्रारूढः प्रख्यातः । भूरिभूतिपरंपरः भूरयश्च ताभूतयश्च भूरिभूतयः तासां परंपरा यस्यासी भूरिभूतिपरंपरः बहुविभूतिनिवास इत्यर्थः । केवल किन्तु इत्यर्थः । स्वयमारूढः स्वेनाध्यासितः । हरिः सिंहः । भाति शोभते। निरम्बरः वस्त्ररहितः । किमुक्तं भवति- हे भट्टारक त्वं तावदास्त्र भूरिभूतिपरंपरः निरम्बर इति कृत्वा यस्त्वारूढः ख्यातः सः किन्तु त्वयारूढः हरिरपि भाति त्वं पुनः शोभसे किमत्र चित्रम् ॥७॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या अर्थ- हे भगवन् ! भाप अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख-वीयरूप अन्तविभूति तथा अष्ट प्रातिहार्यरूप बहिरङ्ग विभूविसे विभूषित साथमें निरम्बर भी हैं-वस्त्रशून्य हैं अर्थात् इतने निर्धन हैं कि आपके पास एक वस्त्र भी नहीं है । अतः आपको सुशोभित कहने|कुछ आश्वयंसा मालूम होता है; परन्तु यह निश्चित है कि पाप जिस प्रसिद्ध सिंहासनपर आरूढ-विराजमानहोते हैं वह अत्यन्त सुशोभित होने लगता है-सिंहासनकी शोभा आपके विराजमान होनेसे बढ़ती है अत: आपके सुशोभित होनेमें कोई आश्चर्य नहीं है। . | भावार्थ-'वह आदमी इतना निर्धन है कि उसके पास पहिननेको एक कपड़ा भी नहीं है। इन शब्दोंसे लोकमें निर्धनताकी सीमाका वर्णन किया जाता है। भगवान् शान्तिनाथके शरीर पर भी एक कपड़ा नहीं था इसलिये लौकिक दृष्टिसे उन्हें सम्पन्न कैसे कहा जावे ? परन्तु वे अनन्तचतुष्टयरूप सच्ची सम्पदा तथा प्रातिहार्यरूप देवरचित विभूतिसे विभूषित थे अतः उनको असम्पन्न भी कैसे कहा जावे ? इन दोनों विरुद्ध मातोंके रहते हुए भगवान् शान्तिनाथको सम्पन्न अथवा सम्पन्नका निर्णय देनेमें आचार्यको पहले कुछ अड़चनका सामना करना पड़ता है; परन्तु जब उनकी दृष्टि सिंहासनपर पड़ती है और वे सोचते हैं कि यह सिंहासन सुवर्ण-निर्मित तथा इलजड़ित होनेपर भी जब भगवान्से रहित होता है तब इसकी सूर्यरहित उदयाचलकी तरह प्रायः कुछ भी शोभा नहीं होती। और सिंहासन जब भगवानसे अधिष्ठित होता है तब इसकी शोभा ठीक उसी तरह बढ़ जाती है जिस तरह कि शिखरपर अरुण दिनकर-बालसूर्यके प्रारूद होनेपर उदयाचलकी बढ़ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ समन्तभन्द्र-भारती जाती है। इससे मालुम होता है कि यदि भगवान् स्वयं सम्प या सुशोभित न होते तो उनके आश्रय से सिंहासन सम्पन्न य सुशोभित कैसे होता ? तब इस प्रकार सोचनेसे तर्क प्रधा आचार्यको निर्णय हो जाता है कि वास्तव में भगवान् शान्तिनाएं अत्यन्त शोभायमान अथवा सम्पन्न पुरुष हैं। यह सिंहासन प्रतिहार्य का वर्णन है ||७४|| ( मुरजबन्धः ) नागसे ते इनाजेय कामोद्यन्महिमार्द्दिने । जगत्त्रितयनाथाय नमो जन्मप्रमाथिने ॥७५॥ नागेति – नागसे' श्रविद्यमानापराधाय । नञ् प्रतिरूप कोयमन् नकारस्ततो नजो नित्यमनादेशो न भवति । ते तुभ्यम् । इन स्वामिन् अजेय अजय्य । उद्यती चासौ महिमा च उद्यन्महिमा कामस्य स्मरस्व उद्यन्महिमा तामई यति हिंसयतीत्येवंशीलः कामोद्यन्महिमाह तस्मै कामोद्य महिमार्दिने रागोद्रेकमाहात्म्यहिंसिने । जगत्रितयनाथाय जगता त्रितयं जगत् त्रितयस्य नाथः स्वामी जगत्रितयनाथः तस्मै जगत्रितय नाथाय त्रिभुवनाधिपतये नमः कि संज्ञकोयं शब्दः पूजावचनः । जन्म प्रमाथिने जन्म संसारः तत् प्रमथ्नाति विनाशयतीति जन्मप्रमाथी तस्मै जन्मप्रमाथिने जन्मविनाशिने । समुदायार्थ :- हे शान्तिनाथ इन अजेय से तुभ्यं नमः कथंभूताय तुभ्यं नागसे कामोद्यन्महिमार्द्दिने जगत्रितयनाथाय जन्मप्रमाथिने || १५ ॥ अर्थ- हे स्वामिन्! हे अजेय ! आप अपराध-रहित हैंनिष्पाप है, कामकी बढ़ती हुई महिमाको नष्ट करनेवाले हैं। तीनों लोकोंके स्वामी हैं और जन्ममरणरूप संसारको नष्ट करने वाले हैं, अतः हे शान्तिनाथ भगवन्! आपको नमस्कार हो ।।७४ १ आगः पापं, न विद्यते श्राग: यास्यासौ नागाः तस्मै नागसे । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविधा ( मुरजबन्धः रलोकयमकालंकारश्च ) रोगपातविनाशाय तमोनुन्महिमायिने । योगख्यातजनार्चाय श्रमोच्छिन्मंदिमासिने ॥७६॥ रोगेति - श्लोक द्वितयम् । श्रयमेव श्लोको द्विवारः पठनीयो द्वोघा ख्येयश्चेति कृत्वा श्लोकयमक इति भावः । रोगाः व्याधयः पाताः पातकानि कुत्सिताचरणानि, रोगाश्च पाताश्च पाताः तान् विनाशयतीति रोगपातविनाशः तस्मै रोगपातविनाशाय । हुलवचनात् कर्त्तरि श्रङ घञ् वा । तमः श्रज्ञानं तत् नुदतीति तमोत् श्रज्ञानइन्तेत्यर्थः । महिमानं माहात्म्यं पूजां श्रयते गच्छत्येवंशील : शीलार्थे णिन् महिमायो । तमोनुञ्चासौं महिमायी च तमोनुन्महिमावी स्मै तमोनुन्महिमायिने । योगेन ध्यानेन शुभानुष्ठानेन ख्याताः प्रख्याताः वेगख्याता योगख्याताश्च ते जनाश्च योगख्यातजनाः योगख्यात जनान: वर्षा पूजा सत्कारः यस्यासौ योगख्यातजनाच' : गणधरादिपूज्य इत्यर्थः । रथवा योगख्यातजनैरर्च्यः इति योगख्यातजनार्च: तस्मै योगख्यातजर्थाय । श्रमः स्वेदः तं उच्छिनत्ति विदारवतीति श्रमोच्छित् । मन्दिमा दुत्वं सर्वदयास्वरूपं तस्मिन् श्रास्ते इति मन्दिमासी । श्रमोच्छिन् चासौ न्दिमासी व श्रमोच्छिन्मन्दिमासी तस्मै श्रछोच्छिन्मन्दिमासिने । इन ते म: इत्येतदनुवर्त्तते । तैः एवमभिसम्बन्धः कर्त्तव्यः - हे शान्तिभट्टाक इन स्वामिन् ते तुभ्यं नमोस्तु किं विशिष्टाय तुभ्यं रोगपातविनाशाय लरपि किं विशिष्टाय तमोनुन्महिमायिने पुनः योगख्यातजनार्थाय श्रम - मन्दिमासिने ॥७६॥ ६५ ܢ अर्थ- हे भगवन् ! आप अनेक रोग तथा पापको नाश करने ले हैं। आपने अज्ञानरूपी अन्धकारको नष्ट कर दिया है । आपकी बड़ी महिमा है । योगियों में प्रसिद्ध गणधरादि देव आपकी पूजा करते हैं। आप खेद स्वेद आदि दोषोंको नष्ट करने Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ समन्तभद्र-भारतो wrim .wmarrrrrrrrrrrrrrrrrr वाले हैं तथा अत्यन्त मृदुताको प्राप्त हैं-दयालु हैंश्रापको नमस्कार हो ॥७६|| (मुरजबन्धः श्लोकयमकालंकारश्च ) रोगपातविनाशाय तमोनुन्महिमायिने । योगख्यातजनाचायः श्रमोच्छिन्मन्दिमासिने ॥७७॥ रोगपेति-रोग: भंगः परिभवः तं पातयति घातयतीति ' एयण' रोगपातः । वि विनष्टः ध्वस्तः नाशः संसारपर्यायो यस्य देवविय पस्यासौ विनाशः। रोगपातश्चासौ विनाशश्च रोगपातविनाशः तस रोगपातविनाशाय । तमः तिमिरं अलोकाकाशं वा, कुतः-'अपो शब्दलिंगाभ्यां यतः' तमाशब्देन किमुच्यते पालोकाभावः करिता अत आह अलोकाकाशे, ततस्तमाशब्देन अलोकाकाशस्य ग्रहणमा नुत् प्रेरणं अथवा चतुर्गतिनिमित्तं यत्कर्म तत् नुत् इत्यच्यते तार र्थ्यात्ताच्छब्द्यं भवति । महिः पृथिवीलोकः जीवादिद्रव्याणि इस्या इकारान्तोपि महिशब्दो' विद्यते। तमश्च नुस्च महिश्च तमोनुन्मह ता: मिनाति परिच्छिनत्तीति तमोनुन्महिमायी तस्मै तमोनुन्महिमायिने यः यदः वान्तस्य रूपम् । अगः पर्वतः ख्यातः प्रख्यातः प्रधानः,अगवा ख्यातश्च अगख्यातः मन्दर इत्यर्थः । जनानां इंद्रादीनां अर्चा पूर्व जनार्चा, अगख्याते जनार्चा अगख्यातजनार्चा, तां श्रयते गच्छतो अगख्यातजना यः । श्रमः क्लेशः उच्छित् उच्छेदः विनाशः । मन्दिन जाड्यं मूर्खत्वम्, श्रमश्च उच्छिच्च मन्दिमा च श्रमोच्छिन्नमन्दिमानः ता अस्यति क्षिपतीति अमोच्छिन्नमन्दिमासी तस्मै श्रमोच्छिन्मन्दिमासिने किमुक्त भवति-अगख्यातजनार्चायः यः सः त्वं हे शान्तिभट्टारक अ स्तुभ्यं नमोस्तु । किं विशिष्टाय तुभ्यं रोगपातविनाशाय तमोनुन्महिमाथि श्रमोच्छिन्मन्दिमासिने ॥ ७७ ॥ अर्थ-हे भगवन् ! आप पराभवको नष्ट करने वाले हैं५. महिः सर्वसहा मही इति वैजयन्ती। anand m Sarit Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या आपका कोई पराभव नहीं कर सकता अथवा आपने आत्माका राभव करनेवाले कर्मसमूहको नष्ट करदिया है। श्राप नाशसे मृत्युसे) रहित हैं, अलोकाकाश, चतुर्गतिभ्रमणके कारण कर्मब्ज, तथा षड़द्रव्यात्मक पृथिवीलोकको जाननेवाले हैं। इन्द्रादि. वों द्वारा प्रसिद्ध मेरुपर्वतपर की हुई पूजाको प्राप्त हैं औरक्लेश, बिनाश तथा जड़ताको नष्ट करने वाले हैं, अतः आपको नमकार हो ।। ७७॥ (मुरजबन्धः) प्रयत्येमान् स्तवान् वश्मि' प्रास्तश्रान्ताकृशातये । नयप्रमाणवाग्रश्मिध्वस्तध्वान्ताय शान्तये ॥ ७८ ॥ प्रयत्येति-प्रयस्य प्रयस्य प्रकृत्य । इमान् एतान् । स्तवान तीः । वश्मि वच्मि । कृशा तन्वी न कृशा अकृशा महतो। अतिः नीडा अकृशा चासो अर्तिश्च अकृशातिः । प्रान्ताः दुःखिताः । गन्तानां अकृशार्तिः श्रान्ताकृशाति: । प्रास्ता ध्वस्ता श्रान्ताकृशार्ति. नासौ प्रास्तवान्ताकृशार्तिः तस्मै प्रास्तश्रान्ताकृशातये। नयाश्च प्रमाणे । नयप्रमाणानि नयप्रमाणानां वाचः वचनानि नयप्रमाणवाचः । पप्रमाणवाच एव रश्मयो गभस्तयः नयप्रमाणवाग्रश्मयः तैयस्तं निरा ध्वान्तं येनासौ नयप्रमाणवाग्रश्मिध्वस्तध्वान्तः तस्मै नयप्रमाणवाग्रमध्वस्तध्वान्ताय शान्तये षोडशतीर्थ कराय । फिमुक्त भवति-शान्तये मान् स्तवान् प्रयत्य वचम्यहम् । किं विशिष्टाय शान्तये प्रास्तश्रान्ताकपतये नयप्रमाणवाग्रश्मिध्वस्तध्वान्तायेत्यर्थः ॥ ७८ ॥ अर्थ-मैं प्रयत्नपूर्वक अनेक स्तोत्रोंको रचकर उन शान्ति. प्रथ भगवानसे प्रार्थना करता हूँ--कुछ कहना चाहता हूं, जो दुःखी मनुष्योंकी बड़ी बड़ी पीड़ाओंको नष्ट करने वाले हैं। १ 'वस कान्तौ कान्तिरिच्छा। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती तथा जिन्होंने नय और प्रमाणोंके वचनरूप किरणोंसे लोग के अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट कर दिया है ।। ७८ ॥ (सर्वपादमध्ययमकः ) स्वसमान समानन्द्या भासमान स मानधः । ध्वंसमानसमानस्तत्रासमानसमानतम् ॥ ७९ ॥ स्वसेति-सर्वेषु पादेषु समानशब्दः पुनः पुनरुच्चारितो यतः स्वेन प्रात्मना समानः सदृशः स्वसमानः नान्येनोपम इत्यर्थः तस् सम्बोधनं स्वसमान । समामन्याः क्रियापदम्, सं श्राङ् पूर्वस्य टुनदिसत मृद्धावित्यस्य धो: लडन्तस्य रूपम् । भासमान शोभमान सः इति तद कृतात्वसत्वस्य रूपम् । मा अस्मदः इबन्तस्य प्रयोगः । अनघ न विद्या अघं पापं यस्यासावनघः तस्य सम्बोधनं हे अनघ घातिचतुष्टयरहित ध्वंसमानेन नश्यता समः समानः ध्वंसमानसमः नश्यत्समान इत्य अनस्तः प्रविनष्टः त्रासः उद्वेगः भयं यस्य तदनस्तत्रासं, मनः एवं मानसं स्वार्थिकः अण , अनस्तत्रासं मानसं यस्यासावनस्तत्रासमानसः | ध्वंसमानसमश्चासौं अनस्तत्रासमानसश्च ध्वंसमानसमानस्तत्रासमानस सं ध्वंसमानसमानस्तत्रासमानसम् । पानतं प्रणतम् । समुदायार्थःशान्तिभट्टारक स्वसमान भासमान अनघ परमार्थत्वेन ख्यातो यस्त्वं मा समानन्याः किं विशिष्टं मा ध्वंसमानसमानस्तत्रासमानसं भानवे महद्भक्त्या प्रणतम् ॥ ७६ ॥ ___अर्थ हे स्वसमान-अपने ही समान आप अर्थात् उपमासे रहित ! हे शोभमान ! हे निष्पाप ! शान्तिनाथ भगवन् ! आप मुझे समृद्धिसम्पन्न-ज्ञानदर्शनादिरूप आत्मसम्पत्तिसे पूर्णयुक्त कीजिये । मैं आपके चरणों में आनत हूं-मन-वचन-कायसे नमन स्कार करता हूं। मेरा मानसिक उद्घ ग यद्यपि नष्ट नहीं हुआ ... 'मा+अनघ' इतिच्छेदः मा मामित्यर्थः। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या स्याऽपि नष्टमानके समान होरहा है-अतः मुझे अपने ही समान समृद्ध कीजिये। । भावार्थ-यहां 'अनन्वयालङ्कार' से भगवान् शान्तिनाथके लिये 'स्वसमान' सम्बुद्धि विशेषण दिया है, जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि हे भगवन ! आप अपने ही समान हैं-अनुपम हैंसंसारमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसकी उपमा आपको दी जा सके । दूसरोंको समद्ध-सम्पन्न करने में आप अपना सानी (जोड़) नहीं रखते इसी लिये मैं आपके पास आया हूं । इसके सिवाय आप भासमान हैं-शोभायमान हैं-अपने कार्य में समर्थ हैं तथा हर एक तरहसे निष्पाप हैं-द्वष आदिसे रहित हैं । मेरे प्रति आपका कोई द्वेष नहीं है किन्तु निष्पाप होने के कारण मेरे ऊपर आपके हृदयमें दयालुताका उत्पन्न होना ही स्वाभाविक है। मेरा चित्त संसारके दुःखोंसे उद्विग्न है । यद्यपि मेरे चित्तका त्रास अभी ध्वस्त नहीं हुआ फिर भी ध्वंसमानके समान होरहा है, अतः उसके पूर्णतः ध्वस्त होनेमें सहायक हूजिये और इस तरह मुझ भक्तकी जो पूर्ण ज्ञानदर्शनादिरूप आत्मीय सम्पत्ति हैं उसे कृपया शीघ्र प्राप्त कराइये ||७|| (मुरजयन्धः ) सिद्धस्त्वमिह संस्थानं लोकाग्रमगमः सताम् । प्रोद्धत्त मिव सन्तानं शोकाब्धौ मग्नमंक्ष्यताम् ॥ ८ ॥ सिद्ध इति-सिद्धः निष्ठितः कृतकृत्यः । त्वं · भवान् । इह अस्मिम् । संस्थानं समानस्थानं सिद्धयोग्यस्थानं सिद्ध मित्यर्थः । लोकाग्रं त्रिलोकमस्तकम् । अगमः गतः गमे डन्तस्य रूपम् । सता पण्डितानां भव्यलोकानाम् । प्रोतुमिव उत्तारितुमिव । सन्तानं समूइम्। शोक एव अब्धिः समुद्रः शोकान्धिः दुःखसमुद्र इत्यर्थः तस्मिन् शोकाब्धौं। मग्नाः प्रविष्टाः मंच्यन्तः प्रवेष्यन्तः मग्नाश्च Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती मंच्यन्तरच मग्नमंचयन्तः तेषां मग्नमंचयताम् प्राप्तशोकानामित्यवं समुदायार्थ:-हे शान्तिनाथ यः इह सिद्धः त्वं संस्थानं लोकानं मना सतां मग्नमंच्यतां सन्तानं प्रोतुमिव। किमुक्त भवति-भट्टारका सिद्धिगमनं सकारणमेव 'परार्थे हि सतां प्रयत्नः ॥८॥ अर्थ-हे भगवन् ! यद्यपि आप इस लोकमें सिद्धकृतकृत्य-हो चुके थे तथापि आप लोकके अग्रभागरूप उत्त स्थानपर-सिद्धशिलापर-जा विराजमान हुए अतः आपका ये वहां जाना ऐसा मालूम होता है मानों दुःखरूप समुद्र में डूबे हु अथवा आगे डूबनेवाले भव्य जीवोंके समूहको उससे उद्घा करने के लिये ही हो। ___ भवार्थ-जैन शास्त्रों में किसी स्थानविशेषको मोक्ष नहीं मान है किन्तु आत्माकी सर्वकर्मरहित शुद्ध अवस्थाको ही मोक्ष मान हैं। जब आत्मासे सब कौंका सम्बन्ध छूट जाता है ता आत्मा एक समय मात्रमें त्रिलोकके ऊपर सिद्ध शिलापर पर जाता है। आत्माकी इस अवस्थाको ही सिद्ध, मुक्त अथक कृतकृत्य अवस्था कहते हैं। भगवान शान्तिनाथ भी कोंक क्षय होजानेसे इस मध्यम लोकमें ही सिद्ध होचुके थे फिर भी । तथागति स्वभाव होनेसे त्रिलोकके ऊपर जाकर विराजमान हुए थे। यहां प्राचार्थ समन्तभद्र उत्प्रेक्षालंकारसे वर्णन करते हैं कि भगवान शान्तिनाथका तीन लोकके अग्रभागरूप उच्च स्थानपर जो विराजमान होना है वह मानों दुःखरूपी समुद्र में डूबे हुए अथवा डूबनेवाले जीवोंके उद्धार करनेके लिये ही है। यह बात अब भी देखी जाती है कि कूप या तालाब वगैरहके ऊपर तट पर बैठा हुआ पुरुष ही उनमें पड़े हुए जीवोंको रस्सी वगैरह से निकालनेमें समर्थ होता है । स्वयं नीचे स्थानमें रहकर दूसरोंको नदी तालाब कुत्रा श्रादिसे नहीं निकाला जा सकता। श्लोकका सारांश यह है कि भगवान शान्तिनायको Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या १०१ मुक्त हुआ देखकर अन्य जीव भी अपने आपको मुक्तकरनेका प्रयत्न करते हैं ।। ८० ॥ . .. कुन्थु-जिन-स्तुतिः . (सर्वपादान्तयमकः) कुन्थवे सुमजाय ते नम्रयूनरुजायते । ना महीष्वनिजायते सिद्धये दिवि जायते ॥१॥ कुन्थवे इति-सर्वपादान्तेषु जायते इति पुनः पुनरावर्तितं यतः । कुन्थवे कुथुन्भट्टारकाय सप्तदशतीर्थकराय । सुमृजाय सुशुद्धाय । ते तुभ्यम् । मनः नमनशीलः विसर्जनीयस्ययत्वम्, ऊना विनष्टा रुजा व्याधिर्यस्य स उनरुजः उनरुज इव प्रात्मानमाचरतीति उनरुजायते । ना पुरुषः । महीषु पृथिवीषु । हे अनिज निश्चयेन जायते इति निजः न निजः अनिजः तस्य सम्बोधनं हे अनिज । अयते गच्छति । सिद्धये मोक्षाय गत्यर्थानाम । दिवि स्वर्ग । जायते उत्पद्यते । णमु प्रवत्वे शब्दे इत्यस्य धोः प्रयोगे विकल्पेनाए प्रभवति । वक्तव्येन समुदायार्थ:-हे अनिज ते तुभ्यं कुन्थवे सुमृजाय नम्रः ना पुरुषः इह लोकेषु उनरुजायते अयते सिदये दिवि स्वर्गे जायते ॥८॥ ___ अर्थ- हे अनिज ! हे जन्म-मरणरहित कुन्थुनाथ जिनेन्द्र ! आप अत्यन्त शुद्ध हैं। जो पुरुष आपको नमस्कार करता है वह पृथिवी-लोकमें सब तरहके रोगोंसे रहित होता है और परलोकमें मुक्तिको प्राप्त करता अथवा स्वर्गमें उत्पन्न होता है ॥१॥ (मुरजबन्धः) यो लोके त्वा नतः सोतिहीनोप्यतिमय॑तः । बालोपि त्वा श्रितं नौति को नो नीतिपुरुः कुतः ॥१२॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समन्तभद्र-भारती यो लोके इति-यः कधित् । लोके भुवने । त्वा युष्मदः इ म्तस्य रूपम् । नतः प्रणतः । सः तदः पान्तस्य रूपम् । प्रतिहीनो प्रतिनिकृष्टोपि । अतिगुरुः महाप्रभुः भवति इत्यध्याहार्यम् । पर्व यस्मात् । बालोपि अज्ञान्यपि मूर्कोपि । त्वा कुन्थुभट्टारकं । श्रितं | माश्रयणीयम् । नौति स्तौति । को नो को न । नीतिपुरु: नीत्या बुद्ध पुरुः महान् । कुतः कस्मात् । संक्षेपार्थः-हे कुन्थुभट्टारक स्वाचितमि लोके योतिहीनोपि नतः सोतिगुरुर्यतः ततः बालोपि त्वा को न नौर नोतिपुरुः पुनः कुतो न नौति किन्तु नौत्येव ॥२॥ अर्थ-हे भगवन् ! आप सब जीवोंको आश्रय देने में समर्थ हैं। इस लोकमें जो पुरुष आपको नमस्कार करता है-स प्रकारसे आपका आश्रय ले लेता है-वह अत्यन्त हीन-निक अथवा नीच होनेपर भी अतिगुरु अतीव श्रेष्ठ अथवा उच्चहो जाता है । जब यह बात है तब हे प्रभो ! ऐसा कौन मूख अथवा नीतिज्ञ (बुद्धिमान ) मनुष्य होगा जो आपको नमस्कार कर आपके आश्रय अथवा शरणमें आना न चाहेगा ? प्रायो कोई भी ऐसा नहीं हो सकता जो आपका यथार्थ परिचय पाकर भी आपकी शरणमें न आये। भावार्थ-जिस कार्यका लाभ प्रत्यक्ष दीखता हो बुद्धिमान मनुष्य उसे अवश्य ही करते हैं । यहां 'जो अतिहीन अथवा अतिनीच है वह अति महान् अथवा अत्यन्त उच्च कैसे हो सकता है ?' इस तरह विरोध प्रकट होता है । परन्तु महापुरुषों के आश्रयसे विरुद्ध दिखाई देनेवाली बात भी अंनुकूल होजाती है अतः उस विरोधका परिहार हो जाता है। यह विरोधाभास अलंकार है ॥२॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुसिविल ( गतप्रत्यागता भागः) नतयात विदामीश शमी दावितयातन । रजसामन्त सन्देव वन्देसन्तमसाजर' ॥८३॥ नतेति-गतप्रत्यागतार्द्ध इत्यर्थः । नतः प्रणतः यातः गम्यः नतसातः तस्य सम्बोधनं हे नतयात । विदां ज्ञानिनां ईश स्वामिन् । शमी उपशान्तः । दावितं उपतापितं यातनं दुःखं येनासौ दावितयातनः वस्य सम्बोधनं हे दावितयातन । रजसा पापानां अन्त विनाशक । सन् भवन् । दव परमात्मन् । स्वामहमित्यध्याहार्यः सामर्थ्यलग्धो वा। वन्दे स्तौमि । न विधते सन्तमसं अज्ञानं यस्यासौ असन्तमसः तस्य सम्बोधनं हे असन्तमस । अजर जातिजरामृतिरहित । किमुकं भवति-हे कुथुस्वामिन् नत. यात विदामीश दावितयातन रजसामन्त देव असन्तमस अजर शमी शान्तः सन् स्वां बन्देऽहमिति सम्बन्धः ।।३।। ___अर्थ-हे नम्र मनुष्योंके द्वारा प्राप्य-ज्ञातव्य ! हे ज्ञानियोंके स्वामी केवलज्ञानी ! हे दुःखोंके दूर करनेवाले-अनन्तसुख सम्पन्न ! हे पापोंके विनाशक ! हे अज्ञानशून्य ! हे जरारहित कुन्थुनाथ जिनेन्द्र ! मैं अत्यन्त शान्त होता हुआ आपको वन्दना करता हूँ-कषायोंको शान्त करता हुआ आपके आगे नतमस्तक होता हूँ ॥३॥ (बहुक्रियापद-द्वितीयपादमध्ययमकाऽतालुव्यन्जनाऽवर्षस्वर गृढद्वितीयपाद सर्वतोभद्र-गतप्रत्यागताऽभ्रमः२) पारावाररवारापारा क्षमाक्ष क्षमाक्षरा । वामानाममनामावारक्ष मर्द्धर्द्धमक्षर ॥८४॥ . १ 'वन्दे+असन्तमस+अजर' इति सन्धिः । २ इसश्लोकमें 'अम' 'प्रव', 'रथ' इन अनेक छियानोंके होनेसे बहुक्रियापद', द्वितोयपदमें मार-धमाल' की प्रावृत्तिहोनेसे द्वितीय Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ समन्तभद्र-भारती परेति- बहुक्रियापदद्वितीयपादमध्ययम कातालुग्यञ्जन वर्णस्वर द्वितीयपादसर्वतोभद्रः । बहुकियापदानि - श्रम श्रव आरत । द्विती पादे समास इति मध्ये मध्ये आवर्त्तितम् । सर्वाणि श्रतालुग्यञ्जनानि श्रवर्णस्वराः सर्वेपि नान्यः स्वरः । द्वितीयपादे यान्यक्षराणि तान्यन्न त्रिषु पादेषु सन्ति यतः दतो गूढद्वितीयपादः । सर्वेः प्रकारैः पाठः समा इति सर्वतोभद्रः | पारावारस्य समुद्रस्य रवो ध्वनिः पारावाररवः पारावाररवं इ गच्छतीति पारावाररवारः तस्य सम्बोधनं पारावाररवार समुद्रध्वनिसह वाणीक । न विद्यते पारं अवसानं यस्याः सा श्रपारा श्रलब्धपर्यन्ता क्षमां पृथिवीं च्णोति व्याप्नोतीति क्षमाक्षः ज्ञानव्याप्तसर्वमेयः तस् सम्बोधनं हे क्षमात्र | क्षमा सहिष्णुता सामर्थ्यं वा । अक्षरा अविनश्वरा वामानां पापानाम् । श्रमन खनक । श्रम प्रीणय । अव शोभस्व । श्रार पालय । मा श्रस्मदः इबन्तस्य रूपम् । हे ऋद्ध वृद्ध । ऋद्ध ं वृद्धम् न चरतीत्यतरः तस्य सम्बोधन हे अक्षर । समुदायार्थः - हे कुन्थु ते चम नाथ, पारावाररवार क्षमाक्ष, वामानाममन, ऋद, अक्षर, श्रवरा अपारा यतः ततः मा ऋद्ध श्रम श्रव श्रारत । प्रतिभातिकस् वचनमेतत् ॥८४॥ अर्थ - हे प्रभो ! अपकी दिव्यध्वनि समुद्रकी गर्जना के समान अत्यन्त गम्भीर है। आप समस्त पदार्थों के जाननेवाले हैं। पादमध्ययमक', तालुस्थानीय - इवर्णं च य श अक्षरोंके होनेसे 'अतालुव्यञ्जन', केवल श्रवर्णस्वर के होनेसे 'अवर्णस्वर' प्रथम तृतीय और चतुर्थपादमें द्वितीय पादके गुप्त होनेसे 'गूढ द्वितीय पाद,' सब ओर से एक समान पढ़ेजानेके कारण 'सर्वतोभद्र,' क्रम और विपरीत क्रमसे पढ़े जानेके कारण 'गतप्रत्यागत' और अर्धभ्रम होनेसे 'अर्धभ्रम' - इस प्रकार भाठ तरहका चित्रालंकार है । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rrrrrrrrrrrow स्तुतिविद्या .१०५ पापोंके नाश करनेवाले हैं। ज्ञानादिगुणोंसे वृद्ध हैं। क्षय-रहित हैं। हे भगवन् ! आपकी ज्ञमा अपार और अविनाशो है। इस लिये आप मुझ वृद्धको भी प्रसन्न कीजिये, सुशोभित कीजिये तथा पालित कीजिये। ___ भावार्थ-यहां आचार्यने भगवान् कुथुनाथसे तीन बातोंकी प्रार्थना की है कि आप मुझ वृद्धको प्रसन्न कीजिये-सुशोभित कीजिये और पालित कीजिये । उक्त तीन बातोंको पूर्ण करनेकी सामर्थ्य बतलानेके लिये उन्होंने उसके अनुकूल ही विशेषण दिये हैं। यथा हे भागवन् ! आपकी दिव्यध्वनि समुद्रकी ध्वनिके समान अत्यन्त सारगर्भित होती थी, जिसे सुनकर समस्त प्राणी आनन्द लाभ करते थे अतः आप मुझे मी अपनी दिव्यध्वनिसे प्रसन्न कीजिये । हे भगवान आप सब पदार्थों को जाननेवाले हैं-आपकी आत्मा ज्ञानगुणसे अत्यन्त सुशोभित है अतः आप मुझे भी सुशोभित कीजिये-ज्ञानगुणसे अलंकृत कीजिये। हे भगवन् ! आप वामों-दुष्टों अथवा पापोंको उखाड़कर नष्ट करनेवाले हैं-साधुपुरुषोंके रक्षक है- अतः मेरी भी रक्षा कीजिये -मुझे भी इन दुष्ट पापकर्मोंसे बचाइये ! आप मेरे अपराधोंपर दृष्टिपात न कीनिये; क्योंकि आपकी क्षमा अपार है अथवा आपमें उक्त बातोंको पूर्णकरनेकी अपरिमित सामर्थ्य है। यहां आचार्य ने अपने लिये 'ऋद्ध' विशेषण दिया है जिसका अर्थ संस्कृत टीकाकारने वृद्ध किया है, इससे मालूम होता है कि यह रचना आचार्य समन्तभद्रके वृद्धजीवन की है ॥२४॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :-:.-a समन्तभद्र-भारती wmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm अर-जिन-स्तुतिः (गतप्रत्यागतपादपादाभ्यासयमकारद्वयविरचितश्लोकः) वीरावारर वारावी वररोरुरोरव । वीरावाररवारावी वारिवारिरि वारि वा ॥८५॥ वीरेति-पादे पादे याभूतः पाठः क्रमेण विपरोततोपि ताई ग्भूत एव । प्रथमपादः पुनरावर्तितः । रेफवकारावेव वौँ नान्ये वर्स यतः। विरूपा ईरा गतिः वीरा तां वारयवि प्रच्छादयतीति कत्तरि किए धीरावार् तस्य सम्बोधनं हे वीरावार कुगतिनिवारण । श्रर अष्टादशतीर्थ कर | वारान् भाक्तिकान् अवति पालयतीत्येवंशीलः वारावी भाक्तिकजन रक्षक इत्यर्थः । वरं इष्टफलं राति ददातीति वररः वरद इत्यर्थः तसं सम्बोधनं हे वरर । उरुमहान् । उरोमहत: महतोपि महान् भगवान स्यर्थः । अव रक्ष । हे वीर शूर । अवाररवेण अप्रतिहतवाण्या आरौति वनयति भन्यान् प्रतिपादयतीत्येवंशील: अवाररवारावी अप्रतिहतवाण्या घदनशीलः इत्यर्थः । कथमिव वारि व्यापि । वारि पानीयम् । वारि । तत् वारि च तत् वारिवारि वारिवारि राति ददातीति वारिवारिरा तस्मिन् वारिवारिरि सर्वव्यापिनीरदे । वारि वा जलमित्र । वा शब्द इवार्थे दृष्टव्यः । किमुक्त भवति-हे अरतीर्थेश्वर वीरावार वरर वार वारावी त्वं उरोरपि उरुः त्वं तथा अवाररवारावी त्वं यथा वारिवारिक वारि वा यतः तत: अव । सामान्यवचनमेतत् मा अव अन्यांच पालय ॥८॥ ___ अर्थ-हे नरकादि कुगतियोंको निवारण करनेवाले ! हे भक्तपुरुषोंके रक्षक ! हे इष्टफलोंके देनेवाले ! हे शूरवोर ! है अरनाथ स्वामिन् ! आप महानसे महान हैं-सबसे बड़े हैंश्रेष्ठ हैं और आपकी दिव्यध्वनि उस तरह सब जगह अप्रति ..... . ....... . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविका त है-बेरोकटोक प्रचलित है जिस तरह कि समस्त आका. समें व्याप्त होने वाले बादलोंमें जल रहता है। हे प्रभो! आप जारी तथा अन्य जीवोंकी रक्षा कीजिये ।। ५५॥ (अनुलोमप्रतिलोमश्लोकः) रक्ष माक्षर वामेश शमी चारुरुचानुतः । मो विभोनशनाजोरुनमन विजरामय ॥८६॥ रक्षमेति-क्रमपाठेनैकश्लोकः विपरीतपाठेनाप्यपरश्लोकः । अर्थव रक्ष पालय । मा अस्मदः इबन्तस्य रूपम् । अक्षर अनश्वर । वामेश प्रधानस्वामिन् । शमी उपशान्तः स्वमिति सम्बन्धः । चारुरुचानुत: शोभनभक्तिना पुरुषेण प्रणुतः । भो विभो हे त्रैलोक्यगुरो । अनशन अनाहार अविनाश इति वा । अज परमात्मन उरवः महान्त: नम्राः नमनशीला: बिस्यासावुरुननः तस्य सम्बोधनं हे उरुनन्न । इन स्वामिन् । विजरामय विगतवृद्धवन्याधे । किमुक्त भवति-हे पर अक्षर वामेश शमी त्वं रुरुचानुतः भो विभो अनशन अज उरुनन्न इन विजरामय मा ॥८६॥ । अर्थ-हे त्रिलोकपते ! अरनाथ ! श्राप विनाश-रहित हैं, इन्द्रोंके भी इन्द्र हैं, शान्तरूप हैं, बड़े-बड़े भक्त पुरुष आपकी स्तुति करते हैं, आप आहाररहित हैं, अज हैं, बड़े-बड़े पुरुष आपको नमस्कार करते हैं, आप सबके स्वामी हैं और बुढ़ापा तथा व्याधियोंसे रहित हैं अतः आप मेरी रक्षा कीजिये ।। ८६ ।। (अनुलोमप्रतिलोमश्लोकः ') यमराज विनम्रन रुजोनाशन भो विभो । तनु चारुरुचामीश शमेवारक्ष माक्षर ॥८७॥ : -नम्बरके श्लोकको विपरीतक्रमसे पढ़ने पर यह श्लोक बन Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती - यमेति-यमराज प्रतस्वामिन् । यमैः राजते शोभते इति । विननाः विनमनशीलाः इनाः इन्द्रादियो यस्यासी विनम्ननः । सम्बोधनं विनम्रन । रुजोनाशन व्याधिविनाशक । भो 'विभो स्वामिन् । तनु कुरु विस्तारय वा । चारुरुचामीश शोभनदीप्तीनां प्रभो शमेव सुखमेव । प्रारक्ष पालय । मा अस्मदः इबन्तस्य रूपम् । म अविनाश । समुदायार्थ:-हे अर यमराज विनम्र न रुजोनाशन भो कि चारुरुचामीश शोभनदीप्तानां प्रभो अचर शमेव तनु मा अारक्ष । सु। मत्यर्थं कुरु मां पालयेत्यर्थः ॥ ८७ ॥ अर्थ-हे प्रभो! आप व्रतोंके स्वामी हैं अथवा व्रता शोभायमान हैं,इन्द्र-अहमिन्द्र आदि भी आपको नमस्कार कर हैं, आप समस्त रोगोंको नष्ट करने वाले हैं, उत्तम शोभा स्वामी हैं और अविनाशी हैं। हे नाथ ! मोक्ष सुखको विस्त कीजिये और मेरी रक्षा कीजिये। विशेष-यह श्लेक श्लेषालंकारसे सूर्यपक्षमें लग सका | है। यथा-'हे शनिग्रहरूप स्वपुत्रसे शोभायमान ! हे आका नम्र-गगनसंचारिन् ! हे रोगापहारिन् ! हे गगनैकनाथ हे अखिल व्यवहारके देनेवाले ! हे सुन्दरकिरणोंके नायक ! अरनाथरूपी सूर्य ! सुखको विस्तृत करो और मुझे दुःखों बचाओ।* ॥७॥ जाता है। अर्थ भी उससे विभिन्न रहता है। और इस श्लोक उलट कर पढ़नेसे ८६ वाँ श्कलोक बनजाता है, इसीसे यह तथा । नम्बरका श्लोक अनुलोम-प्रतिलक कहलाता है। ॐ सूर्य-पचमें संस्कृत टीका निम्न प्रकार होगी: हे इन हे सूर्य ! 'इनः पत्यौ नृपे सूर्ये,' इति विश्वलोचनः । अन्या सम्बोधनान्यस्यैव विशेषणानि । तथाहि-हे रुजोनाश । हे म्या Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या mmmmmmmmwwwmmm ( गतप्रत्यागतभागः ) नय मा स्वर्य वामेश शमेवार्य स्वमाय न । दमराजत्त वादेन' नदेवात जरामद ॥॥ नयेति-नय प्रापय । मा अस्मदः इबन्तस्य रूपम् । सु शोभनः अर्य: स्वामी स्वर्यः तस्य सेम्बोधनं हे स्वयं सुस्वामिन् । वामेश प्रधा. नेश । शमेव सुखमेव । आर्य साधो। सुष्टु अमायः स्वमायः तस्य सम्बोधनं हे स्वमाय । न नत्वर्थे । अथवा पा समंतात् अर्यते गम्यते विनाशक ! "शीर्णवाणाझिगाणोन् व्रणिभिरपधनैर्घर्घराध्यक्त-घोषान्, दोर्घाघातानघौधैः पुनरपि घटयत्येकउल्लाघयन्यः । धर्माशोस्तस्य वोऽन्तर्द्विगुणधनघृणानिध्ननिर्विघ्नवृत्त दत्तार्णः - सिद्धसंधै विदधतु पणयः शीघ्रमहोवित्रातम् ॥ ( मयूरकृत-सूर्यशतके सूर्यस्तुतिः) इत्यादौ सूर्यस्य रुजोविनाशकत्वं प्रसिद्धम् । हे नभो विभो ! नमसो गगनस्य विभुः स्वामी तत्सम्बुद्धौ । हे यमराज ! यमेन शनैश्चरग्रहेण स्वपुत्रेण राजते शोभते तत्सम्बुद्धौ । शनिः सूर्यस्य पुत्र इति ज्योतिष. शास्त्रे प्रसिद्धम् । 'यमोऽन्यलिङ्गो यमजे ना काके शमने नौ, इति मेदिनी । हे विनम्र ! वो आकाशे नम्रस्तत्सम्बुद्धौ ‘विः स्वकाशयोः पुमान् इति विश्वलोचनः । हे चारुरुचामोश ! सुन्दर किरणानां त्वामिन् । अक्षर! अवान् व्यवहारान् राति इदातीत्यक्षरस्तत्सम्बुद्धौ ‘अक्षो ज्ञातार्थ सकट-व्यवहारेषु पाशके' इति मेदिनी । हे उक्त विशेषण-विशिष्ट दिनकर ! शं-सुखं तनु--विस्तारय माम् अारक्ष चान्धतमसादिति शेषः । अथवा तनुचारुरुचाम्-शरीरसुन्दरशोभानाम्-इत्येकं पदम्। माक्षर या लदम्या अवरोऽविनश्वरस्तत्सम्बुदावित्यप्येकं पदम् । शमेव--सुखव भारत-श्रा समन्ताद्रक्षेति कर्तृकर्मसम्बन्धः । अत्र इन एव इन ति । श्लेष्टरूपकाश्रये चमत्कारातिशयो भवेदिति संक्षेपः ॥ ८ ॥ पदमराज+ऋतवाद+इन इति पदग्छेदः। २ 'अर्यः स्वामिश्ययोः इत्यमरः । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० समन्तभद्र- भारती परिच्छिद्यते यः सः भार्यः श्रर्य इत्यर्थः, श्रार्यस्य स्वः श्रात्मा श्रार्यस्व तं ममीते इति कर्त्तरि कः, आर्यस्वमं श्रयनं ज्ञान' यस्यासौ श्रार्यस मायनः स्वस्वरूपप्रकाशक इत्यर्थः, तस्य सम्बोधनं हे श्रार्यस्वमायन दमस्य इन्द्रियजयस्य राजा स्वामी दमराजः । टः सान्तः । श्रथवा दमें राजत इति दमराजः तस्य सम्बोधनं हे दमराज ऋतं सत्यं वादः कथ यस्यासी ऋतवादः तस्य सम्बोधनं हे ऋतवाद सत्यवाक्य | इन प्रभ - भास्वन् । देवः कीड़ा, आर्त्त पीडा, जरा वृद्धत्वं मदः कामोद्रेकः 'देवश्व श्रच जरा च मदश्च देवात्त जरामदाः न विद्यन्ते देवात्त ज‍ मदाः यस्यासौ नदेवार्त्त 'जरामहः । नञ् प्रतिरूपकोयं कि संज्ञको नकार श्रतः श्रनादेशो न भवति । तस्य सम्बोधनं हे नदेवात्त जरामद । एवं दुक्तं भवति - हे श्ररनाथ स्वयं वामेश श्रार्य स्वमाय श्रार्यस्वमायन दमराज ऋतवाद इन नदेवार्त्त जरामद ननु मा शमेव नय सुखमें प्रापय । मांन दुःखमित्युक्त ं भवति ॥ ८८ ॥ " अर्थ- हे उत्कृष्ट नायक ! हे इन्द्रोंके इन्द्र ! हे मायारहित अथवा हे स्वपर प्रकाशकज्ञानसंयुक्त! हे इन्द्रियदमनरूपसंयम शोभायमान ! हे सत्यवादिन्- अनेकान्त दृष्टि से पदार्थों का सत्य - स्वरूप बतलानेवाले ! हे क्रीड़ा, पीड़ा बुढ़ापा तथा श्रहङ्कारसे -रहित ! अरनाथस्वामिन्! मुझे एकमात्र सुख-शान्ति को ही प्राप् कराइये – संसार के दुःखों से छुड़ाकर पूर्ण सुख-शान्ति प्रदान -कीजिये || || ( यथेष्टका तरान्तरितमुरजबन्धः ) वीरं मा रक्ष रक्षार परश्रीरदर स्थिर । धीरधीरजरः शूर वरसारर्द्धिरक्षर ॥ ८९ ॥ वीरेति — इष्टपादेन चतुर्णां मध्ये र वर्णान्तरेण मुरजबन्ध निरूपयितव्यः । ३ देवनं देवः क्रीडेत्यर्थः । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या वीरं शूरं । अथवा विरूपा इरा गतिर्यस्यासी धीरः । अथवा ज्या छाया ईरा...यस्यासौ वीरः तं वीरम् । मा अस्पदः इबन्तस्य रूपम् । एस पालय । रक्षा क्षेमं राति ददाति रक्षारः तस्य सम्बोधनं हे रक्षार अमरद । परा श्रेष्ठा श्रीलक्ष्मीर्यस्यासौ परश्री: त्वमिति सम्बन्धः। प्रदर अभय । स्थिर अचल । धीरधीः गभ्भीरबुद्धिः अगाधधिषण इत्यर्थः। बजरः जरामरणरहितः । शूर वीर । वरा श्रेष्ठा सारा अनश्वरी ऋद्धिः विभूतिर्यस्यासौं वरसारर्द्धिः। अक्षर क्षयरहित । एतदुक्क भवति-हे रसार परश्रीस्त्वं अदर धीरधीस्वं स्थिर अजरस्त्वं शूर वरसारदिस्त्वं अक्षर धीरं मा रक्ष ॥६॥ अर्थ हे अरनाथ ! आप समस्त प्राणियोंकी रक्षा करनेवाले हैं, उत्कष्ट लक्ष्मीसहित हैं, निर्भय हैं, स्थिर हैं, अगाध-बुद्धिके के धारक हैं, जरामरणसे रहित हैं, शूरवीर हैं, श्रेष्ठ और अवि. नाशी ज्ञानादि-सम्पत्तिसे युक्त हैं तथा अक्षर हैं-विनाशरहित हैं। अतः मेरी भी रक्षा कीजिये-मैं संसारपरिभ्रमणसे निवृत्त होना चाहता हूं ॥८॥ मल्लि-जिन-स्तुतिः (अभ्रमः ) • आस यो नतजाती- सदा मत्वा स्तुते कृती। यो महामतगोतेजा नत्वा मल्लिमितः स्तुत ॥९॥ आसेति-पास अस्यतिस्म । यः यदो वान्तस्य रूपम्। नतस्य प्रणतस्य जातिः उत्पत्तिः नतजातिः नतजातेरीर्या प्राप्तिः नतजातीय तां नतजातोर्याम् । सदा सर्वकालम् । मत्वा ज्ञात्वा । अथवा कनिबन्तोयं प्रयोगः, मत्वा ज्ञातेत्यर्थः । स्तुते नुते पूजिते । कृती अनश्वरकीर्तिः तीर्थकरकर्मा पुरवानित्यर्थः । यः यदो रूपम् । मतं आगमः, गौर्वाणी, तेजः केवलज्ञानं, इन्दः, महान्तः मतगोतेजासि यस्यासौं महामतगो. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समन्तभद्र-मारती तेजाः । नस्वा स्तुत्वा तमिति सम्बन्धः । तं मल्लिं एकोनविंशतीर्थकरम्। इतः प्राप्तः । अथवा इतः उध्वं अरस्तुतेरूयम् । स्तुत नुत । स इत्यस्य घोः बोडन्तस्य रूपं बहुवचनान्तम् । एतदुक्तं भवति-या मल्लिः नतजातीर्या श्रास सदा मत्वा स्तुते सति कृती यश्च महामतगो. तेजाः तं मल्लिनाथं नत्वा इतः स्तुत ॥६॥ अर्थ-जिन्होंने भव्य पुरुषोंके जन्म-मरण आदि रोग नष्ट कर दिये हैं, जो हर एक समय अनन्त पदार्थों को जानते रहते हैं, जिनकी स्तुति करनेसे साधु पुरुष तीर्थंकर जैसे सातिशय पुण्य कर्मको प्राप्त हो जाते हैं तथा जिनका आगम दिव्य ध्वनि और ज्ञान सबसे विशाल है ऐसे मल्लितीर्थंकरको प्राप्त होकर हे भव्यजनो! नमस्कारपूर्वक उनकी स्तुति करो ॥१०॥ मुनिसुव्रत-जिन-स्तुतिः (निरौष्ट्ययथेष्टेकाक्षरान्तारितमुरजबन्धो ___ गोमूत्रिका षोडशदलपद्मश्च.) ग्लानं चैनश्च नः स्येन 'हानहीन घनं जिन । अनन्तानशन ज्ञानस्थानस्थाऽऽनत-नन्दन ॥९१॥ ग्लानमिति-ग्लानं च ग्लानि च । एनश्च पापं च । नः अस्माकम् । स्य विनाशय । हे इन स्वामिन् । हानहीन क्षयरहित । धनं निविडम् । जिन परमात्मन् । अनन्त अमेय अलब्धगुणपर्यन्त । अनशन अविनाश निराहार इति वा । ज्ञानस्थानस्थ केवलज्ञानधामस्थित । आनतनन्दन प्रणतजनवर्धन। उत्तरश्लोके मुनिसुव्रतग्रहणं तिष्ठति तेन सह सम्बन्धः। १स्य+इन ई पदच्छेदः । स्य इति षोडन्तकमणि' इत्यस्पधातोर्लोट् मध्यमपुरुषेकवचनकरूपम्।२ नशनरहित अथवा प्रशनरहित । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविया मुनिसुव्रत इन हानहीन जिन अनन्त अनशन ज्ञानस्थानस्थ भारतइन ग्लानं च एनश्च नः स्य ॥६॥ अर्थ:-हे मुनिसुव्रत स्वामिन् ! आप क्षयरहित हैं, कर्मरूप ओंको जीतनेवाले हैं, अनन्त हैं-अपरमित गुणोंसे | शोभित हैं, नाशरहित हैं अथवा आहार-रहित हैं, केवलज्ञानस स्थानमें स्थित हैं और प्रणत पुरुषोंको बढ़ानेवाले हैंमृद्ध करनेवाले है। हे प्रभो ! हमारी भी यह ग्लानि और रागादिरूप) पाप परिणति दूर कीजिये। ( अद्ध ममः) पावनाजितगोतेजो वर नानावताक्षते' । नानाश्चर्य सुवीतागो जिनार्य मुनिसुव्रत ॥९॥ पावनेति--पावन पवित्र । गौश्च तेजश्च गोतेजसी, न जिते गोतेसा वाणीज्ञाने यस्यासावजितगोतेजाः तस्य सन्बोधनं हे अजितगोतेजः। वर श्रेष्ठ । नानाव्र नानानुष्ठान । छद्मस्थावस्थायामाचरणकथनमेतत् । अक्षते अक्षय ; नानाभूतानि आश्चर्याणि ऋदयः प्रातिहार्याणि वा वस्यासौं नानाश्चर्यः, तस्य संबोधनं हे नानाश्चर्य । सुष्टु वीतं विनिष्ट पागः पापं अपराधो यस्यासौ सुवीतागाः तस्य संबोधनं हे सुबीताग जिन जिनेन्द्र । आर्य स्वामिन् । मुनिसुव्रत विंशतितमतीर्थकर । अति. अन्तेन क्रियापदेन स्य इत्यनेन सह सम्बन्धः । एतदुक्तं भवति-हे पावन अजितगोतंजः वर नानावत अक्षते नानाश्चर्य मुवीतागः जिन मार्य मुनिसुव्रत नः अस्माकं ग्लानं एनश्च स्य विनाशय ॥१२॥ अर्थ-हे भगवन् ! आप परम पवित्र हैं-राग आदि दोपोंसे रहित हैं, आपकी दिव्यध्वनि और आपका केवलज्ञान प्रक्षते ! पति शब्दस्य सम्बोधने रूपम् । २ नो खानिमेनरच स्य विनाशय इति पूर्वरोकेन साकमन्वयः । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ समन्तभद्र-भारता रूपी तेज अजय है - इन्हें कोई नहीं जीत सकता। आप अत्यन श्रेष्ठ हैं, आपने छद्मस्थ अवस्था में - केवलज्ञान प्राप्त होने पहले अनेक व्रतोंको धारण किया था, आप चय-रहित अनेक आश्चर्य सहित हैं — ऋद्धियों और प्रातिहायों से युक्त हैंआपके समस्त पाप नष्ट हो गये हैं, आप जिनेन्द्र हैं तथा सब स्वामी हैं । हे मुनिसुव्रत भगवन् ! हमारी भी सांसारिक ग्ला और पापपरिणतिको नष्ट कर दीजिये । यहां क्रियादिका सम्बन्ध पूर्व श्लोकके साथ है "२ ! , नमि-जिन स्तुतिः ( गतप्रत्यागतपादयमकाक्षरद्वय विरचितसन्निवेशविशेषसमुद्गतानुलोमप्रतिलोमश्लोकयुगलश्लोकः ) नमेमान नमामेन मानमाननमानमा' - मनामोनु नुमोनामनमनोमम नो मन ॥९३॥ नमेति - गतप्रत्यागतपादयमको नकारमकाराक्षरद्वयविरचितश्लो : द्वयं श्लोकयुगलमित्यर्थः । श्रन्यद्विशेवणं मुखशोभनार्थम् । - हे नमे एक विशतीर्थंकर । श्रमान अपरिमेय । नमाम प्रणमा त्वमित्यध्याहार्यमर्थ सामर्थ्याद्वा लभ्यम् । इनं स्वामिनम् । आता प्राणिनां माननं प्रबोधकं मानं विज्ञानं यस्यासौ श्राममाननमान: अनमाननमानं भव्यप्राणिप्रबोध कविज्ञानमित्यर्थः । श्रान इति न स्व प्राणने इत्यस्य धोः घञन्तस्य रूपम् । माननमिति मन ज्ञाने इत्या धोः गिना युडन्तस्य रूपम् । श्रामनामः श्रा समन्तात् 'चिन्तयामः । म अभ्यासे इत्यस्य धोः लडन्तस्य रूपम् । अनु पश्चात् नुमः वन्दा महे १ अनमामः इति पदच्छेदः । अत्र द्वितीयपादस्य तृतीयपादेन । सन्धिसम्बन्धः पश्च प्रायोऽन्यात्राऽप्रसिद्धः । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या ११५ अनामनं श्र - नमनप्रयोजकं मनः चित्तं यस्यासौं श्रनामनमनाः तस्य सम्बोधनं हे अनामनमनः बलात्कारेण न परान्नामयतीत्यर्थः अनेन वीतरागत्वं ख्यापितं भवति । श्रथवा नामनानि नमनशालानि मनांसि चित्तानि यस्माद् भवन्ति श्रसौ नामनमनाः तस्य सम्बोधनं हे नामनमनः । अथवा नामनं स्तुतिनिमित्तं मनः चित्तं यस्मादलौ नामनमनाः तस्य सम्बोधनं हे नामनमनः । श्रमम हे श्रमोह । नः श्रस्मान् । मन श्रभ्यासय चिन्तय इत्यर्थः ' मन अभ्यासे इत्यस्य धो: बोडन्तस्य रूपम्' | एतदुक्तं भवति — हे नमे श्रमान श्रमम श्रनामनमनः त्वां इनं श्रानमाननमान श्रामनामः नमाम अनु नुमः यस्मात्तस्मात् नः श्रस्मान् मन चिन्तय ॥ ६३ ॥ • अर्थ - - हे नमिनाथ ! आप अपरिमेय हैं - हमारे जैसे अल्पज्ञानियोंके द्वारा आपका वास्तविक रूप नहीं समझा जाता । आप सबके स्वामी हैं। आपका ज्ञान सब जीवोंको प्रबोध करनेवाला है। आप किसीसे उसकी इच्छा के विरुद्ध नमस्कार नहीं कराते। आप वीतराग हैं और मोह-रहित हैं अतः आपको सदा काल नमस्कार करता हूँ - हमेशा आपका ध्यान करता हुआ आपकी स्तुति करता हूँ । प्रभो ! मेरा -- मुझ शरसांगतका - भी सदा ध्यान रखिये- मैं आपके समान पूर्ण ज्ञानी विथा मोह - रहित होना चाहता हूँ ॥ ६३ ॥ न मे माननमामेन मानमाननमानमा - मनामो नु नु मोनामनमनोम मनोगन ॥ ९४ ॥ 1 नमेमेति — न प्रतिषेधवचनम् । मे मम । माननं पूजनं प्रभुत्वं स्वातन्त्र्यमित्यर्थः । श्रामेन रोगेण संसारदुःखेन कर्मणा इत्यर्थः । किंविशिष्टेनामेन मानमा मानं ज्ञानं मिनाति हिंसयतीति मानमाः तेन मानमा । श्रननं प्राणनं जीवनं मिनाति हिंसयतीति मानमाः तेन श्रननमः । श्र समन्तात् नमन्तीत्यानमाः स्तुतेः कर्त्तारः । श्रनमानां श्रमनं Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ११६ समन्तभद्र-भारती रोगः व्याधिः धानमामनं तत् श्रमति रुजति मनतोति 'कर्मश्वर मानमामनामः त्वमिति सम्बन्धः । नु वितकें । अम्योपि नु वित्तकें मा लक्ष्मीः तथा ऊना: रहिता: मोना: मोनानां श्रामः रोग: मोना तं नामयतीति मोनामनमनः त्वमिति सम्बन्धः । श्रम गच्छ । मे इल ध्याहार्यः । मनः चित्तम् । श्रमन कान्त कमनीय । एददुक्त भवतिमानमामनामो नु त्वं यस्मात् मोनामनमनो नु यस्मात् त्वं तस्मात् ममे श्रमन मे मनः श्रम गच्छ यस्मात् मे मम माननं नास्ति आमेन विशिष्टेन मानमा पुनरपि श्रननमा ॥ ६४ ॥ | अर्थ - प्रभो ! जो आपको भक्ति-पूर्वक नमस्कार करता है उसके सब रोग नष्ट कर देते हैं तथा जो ज्ञानादिलक्ष्मीसे रहि हैं - वस्तुत: निर्धन हैं - उनके भी समस्त सांसारिक रोगों को नष्ट देते हैं । इसके सिवाय आप अत्यन्त सुन्दर हैं । हे नमिजिन ! ज्ञा गुणको घातनेवाले तथा जीवके शुद्ध स्वरूपको नष्ट करनेव इन कर्मरूपी रोगोंने मेरा समस्त प्रभुत्व अथवा स्वातन्त्र हर लिया है अतः आप मेरे हृदय मन्दिर में प्रवेश कीजिये जिससे कि मेरी स्वतन्त्रता मुझे प्राप्त हो सके । भावार्थ-यहां श्राचार्य समन्तभद्रने भगवान् नमिनाथकी स्तु करते हुए कहा है कि आप भक्तपुरुषोंके समस्त रोग-दुःख कर देते है तथा दरिद्र मनुष्योंके भी आप अत्यन्त हितैषी हैंउनके भी दारिद्रयजनित समस्त रोग-दुःख नष्ट कर देते हैं । प्रभो ! मेरे पीछे भी यह दुःखदायी संसाररूपी रोग पड़ा हुआ इसने मेरी सर्व स्वतन्त्रताको हर लिया है । मेरी केवलज्ञाना सम्पत्ति भी इसके द्वारा हरली गई है अतः मैं एक तरह दरिद्र तथा असमर्थ हो रहा हूं अतः आप मेरे हृदय में प्रवेशक मेरे सब रोगोंको दूर कर दीजिये। जिसमें रोग दूर करने सामर्थ्य होती है उसीसे तो प्रार्थना की जाती है। श्लोकका स आशय यह है कि आपका ध्यान करनेसे जीवोंके समस्त सांस Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ रिक रोग दूर हो जाते हैं, फलतः वे जीव सर्वथा नीरोग हो कर मुक्त हो जाते हैं और सदा के लिये अपने स्वाधीन सुखके उपभोक्ता बन जाते हैं ||१४|| ( अनुलोमप्रतिलोमस कलश्लोकगतप्रत्यागताद्ध: ) नयाभर्त्तवागोद्य द्य गोवार्त्तभयार्दन। तमिता नयजेतानुनुताजेय नामित ॥ ९५ ॥ नर्दयेति - गतप्रत्यागतार्ध इत्यर्थः । हे न: पूज्यपुरुष । दया एव श्रभा रूपं यस्यासौ दयामः तस्य सम्बोधनं हे दयाम दयारूप । कृता सत्या वाक् वाणी ऋतवाक् सत्यवचनम् श्र समन्तात् उद्यत इत्योद्यम्, ऋतवाचा सत्यवाण्या श्रोद्य आकारं यस्यासौ ऋतवागोद्यः तस्य सम्बोधनं हे ऋतवागोद्य । द्य खण्डय | गौर्वाणी, वार्त्तव वार्त्त', गोः वार्त्त वात" वचनवार्त्ता । भयानां श्रर्जुनः विनाशकः भयार्दनः । गोवार्त्तन भयार्दनः गोवा भयाद्दनः अथवा गोवार्त्तेन भयार्दनं यस्मादसो गोवार्त्तभयार्दनः तस्य सम्बोधनं हे गोवार्त्तभयार्दन वचनवार्त्त या भयविनाशक तमिताः खेदरूपाणि दुःखानीत्यर्थः । नयैर्जयनशीलः नयजेता त्वमिति सम्बन्धः । हे श्रनुनुत सुपूजित इत्यर्थः । श्रजेय श्रपराजेय श्रजय्य इत्यर्थः । नताः प्रणताः श्रमिता अपरिमिताः इन्द्रादयो यस्यासौ नतामितः तस्य सम्बोधनं हे नामित । एतदुक्तं भवति - हे नः दयाभ, ऋतवागोद्य, गोवात भयाद्दन अनुभुत श्रजेय नतामित नयजेता त्वं यतस्ततस्त्वं तमिताः दुःखानि द्य खण्डब । अस्माकं श्रनुक्रमपि लभ्यते ॥ ६५॥ अर्थ - हे नमिनाथ ! आप पूज्य हैं, दयास्वरूप हैं अथवा दयासे शोभायमान हैं, अनेकान्तरूप सत्यवाणीके द्वारा ही अपकास्वरूप जाना जाता है । आपके उपदेशकी चर्चा मात्र से समस्त भय नष्ट हो जाते हैं। आपने अनेकान्त के परस्पर सापेक्षनय बादके द्वारा समस्त जगत्‌को जीत लिया है। आपकी सब स्तुति Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ समन्तभद्र-भारती करते हैं । विश्वको कोई भी शाक्ति आपको नहीं जीत सकती आप अजेय हैं. इन्द्र नरेन्द्र आदि असंख्यात जीव आपको नमस्कार करते हैं। हे प्रभो ! मेरे जन्ममरणके दुःखोंको दूत कीजिये ॥६शा (अनुलोमप्रतिलोम-गतप्रत्यागतश्लोक. ) हतभीः स्वय मेध्याशु' शं ते दातः श्रिया तनु । नुतया श्रित दान्तेश शुद्धयामेय स्वभीत ह ॥१६॥ ... हतेति-गतप्रत्यागतैकश्लोक इत्यर्थः । हतभीः विनष्टभयः स्वं स्वयः शोभनः अयो यस्यासौ स्वयः तस्य सम्बोधनं स्वय । मेध्य पूत । श्राशु शीघ्रम् । शं सुखन् । ते तव । दात: दानशीलः । श्रिया लचम्या। तनु कुरु देहि वितर विस्तारय इति पर्यायाः । नुतया पूजितथा । श्रिय सेव्ये । दान्तेश मुनीश । शुद्धया केवलज्ञानेन । अमेय अपरिमेय | सुष्टु अभीतः स्वभीत: तस्य सम्बोधनं स्वभीत अनन्तवीर्य ह मिसंज्ञक समुदायार्थः - हे नमे यतः त्वं हतभी: वप मेध्य दातः श्रिया नुतयां श्रित दान्तेश शुद्धयामेय स्वमीत ते तव यत् शं सुखं तत् तनु कुर देहि ह स्फुटम् ||६|| अथेहे नमिनाथ ! आप भयरहित हो, महापुण्यवानहो तीर्थ करनामकर्म जैसी पुण्यप्रकृतिके उदयसे युक्त हो, पवित्रहों, दानशोलहो,अत्यन्तउत्कृष्ट अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मोसे सेवित हो, मुनियों के स्वामी हो,केवलज्ञानरूपी शुद्धिसे अमेय हो-आपका केवलज्ञान मानरहित है-अनन्त है। और आप अनन्तवीर्य से सहित हैं यह बात अत्यन्त स्पष्ट है । हे प्रभो! आपमें जो अनन्त आत्मीय सुख है वह मुझे भी शीघ्र दीजिये ॥६॥ .. मेभ्य+ पाय इति सन्धिारह इत्यम्वयं स्फुटार्यकम् । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविण नेमि-जिन-स्तुतिः (दूधचरश्लोकः) मानोनानामनूनानां मुनीनां मानिनामिनम् । मनूनामनुनौमीमं नेमिनामानमानमन् ॥१७॥ मानोनेति-मकारनकाराक्षरैर्विरचितो यतः । मानोनानां मर्व. हानानां । अनूनानां अहीनानां चारित्रसम्पूर्णानामित्यर्थः । मुनीनां साधूनां । मानिनां पूजितानां । इनं स्वामिनं । मनूनां ज्ञानिनां । मनु शब्दोऽयं मन ज्ञाने इत्यस्य धोः पौर्णादिकत्यान्तस्य रूपम् । अनुनौमि सुष्टु स्तौमि । इमं प्रत्यक्षवचनं । नेमिनामानं अरिष्टनेमिनाथम् । मानमन प्रणमन् । अहमिति संबन्धः । समुदायार्थः-इमं नेमिनामानं किं विशिष्टं इन स्वामिन केषां मुनीनां किं विशिष्टानां मानोनानाम् अननानां मानिनां मनूनां पानमन्नहं अनुनौमि ||१७|| अर्थ-मैं (समन्तभद) अहंकार-रहित, उत्कृष्ट एवं सम्पूर्ण चारित्रके धारक, पूज्य और ज्ञानवान मुनियोंके स्वामी भगवान् नेमिनाथको मन-वचन-कायसे पुनः पुनः नमस्कार करता हुआ उनकी निरन्तर स्तुति करता हूँ ॥१७॥ (अनुलोमप्रतिलोमैकश्लोकः ) . तनुतात्सद्यशोमेय शमेवार्य्यवरो गुरु । रुगुरो वर्दी वामेश यमेशोद्यत्सतानुत ॥९८॥ · तनुतादिति--गतप्रत्यागत इत्यर्थः । तनुतात् कुरुतात् सद्यशः शोभन• कीर्ते । अमेय अपरिमेय । शमेव सुखमेव । आर्याणां प्रधानानां वरः श्रेष्ठः प्रार्यवरः स्वमिति सम्बन्धः । गुरु महत् सुखेन सम्बन्धः । रुचा दीप्पया उरुः महान् रुगुरुः तस्य सम्बोधनं हे रुगुरो दीप्त्या महत् । वर्य प्रधान । वामेश शोभनेश । यमेश व्रतस्वामिन् | उद्यत्सतानुत उद्योगवता पण्डितजनेन नुत्त स्तुत । एवं सम्बन्धः कर्तव्य:- हे नेमिनाथ सघशः Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सान्तमा मारतो अमेय रुगुरो वर्ष कामेश यमेश उपसता नुत मार्यवरस्त्वं गुरु भी अनुतात् || अर्थ-हे भगवन् ! आपका यश अत्यन्त निर्मल है, ना अल्पज्ञानियों के ज्ञानके अगोचर है-अल्पज्ञानी आपके वास विक रूपको नहीं समझ पाते, आप आर्य पुरुषों में अत्यन्त श्री हैं, इन्द्र अहमिन्द्र आदि प्रधानजनोंके भी स्वामी हैं, व्रतियों मुनियोंके नाथ हैं और बड़े-बड़े उत्कृष्ट पंडितजन भी आप स्तुति करते हैं। हे प्रभो ! मुझे वह सर्वोत्कृष्ट मोक्षरूप सुख । प्रदान कीजिये जिसके पाप नायक हैं-अन्य वैषयिक सुखर मुझे इच्छा नहींहै ॥ . पार्श्व-जिन-स्तुतिः (मुरजबन्धः) जयतस्तव पार्श्वस्य श्रीमद्भतु : पदद्वयम् । क्षयं दुस्तरपापस्य क्षमं कर्तुं ददज्जयम् ॥१९॥ जयति-जयतः जयं कुर्वतः । तव ते । पार्श्वस्य त्रयोविंशतिती करस्व । श्रीमत् लक्ष्मीमत् । भतु महारकस्य स्वामिनः । पदद्वयंपदा सम् । पयं विनाशम् । दुस्तरपापस्य अतिगहनपापस्य । पमं समर्थन कर्तु" विधातुम् । ददज्जयं विधदद्विजयम् । समुदायार्थ:-जयत पार्वस्य भतु : पदद्ववं श्रीमत् ददत् जयं दुस्तरपापस्य चयं कर्तुं चन उचर श्लोकेन सम्बन्धः ॥३॥ - अर्थ-हे प्रभो पार्श्वनाथ ! आप कर्मरूप शत्रुओंको जीत वाले हैं,सबके स्वामी है, आपके चरणकमल अत्यन्त शोभावमा हैं, सर्वत्र विजयके देनेवाले हैं और कठिनसे कठिन पायो। Halomyutups Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या १२१ चय करनेके लिये समर्थ हैं । हे भगवन् ! आपके चरणकमल हमारे अज्ञामरूप'अन्धकारको नष्ट करें" HEI (गूढतृतीयचतुर्णानन्तरावरदयविरचितबमकानन्तरपादमुरजबन्धः) तमोत्तु ममतातीत ममोत्तममतामृत ततामितमते तातमतातीतमृतेमित ॥ १० ॥ तमोत्तमति-तव पार्श्वस्य इत्येतद्यमनुवर्तते। तमोतु तमो महवतु प्रज्ञानं निराकरोस्वित्यर्थः । ममतातीत ममत्वातिकान्त । मम पात्मनःस्व मंउसमं प्रशानं मवामृतं भागमाएवं यस्थासी उत्तममवास्तः, तस्य संबोधनं हे उत्तममतास्त प्रधानावमा सत । तता विशाखा अमिता अपरिमिता मविज्ञानं बस्यासो सवामिनमतिः तस्य सम्बोधनं हे तसामितमते विशाखापरिमितज्ञान | तात इति मतः तातमतः घेण्याधिकृतरिति सविधिः, तात इति पौर्यादिका प्रयोगः तस्य सम्बोधनं हे तातमत। अतीता अविकान्ता मृतिः मरवं यस्थासौ प्रतीतमतिः तम्य सम्बोधन हे अतीतमृते प्रतिक्रान्त मरण । अमित अपरिमित । किमुक्त भवति-हे पाचमधारक ममतातीत उत्तम मवामृत ततामितमते तातमत अतीतमृते अमित तव पदद्वयं मम तमोतु मतपतु ॥ १..॥ अर्थ--हे पार्श्वनाथ ! आप ममता-रहित हैं-पर पदार्थो। में 'यह मेरा है और मैं इनका हूँ ऐसा भाव नहीं रखते। आपका आगमरूपी अमृत अत्यन्त उत्कृष्ट है, आपका केवलमान अत्यन्त विस्तृत और अपरिमित है-पाररहित है, आप सबके बन्धु हैं, नाश-रहित हैं, और अपरिमित है। आपके दोनों चरणकमल' मेरे अज्ञान अन्धकारको नष्ट करें ।। १८० ॥ - तमोऽत्त इत्युत्तरस्वोकेन सम्बन्धः। - ३ पूर्वस्वोकेन सम्बन्धः। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ समन्दमन्द्र-भारती स्वचित्तपटयालिख्य जिनं चारु भजत्ययम् । शुचिरूपतया मुख्यमिनं पुरुनिजश्रियम् ॥ १०१ ॥ स्वचित्तेति--स्वचित्तपटे आत्मीयचेतःपट्टके । प्रालिल्प निखिस्वा। जिनं पार्श्वनाथम् । चारु शोभनं यथा भवति तथा क्रियाविशेषणमेतत् । भजति सेवते । अयं जनः प्रात्मानं कथयति । शुचिरूपतया शुद्धस्वरूपत्वेन । मुख्यं प्रधानं । इनं स्वामिनं । पुरु महतो निजा श्रात्मीया श्रीलक्ष्मीर्यस्यासौ पुरुनिजश्रीः अतस्तं पुरुनिजश्रियं महदारमीयलक्ष्मीम् । समुदायार्थः-जिनं पार्श्वनाथं इनं पुरुनिजश्रियं मुख्यं प्रालिख्य स्वचित्तपटे अयं जनो भजति । किं निमित्तं ? शुचिरूपतया शुद्धस्वरूपमितिकृत्वा ।। १०१ ॥ . अर्थ-हे भगवन् ! आप कर्मरूपी रिपुओंको जीतनेवाले हैं, सबमें मुख्य हैं, सबके स्वामी हैं और आपकी अनन्तचतुष्यरूप लक्ष्मी सबसे बढ़कर है। हे प्रभो! यह समन्तभद्र श्रापको अत्यन्त शुद्ध स्वरूप मानकर सुन्दर रीतिसे अपने चित्तपटलपर लिखकर -मनमें ध्यान करता हुआ-आपकी आराधना करता है ।। १०१ ॥ वर्धमान-जिन-स्तुतिः (मुरजबन्धः) धीमत्सुवन्धमान्याय कामोद्वामितवित्तुषे । श्रीमते वर्धमानाय नमो नमितविद्विषे ॥ १०२ ॥ धीमदिति-धीमान् बुद्धिमान् । सुवन्यः सुस्तुतः । मान्यः पूज्यः । धीमांश्वासौ. सुवन्धश्च धीमसुवन्या, धीमत्सुत्रन्यश्चासौ मान्य धीमत्सुवन्यमान्यः तस्मै धीमत्सुवन्धमान्याय । अथवा धीमरसुः बुद्धि Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या १२३ मत्सु मध्ये सुवन्धमान्याय । विदः बोधस्य तृट् तृष्णा वित्तृट, कामं प्रत्यय, उदामिता उदारिता निराकृता वित्तट ज्ञानतृष्णा येनासौ कामोद्वामितवित्तृट् तस्मै कामोद्वामितवित्तुषे । श्रीमते लक्ष्मीमते । वर्धमानाय महावीराय चतुर्विंशतितीर्थकराय । नमः । अयं शब्दो मिन्मंजकः पूजा-वचनः । नमिताः विद्विषो यस्यासौ नमितविद्विट् तस्मै नमित. विद्विषे अधःकृतवैरिणे । समुदायार्थः-नमोस्तु ते वर्धमानाय किं विशिटाय धीमत्सुवन्द्यमान्याय कामोद्वामितवित्तषे श्रीमते नमितविद्विषे ॥१०२।। ___ अर्थ-हे वर्धमान स्वामिन् ! आप अत्यन्त बुद्धिमानों-चार ज्ञानके धारी गणधरादिकोंके द्वारा वन्दनीय और पूज्य है । आपने ज्ञानकी तृष्णाको बिल्कुल नष्ट कर दिया है-आपको सर्वोस्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त होगया है जिससे आपकी ज्ञान-विषयक समस्त तृष्णाएं नष्ट हो चुकी हैं, आप अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग लक्ष्मीसे युक्त हैं और आपके शत्रु भी आपको नमस्कार करते हैंआपकी अलौकिक शान्ति तथा लोकोत्तर प्रभावको देखकर आपके विरोधी वैरी भी प्रापको नमस्कार करने लग जाते हैं। अतः हे प्रभो! आपको मेरा नमस्कार हो ॥१०२॥ (मुरजबन्धः) वामदेव क्षमाजेय धामोद्यमितविज्जुषे । श्रीमते वर्धमानाय नमोन मितविद्विषे ॥ १०३॥ वामदेवेति-नमोवर्धमानायेति सम्बन्धः। वामानां प्रधानानां देवः तस्य सम्बोधनं हे नामदेव । क्षमा अजेया यस्यासौ क्षमाजेयः तस्व सम्बोधनं हे क्षमाजेय | धाम्ना तेजसा उद्यमिता कृतोत्कृष्टा वित् विज्ञावं घामोद्यमितावित तां जुष्टे सेवते इति धामोयमितविज्जुट् तस्मै धामोबमितविज्थे । अथवा अजेयं धाम तेजो यस्याः सा प्रजेयधामा, उबमिता उता वित् झानं उद्यमितवित्, प्रजेवधामा चासो उपमिवविच्छ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तमन्द्र-मारती अजेयधामोद्यमितवित् तां जुष्टे इति अजेयधामोद्यमितविजुट तस्मै अजेयधामोद्यमितविज्जुषे । श्रीमते इत्यादि पूर्व एवार्थः । अथवा श्रिया उपन पिता मतिर्यस्यासौ श्रीमति: तस्य सम्बोधनं हे श्रीमते । वर्धमानः वृद्धि गच्छन् अयः मार्गो यस्यासौ वर्धमानायः तस्य सम्बोथनं है वर्धमानाय । मा. लक्ष्मीः तया ऊनः मोनः न मोनः नमोनः तस्य सम्बो. 'धनं हे नमोन । मिता परिमिता वित् ज्ञानं मितवित् तां विष्णाति निराकरोति इति मितविद्विट् तस्मै मितविद्विषे । एवं सम्बन्धः कर्तव्यः-हे वर्धमान श्रीमते वर्धमानाय नमोन मितविद्विषे ते नमः । पुनरपि कि विशिष्टाय वामदेव चमाजेय धामोद्यमितविज्जुषे ।। १०३ ॥ .. अर्थ- हे भगवन् ! आप,इन्द्र चक्रवर्ती आदि प्रधान पुरुषों के भी देव-इन्द्र हैं, आपका क्षमागुण सर्वथा अजेय है, आप तेजसे प्रकाशमान केवलज्ञानको प्राप्त हुए हैं, आपकी मति-ज्ञानसम्पत्ति समवरणादि लक्ष्मीसे उपलक्षित है, आपके द्वारा प्रच. लित मोक्षमार्ग हमेशा बढ़ता रहता है अथवा आपका पुण्य उत्तरोत्तर बढ़ रहा है, आप लक्ष्मोसे परिपूर्ण हैं तथा मतिश्रुत आदि क्षायोपशमिक-अल्पज्ञानोंको दूर करनेवाले हैं अतः आपके लिये नमस्कार हो । १०३ ।। ___(मुरजबन्ध:) समस्तवस्तुमानाय तमोघ्नेमितवित्विषे । श्रीमतेवर्धमानाय नमोन मितविद्विषे ॥ १०४ ।। समस्तेति-समस्ते विश्वस्मिन् वस्तुनि पदार्थे मानं ज्ञानं यस्यासौ समस्तवस्तुमानः तस्मै समस्तवस्तुमानाय । तमोध्ने अज्ञानविनाशकाय । विशिष्टा स्विट् इति विस्विट् अमिता वित्विट् यस्यासौ अमितविस्विट् तस्मै अमितवित्विषे,श्रीमते इत्येवमादिषु पूर्व एवार्थः । अथवा श्रियं मिमीत इति श्रीमः तस्य सन्बोधनं हे श्रीम । ते तुभ्यं । अथवा श्रियं मन्यत इति श्रीमत् तस्मै श्रीमते । ऋद्ध वृद्ध अवेन कान्त्या ऋवं अव Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ स्तुद्धिविस भवई मानं ज्ञानं यस्यासो प्रवर्धमानः अथवा अवर्ष अच्छिन्नं मानं यस्वासो प्रवर्धमानः तस्मै श्रवर्धमानाय । मा पृथ्वी त्या उनः मोनः न मोनः नमोनः अयं न प्रतिरूपो मिसंज्ञको नकारः अतो नमोन्यवानादेशो न भवति तस्य सम्बोधनं हे नमोन । मितेन ज्ञानेन विनष्टा द्विट् अप्रीतिर्यस्यासौ मितविद्विट् तस्मै मितविद्विषे । किमुक्त भवति-हे श्री. मते नमोन तुभ्यं नमः किं विशिष्टाय समस्तवस्तुमानाय तमोघ्ने अमितवित्विषे अवर्धमानाय मितविद्विषे ।। १०४ ।। अर्थ-हे भगवन् ! आपका ज्ञान संसारके समस्त पदार्थोंको जानता है, आप अज्ञान अथवा मोहको नष्ट करनेवाले हैं, आपके शरीरको विशिष्ट कान्ति अपरिमित है-आप सर्वाङ्ग सुन्दर हैं-अथवा आपका वित्विट-केवलज्ञान-अपरिमित है,आप लक्ष्मीसे सम्पन्न हैं, आपका केवलज्ञान लोकोत्तर कान्तिसे वृद्धिको प्राप्त है अथवा आपका केवलज्ञान विच्छेदसे रहित है-अखण्ड है, आप लोकत्रयरूप पृथ्वीसे रहित नहीं हैं-श्राप तीनों लोकोंके स्वामी हैं और आपने अपने ज्ञानसे समस्त अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग शत्रु ओंको नष्ट कर दिया है। अतः हे प्रभो! आपके लिये नमस्कार हो ॥ १०४ ॥ , ( मुरजबन्धः) प्रज्ञायां तन्वृतं गत्वा स्वालोकं गोविदास्यते । यज्ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा त्रैलोक्यं गोष्पदायते १०५ प्रज्ञति-प्रज्ञायां बुद्दयां । तनु स्तोक । ऋतं सत्यं । गत्वा ज्ञात्वा । स्वालोकं प्रात्मावबोधनं । गोर्विदा पृथिव्या ज्ञाना इति अस्यते । यस्य हानान्तर्गतं बोधाभ्यन्तरम् । भूत्वा प्रभूय । त्रैलोक्यं जगत्रयम् । गोप. दायते गोष्पदमिवात्मानमाचरति । समुदावार्थ:-प्रज्ञायां तनु. वं गला स्वालोकं गोविंदा अस्यते पुरुषेण वा पुनः सानान्तर्गत भूत्वा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ समन्तभद्र- भारती लोक्यं गोष्पदायते तथापि न हर्षो नापि विषादो यतः त्वमेव सर्वज्ञो वीतरागश्च अतः तुभ्यं नमोस्तु इति सम्बन्धः ॥ १०५ ॥ अर्थ - हे भगवन् ! ये संसारके प्राणी अपनी तुच्छ बुद्धिके अनुसार थोड़ेसे पदार्थों को सत्यरूप जान कर अपने आपको पृथिवीका ज्ञाता मान बैठते हैं परन्तु चौदह राजु प्रमाण तीन लोक आपके ज्ञानके अन्तर्गत प्रतिबिम्बित - होकर गोष्पद केगाय के खुरके - समान मालूम होते हैं । भावार्थ - यहां संसारी प्राणी तथा भगवान् महावीरके बीच व्यतिरेक बतलाया गया है - संसारी प्राणी अपने क्षयोपशमके अनुसार थोड़े से पदार्थोंको जानकर अपने आपको बहुज्ञानी समझ कर हर्ष या मद करने लग जाते हैं परन्तु भगवान् महा वीरका ज्ञान इतना विशाल है कि उसमें तीनों लोक गायके खुर के समान अत्यन्त तुच्छ मालूम होते हैं। उनका केवलज्ञान यदि समुद्र है तो उसके सामने ये तीनों लोक गोष्पद हैंअत्यन्त अल्प हैं । इतने महान ज्ञानी होनेपर भी उन्हें कुछ भी हर्ष याविषाद नहीं होता अतः वे सर्वथा पूज्य है ॥ १०५॥ ( श्लोकयमकः ) - 1 को विदो भवतोपीड्यः सुरानतनुतान्तरम् । शं सते साध्वसंसारं स्वमुद्यच्छन्नपीडितम् ॥१०६॥ कोवीति - कः किमोरूपम् । विदो ज्ञानानि । भवतः स्वत्तः । अपि । ईट् स्वामी । यः यदोरूपम् । सुरान् श्रमरान् । श्रपि शब्दोऽत्र सम्बन्धनीयः सुरानपीति । श्रतनुत विस्तारयतिस्म । अन्तः चित्ते भवं श्रान्तरं श्रात्मोत्थम् । शं सुखम्, सते शोभनाय । साधु शोभनं । श्रसं सारं सांसारिकं न भवति । सुष्ठु श्रमुत् स्वमुत् विनष्टराग इत्यर्थः । यच्छन् ददत् । श्रपीडितं अबाधितम् । समुदायार्थ :- हे वर्धमान भवतो नाम्यः ईट् यः सुरानपि विदः श्रतनुत सुखं श्रान्तरं साधु संसारं Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या पीडितं यच्छन् सत शोभनपुरुषाय स कोऽन्यो भवतः स्वमुत् इंट अवता हि न कश्चित् तस्मात् भवानेव सर्वज्ञः ॥१०॥ । अर्थ हे वर्धमान स्वामिन् ! आपसे अतिरिक्त ऐसा कौन मामी है जो कि देवोंको भी ज्ञान सम्पादन करावे और भव्य रुषोंके लिये आत्मोत्थ, उत्कष्ट तथा बाधारहित मोक्ष-सम्बन्धी सुखको देता हुआ भी स्वयं रागसे रहित हो ? हे नाथ ! ऐसे पाप ही हो अतः आपको नमस्कार हो । : भावार्थ-संसारके लोगोंने जिन्हें ईश्वर माना है वे स्वयं इतने भल्पज्ञानी थे कि उन्हें आगे-पीछेकी बालका जान लेना मुश्कि ह था। ऐसी परिस्थितिमें वे जन्मसे ही मति, श्रुत, तथा अवधि ज्ञानके धारण करनेवाले देवोंको क्या ज्ञान देते ? परन्तु श्रीवर्धमानस्वामी इतने अधिक ज्ञानी थे कि वे तीनों लोक और तोनों काल-सम्बन्धी पदार्थोको स्पष्ट जानते थे और इसी लिये देवोंको भी ज्ञान प्रदान करनेमें समर्थ थे। संसारके माने हुए ईश्वर यदि किसीको सुख प्राप्त करनेका उपदेश भी देते थे तो उससे प्राप्त होनेवाला सुख बाह्य, हीन, संसारको बढ़ानेवाला और बाधक कारणोंके मिलने पर नष्ट हो जाने वाला ही होता था। इतना होने पर भी वे अपनेको परम परोप कारी समझ कर हर्षित होते थे परन्तु भगवान् वर्धमानके उप देशसे लोगोंको जो सुख प्राप्त होता था वह उससे सर्वथा विपरीत था- आत्मीय, उत्कृष्ट, मोक्षसम्बन्धी और बाधारहित था। इतना होने पर भी वे रागसे रहित थे, उन्हें हर्ष-विषाद तथा अहंकार वगैरह कुछ भी नहीं होता था। इन विशेषताओं को दृष्टिगत करके आचार्य समन्तभद्रने ठोक ही कहा है कि आपके सिवाय श्राप जैसा और कौन ईश्वर है ? अर्थात् कोई भी नहीं है-आप अनुपम हैं ॥१०॥ . . : Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ समन्तभ-भारती (बमकः ) कोविदो भवतोपीड्यः सुरानत नुतान्तरम् । शंसते साध्वसं सारं स्वमुद्यच्छन्नपीडितम् ॥१०७॥ कोविदेति-कोविदः विचक्षणः। भवतः संसारात् । अपीय अबाधितः । हे सुरानत देवैः प्रणत । नुतान्तरं स्तुतिविशेषम् । शंसते प्राचष्टे । साध्वसं सम्भ्रमम् । सारं फलवत् । स्वं प्रात्मानं । उद्यच्छन् वहन विभ्रत् । ईडितमपि पूजाविधानमपि । अथवा ईडितं नुतान्तरं इति सम्बन्धः । समुदायार्थः - हे सुरानत योऽयं कोविदो जनः भवादपोख्य सन् नुतान्तरं शंसते पाचष्टे स्वं साध्वसं सारं ईरितमपि उद्यच्छन् यस्मात् तस्मादहं स्तुतिविशेषेण तुभ्यं नतः ॥१०॥ अर्थ-हे देवविनत ! जिनेन्द्र ! जो बुद्धिमान पुरुष आप. की स्तुति तथा पूजा-विधान करता है उसका श्रात्मा शीघ्र ही सफल हो जाता है और वह संसारके दुःखोंसे पीडित नहीं होता-जन्म-मरणके दुःख नष्ट कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। भावार्थ-हे भगवन् ! मैं भी तरह-तरहके स्तोत्रोंसे आपकी स्तुति कर रहा हूँ अतः मुझे भी मोक्षसुख प्रदान कीजिये ॥१०७॥ (समुद्गकयमक: ) 'अभीत्यावर्द्ध मानेनः श्रेयोरुगरु संजयन् । अभीत्या वर्धमानेन श्रेयोरुगुरु संजयन् ॥१०॥ अभीत्येति-प्रभीत्य मम चेतस्यागत्य । अव रक्ष। ऋद्ध वृद्ध । मा अस्मदः इबन्तस्य रूपम् । अनेनः हे अपाप । श्रेयः सुखं । रुगुरु अमोत्य+अब+ऋद्ध, मा+अनेनः: श्रेयः+गुरु ( रुवा उरु ), वर्षमान+ इन,श्रेयः+रुगुः (वित) इति पदच्छेदाः । 'सूर्याश्वमेंसजावत: गुरवः शार्दूलविक्रीडितम्' (बरनाकरे ) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या १२६ mmmmmmmmmmmmmmmmmm तेजसा महत् । संजयन् लगयन् । अभीत्या अभयेन दयया इत्यर्थः । हे वर्धमान जिनेश्वर । इन स्वामिन् । हे श्रेय सेव्य । उर्वी महती गोवांगी यस्यासौ उरुगुः त्वं दिव्यवाणीकः त्वं यतः । ४ निपातः । संजयन् सम्य. जयं कुर्वन् । किमुकं भवति-हे वर्धमान इन द अनेनः अ य उरुगुस्त्वं यत: ततः अभीत्या अभयेन श्रेय: रुगुरु संजयन् बगयन् जयंत्र मा अव रक्ष ॥१०॥ ___अर्थ-हे वर्धमान जिनेन्द्र ! आप वृद्ध हैं-ज्ञानादिगुणोंसे बड़े हैं, केवलज्ञानके साथ होनेवाले अनन्तसुखको देनेवाले हैं, अभयसे-दयासे--उपलक्षित हैं, सबके स्वामी हैं, सेव्य हैं, उत्कृष्ट दिव्यध्वनिको धारण करनेवाले हैं और (कर्मरूप शत्र ओंको ) जीतनेवाले हैं। हे प्रभो ! मेरे हृदयमें विराजमान होकर मेरी रक्षा कीजिये। भावार्थ-यद्यपि बुलानेसे जिनेन्द्रदेव किसीके हृदय में नहीं पहुँच जाते तथापि भक्तियोगमें ऐसा कहा जाता है ।।१०८।। (द्वयक्षरवृत्त शार्दूलविक्रीडितम्) नानानन्तनुतान्त तान्तितनिनुन्नुन्नान्त नुन्नानृत नूतीनेन नितान्ततानितनुते नेतोन्नतानां ततः । नुन्नातीतितनूनतिं नितनुतान्नीति निनूतातनुन्तान्तानीतिततान्नुतानन नतान्नो नूतनैनोत्तु नो ॥१०९॥ नानेति--श्रीवर्धमान इत्यनुवर्तते । नाना अनेकप्रकाराः । अनन्ताः अनूनाः अमेयाः नुताः स्तुताः अन्ता धर्माः यस्यासौ नानानन्तनुतान्तः तस्य सम्बोधनं हे नानानन्तनुतान्त अनेकप्रकारामेयस्तुतगुण इत्यर्थः। तांत खेदं करोतीति 'तत्करोति तदाचष्टे इत्यादिना सूत्र बिन् । तान्ति: 'अतः भावे कः इति क्तः' तान्तितं भवति । तान्तिवं दुःखं निनुदति प्रेरयति इति तान्ति निनुत् तस्य सम्बोधन हेवान्तिवनिलुर। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती ne In नुषः विनष्टः अन्तो विनाशो यस्यासो नुवान्तः तस्व सम्बोधन नुबान्त । नु विनाशितं अनृतं असत्यं यस्यासौ नुमानृतः तस्य सम्बोधनं हे नुमानृत विनष्टासस्य । नूतीनां स्तुतीनां इनाः स्वामिना नूतीना: नूतीनानां इनः स्वामी नतीनेनः तस्य सम्बोधनं हे नूतीनेन गणधरेन्द्रादिस्वामिन् । नितान्तं प्रत्यर्थः तानिता विस्तारिता नुतिः कीर्तिः स्तुतिर्वा यस्यासौ नितान्ततानितनुतिः तस्य सम्बोधनं हे नितान्ततानितनुते प्रत्यर्थविस्तारितकीर्ते । अथवा नूतीनेनेन गणधरेन्द्र नितान्ततानितनुते । नेता नायकः । उन्नतानां इन्द्रादिप्रभूणाम् । ततः तस्मात् । तनुः शरीरं तनोन्नतिमहत्त्वं तनूनति: अतीतिर्विनाश: अतीतिश्च तनूनतिश्च प्रतीतितनूवती, नुन्ने विनाशिते अतीतितनूवती यया सा नुन्नातीतितनुबतिः तां नुन्नातीतितनूनतिम् । नितनुताए कुरुतात् । नीति बुद्धि विज्ञानम् । अथवा नुन्नातीतितनूनतिं नितनुताक नीति च । न शब्दोनुक्तोऽपि दृष्टव्यः । निनूत स्तुत सुपूजित । अतनु महतीं । तान्तान् दुःखितान् । ईतिततान् व्याधिव्याप्तान् । हे नुतान नुतं स्तुतं पाननं मुखं यस्यासौ नुताननः तस्य सम्बोधनं हे नुतानन नतान् प्रणतान् । नः अस्मान् । नूतनं अभिनवं एनः पापं नतनैनः । अत्त भक्षयतु । नो प्रतिषेधे । किमुक्त भवति-हे श्रीवद्ध मान नाना नन्तनुतान्त यत: उन्नतानां नेता त्वं ततः नीति नुन्नातीतितनम्नति अतनु नितनुतात् नतान् नः अस्मान् तान्तान् ईतिततान् नो नितनुतात् नूत नैनश्च अत्तु भक्षयतु अन्यानि विशेषणानि भट्टारकस्य विशेष णानि ॥१०॥ ___ अर्थ-हे श्रीवर्धमान ! अनेक भव्य जीवोंने आपके विविध गुणोंकी स्तुति की है, आप दुःखोंको नष्ट करनेवाले हैं, अन्त रहित हैं, आपने एकान्तवादरूप असत्यको नष्ट करदिया है गणधरादि देवोंने आपकी कीर्तिको अत्यन्त विस्तृत किया है। आपके शासनका प्रचार कर आपका उज्वल यश सब ओ फैलाया है। आप इन्द्र आदि उत्तम पुरुषोंके नायक हैं, पूजित Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्तुतिविद्या है और आपका मुख भी अत्यन्त प्रशंसनीय है । हे पूज्य ! हम लोग सांसारिक दुःखोंसे पीड़ित हैं,अनेक व्याधियोंसे घिरे हुए हैं और आपके चरणों में विनत हैं। आप हम लोगोंको वह केवलज्ञानरूप महाविद्या प्रदान कीजिये जो कि जन्ममरणको नष्ट करनेवाली है। इसके सिवाय हे प्रभो ! हमारे इन नये बँधनेवाले पापोंको भी नष्ट कर दीजिये अर्थात् संवर और निर्जराकी पूर्ण कला सिखलाकर हमें शीघ्र बन्धन-मुक्त कीजिये ॥१०॥ (चक्रवृत्तम् ) वंदारुप्रबलाजवंजवभयप्रध्वंसिगोप्राभव वर्धिष्णो विलसद्ग णार्णव जगन्निर्वाणहेतो शिव । वंदीभूतसमस्तदेव वरद प्राज्ञ कदक्षस्तव वंदे त्वावनतो वरं भवभिदं वर्षेकवंद्याभव ॥११॥ ५ 'षडरं चक्रमालिख्यारमध्ये स्थापयेत्कविः । त्रीपादान्नेमिमध्ये तु चतुर्थं चक्रवृत्त के ।' . -त्रालंकारचिन्तामशिः। छह अरोंवाला एक चक्र बनाकर अरों के बीचमें प्रात्मके तीन पाद लिखने चाहिये, अवशिष्ट चौथापाद नेमि-चक्रधारा--अन्तिमपरिधिमें लिखना चाहिये । इसी प्रकार अन्यत्र पाये हुए चक्रोंकी रचना समझना चाहिये । इस अलंकारमें कभी-कभी अपना इष्टतम-मनचहा-पाद गूढ भी हो जाता है अर्थात् उस पादके समस्त अक्षर शेषके तीन पादोंमें समाविष्ट हो जाते हैं; जैसा कि इस ग्रन्थके 11 और ११२ नं० के श्लोकों में हुआ है। कभी-कभी कविका नाम भी श्लोकके किसी वलयमें माजाता है; जैसा कि ११६ ० के श्लोकके बाहरसे भीतरकी अोर सातवें वलयमें 'शान्तिवर्मकृतं' श्रागया है । शान्तिवर्मा समन्तभाका दूसरा जन्मनाम है और जो उनके पत्रिय कुलोत्पन्न होनेका घोतक है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती वन्देति - परं चक्रं भूमौ फलके या व्याक्षिस्य त्रयः पादाः परमध्ये स्थाप्याः । चतुर्थपादो नेमिमध्ये एवं च सर्वचक्रवृचानि रहव्यानि । १३२ वन्दारवः वन्दनशीला प्रबलं प्रचुरं श्राजवंजवः संसारः भयं भीः प्राजथंजवाद्भयं श्राजवंजवभयं प्रबलं च तत् श्राजवंजवभयं च तत् प्रच बाजवं जवमयं । वन्दारूणां प्रबलाजवंजवभयं वन्दारुप्रवलाजचं जवभयं । तत् प्रध्वंसयति विनाशयतीत्येवंशीलं वन्दारुप्रबलाजवंजवभयप्रध्वंसि । प्रभोर्भाव: प्राभवम् । गोर्वाण्याः प्राभवं प्रभुत्वं गोप्राभवं वाणीमाहात्म्य - मित्यर्थः । वन्दारुप्रबल जवंजवभयप्रध्वंसि गोप्राभवं यस्यासौ वन्दारुप्रबलाजचंजयभयप्रध्वंसिगोप्राभवः तस्य सम्बोधनं वन्दारुप्रबलाजवं जयभयप्रध्वंसिगोप्राभव । वर्द्धिष्णो वद्ध नशील । गुणा एव श्रवो गुणार्णवः विलसन् शोभमानो गुणार्णवो गुणसमुद्रो यस्यासौ विलसद्गुणार्णवः तस्य सम्बोधनं चिल्लसद्गुणार्णव । निर्वाणस्य मोक्षस्य हेतुः कारणं निर्वा यहेतुः । जगतां भव्यलोकानां निर्वाणहेतुः जगन्निर्वाण हेतुः । तस्य सम्बोधनं हे जगनिर्वाण हेतो । शिव परमात्मन् वन्दीभूताः मङ्गलपाठकीभूताः समस्ताः देवाः विश्वे सुरवराः यस्यासौ वन्दीभूतसमस्तदेवः तस्य सम्बोधनं हे वन्दीभूतसमस्तदेव । वरद इष्टद । प्राज्ञानां मतिमतां एक: प्रधानः प्राज्ञैकः । दक्षाणां विचक्षणानां स्तवः स्तुतिवचनं यस्यासौ दक्षश्रथवा दक्षैः स्तूयते इति दक्षस्तवः प्राज्ञ कश्चासौ दसस्तवश्च प्राज्ञ कदक्षस्तवः तस्य सम्बोधन प्राज्ञ कदतस्तव । वन्दे स्तुवे । स्वा भवन्तम् । श्रवनतः प्रणतः । वरं श्र ेष्ठम् । मवमिदं संसारस्य भेदकम् । हे वर्य शोभन । एक: वन्द्यः एकवन्द्यः तस्य सम्बोधनं हे एकवन्ध । संसारित्वेन न भवति इत्यभवः तस्य सम्बोधन हे श्रभव । एतदुक्त भवति - हे व मान भट्टारक ! सम्बोधनान्तानि सर्वाणि विशेषणानि श्रस्यैव भवन्ति । वन्दे श्रवनतो भूत्वाऽहं स्वा किं विशिष्टं वरं भवमिदम् इति ॥ ११० ॥ स्तव: अर्थ- हे भगवन् ! जो आपको नमस्कार करते हैं Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या १३३ उनका संसार-सम्बन्धी प्रचुरभय आपकी दिव्यध्वनिके माहाम्यसे नष्ट होजाता है। आप ज्ञानादिगुणोंसे हमेशा बढ़ते ही रहते हो, अपका गुणरूपी समुद्र बड़ा सुन्दर है । आप संसारी जीवोंकी मुक्तिके कारण हो, कल्याणरूप हो । समस्तदेव आपके बंदी हैं-चारण हैं-सदा ही आपका गुणगान किया करते हैं। आप मनोवांछित वरोंको देनेवाले हो । श्रेष्ठज्ञानी हो, बड़े बड़े. चतुर मनुष्य आपका स्तवन किया करते हैं, आप सर्वोत्कृष्ट हो, संसारपरिभ्रमणको नष्ट करनेवाले हो, पूज्य हो, वन्दनीय हो और पञ्च-परावर्तनरूप संसारसे रहित हो। हे प्रभो ! भक्तिसे प्रणत होता हुआ मैं भी आपको नमस्कार करता हूँ ॥११०॥ (इष्टपादवलयप्रथमचतुर्थसप्तमवलयैकाक्षरचक्रवृत्तम्') नष्टाज्ञान मलोन शासनगुरो नम्रजनं पानिन नष्टग्लान सुमान पावन रिपूनप्यालुनन् भासन । नत्येकेन रुजोन सज्जनपते नन्दन्ननन्तावन नन्दन हानविहीनधामनयनो नःस्तात्पुनन् सज्जिन ॥११॥ नेष्टति-नष्ट विनष्ठ प्रज्ञानं यस्यासौ नष्टाज्ञान: तस्य सम्बोधन हे नष्टाज्ञान । मलेन कर्मणा उनः रहितः मलोनः तस्य सम्बोधनं हे मलोन । शासनस्य दर्शनस्य प्राज्ञाया वा गुरुः स्वामी शासनगुरुः तस्य सम्बोधनं हे शास नगुरो । ननं नमनशीलम् । जनं भव्यलोकम् । पान् रक्षन् । इन स्वामिन् । नष्टं विनष्ठ ग्लानं मूच्छादिकं यस्यासौ नष्टग्लान: तस्य सम्बोधनं हे नष्टग्लान । योभनं मानं विज्ञानं यास्यासौ सुमानः तस्य सम्बोधनं हे सुमान | पावन पवित्र । रिपूनपि अन्तः शत्र नयालुनन् पा समन्तात् खण्डयन् । भासन शोभन । नतीनां प्रणतीना एक इष्टः पादो वलयरूपो भवतीत्यर्थः । इसमें मनोनीत पाद पलक में लिखा जा सकता है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ समन्तभद-भारती प्रधानः इनः स्वामी नत्येकेनः तस्य सम्बोधनं हे नत्येकेन । रुजया रोगेण ऊनः रुजोनः तस्य सम्बोधनं हे रुजोन । सज्जनानां पतिः सज्जनपतिः तस्य सम्बोधनं हे सज्जनपते । नन्दन् श्रानन्दं कुर्वन् । अनन्त अविनाश । अवन रक्षक । नन्तन स्तोतृन् । हानेन क्षयेण विहीनं ऊनं हानविहीनं धाम तेजः हानविहीनं च तत् धाम च हान. विहीनधाम,हानविहीनधामैव नयनं यस्यासौ हानविहीनधामनयनः स्वम् । नः अस्मान् । स्तात् भव । पुनन् पवित्रीकुर्वन् । हे सज्जिन शोभनजिन । एतदुक्तं भवति-हे भट्टारक नष्टाज्ञान नम्र जनं पान् रिपूनप्यालुनन् नन्तृन् नन्दन् नः अस्मान् पुनन् हानविहीनधामनयनस्त्वं स्तात् । शेषाणि सर्वाणि सम्बोधनान्तानि पदानि अस्यैव विशेषणानि भवन्तीति ॥११॥ अर्थ-भगवन् ! आपका अज्ञान नष्ट हो गया है, आप कर्ममलसे रहित हैं, जैनशासन अथवा अप्रतिहत आज्ञाके स्वामी हैं, मूर्छादिक परिग्रहसे रहित हैं। आपका ज्ञान अत्यन्त शोभायमान है,आप अत्यन्त पवित्र हैं, प्रकाशमान हैं,नमस्कार के मुख्य स्वामी हैं-इन्द्रादि सब प्रधान पुरुष आपको ही नमस्कार करते हैं । आप रोगरहित हैं, सज्जनोंके अधिपति है, अन्तरहित हैं, रक्षक हैं, अथवा अनन्त प्राणियों के रक्षक हैं और उत्तम जिनेन्द्र हैं । हे प्रभो ! आप नम्र मनुष्योंकी रक्षा करते हुए, काम-क्रोध आदि अन्तरङ्ग शत्रु ओंको नष्ट करते हुए, नमस्कार करनेवालोंको समृद्धसम्पन्न करते हुए और मुझ समन्तभद्रको पवित्र--राग. दषसे रहित-करते हुए चिरकाल तक हानिविहीन केवलसान-लोचनसे युक्त तिष्ठे॥१११।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या ( इष्टपादवलयप्रथमचतुर्थसप्तमवलयकावर वृत्तम् ) रम्यापारगुणारजस्सुरवरैरक्षिर श्रीधर रत्यूनारतिदूर भासुर सुगीर्योत्तर्णीश्वर । रक्तान् क रकठोरदुद्धररुजोरक्षन् शरण्याजर रक्षाधीर सुधीर विद्वर गुरो रक्त चिरं मा स्थिर ॥ ११२॥ रम्येति-इष्टपादो वलयरूपेण भवतीत्यर्थः । रम्य रमणोय । अपारगुण अपरिमेयगुण । अरजः ज्ञानावरणादिकर्मरहित । सुरवरैः देवप्रधानैः । अय॑ पूज्य ! अक्षर अनश्वर । श्रीधर लचमीभृत् । रत्या रागेण ऊन रहित | अरते २: विप्रकृष्टः अरतिद्रः तस्य सम्बोधन हे अरतिदूर। भासुर भास्वर । शोभना गोर्वाणी यस्यासौ सुगी: त्वमिति सम्बन्धः । अर्थ स्वामिन् । उत्तराः प्रकृष्टाः ऋद्धयो विभूतयः उत्तरयः उत्तरर्धीनां ईश्वरः स्वामी उत्तरर्धीश्वरः तस्य सम्बोधन हे उत्तरश्विर। रक्तान् भवान् । करा रौद्रा, कठोरा निष्ठुरा, दुरा असहा, रुक ज्याधिः, करा चासो कठोरा च क्रूरकठोरा, करकठोरा चासौ दुद्धरा चक रकठोरदुद्धरा, ऋ रकठोरदुद्धरा चासौ रुक् च क रकठोरदुद्ध रुक तस्या: रक्षन् प्रतिपालयन् । शरण्य शरणीय | अजर जराहीन । रक्ष पालय । प्राधिर्मनः पीडा प्राधि इरति क्षिपतीत्याधीरः तस्य सम्बोधनं हे प्राधीर । सुधीर अक्षोभ । विदा पण्डितानां वरः प्रधान: विद्वरः तस्य सम्बोधनं हे विद्वर । गुरो स्वामिन् । रक्त भक्तम् । चिरं अस्यर्थम् । मा अस्मदः प्रयोगः । स्थिर नित्य । एतदुक्तं भवति-हे भट्टारक रम्य इत्यादि गुणविशिष्ट क्रूरकठोरदुद्धररुजो रक्तान् रक्षन् मा रक्त रख ॥१२॥ अर्थ-हे अत्यन्त सुन्दर ! हे अनन्तगुणोंके धारक ! हे ज्ञानावरणादि कर्मसमूहसे रहित ! हे इन्द्रोंके द्वारा पूज्य ! हे अविनाशी ! हे समवसरणादि लक्ष्मीके धारक ! हे रागरहित ! हे द्वेषसे दूर रहनेवाले ! हे शोभायमान ! हे उत्तम वाणीके Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-भारती धारक ! हे स्वामिन् ! हे श्रेष्ठ ऋद्धियोंके नायक ! हे रक्षक ! हे जरारहित ! हे मानसिक व्यथाओंको हरनेवाले ! हे क्षोभरहित ! हे विद्वानों में श्रेष्ठ ! हे गुरो ! हे नित्य ! श्रीवर्धमान जिनेन्द्र ! आप अपने भक्त जनोंको भयंकर निष्ठुर और दुर्धर-- कष्टसाध्य रोगोंसे रक्षित करते हुए मुझ चिरस्नेही (समन्तभद्र) की भी रक्षा कीजिये ॥११२।। उपसंहार (चक्रवृत्तम् ) प्रज्ञा सा स्मरतीति या तव' शिरस्तद्यन्नतं ते पदे जन्मादः सफलं परं भवभिदी यत्राश्रिते ते पदे ।। मांगल्यं च स यो रतस्तव मते गीः सैव या त्वा स्तुते । ते ज्ञा ये प्रणता जनाः क्रमयुगे देवाधिदेवस्य ते ॥११३॥ प्रज्ञति-प्रजा बुद्धिः । सा तदः प्रयोगः । स्मरति चिन्तयति । इति शब्दः अवधारणार्थः । या यदः टावन्तस्य रूपम् । तव ते स्मृत्यर्थदयेशां कर्मणीति ता भवतिः । शिरः मस्तकम् ! तत् यत् । नतं प्रणतम् । ते तव । पदे चरणे । जन्म गत्यन्तरगमनम् । अदः अदसः अप. रोजवाचिनो रूपम् एतदित्यर्थः । सफलं सकार्यम् । परं श्रेष्ठम् । भव. मिदी संसारभेदिनी । यत्र यस्मिन् । आश्रिते सेविते । ते तव । पदे चरगयुगलम् । माङ्गल्यं पूतं । च शब्दः समुच्चयार्थः । सः तदो रूपम् । यः यदो रूपम् । रतः रकः मकः । तव ते । मते श्रागमे । गीः वाक् । सैव सा एव नान्या । या त्वा भवन्तम् । स्तुते वन्दते । ते तदः जसन्तं , 'अधोगधंदयेशां कर्मणि' इति षष्ठी। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविया १३७ रूपम् । ज्ञाः पण्डिताः । ये यदो जसन्तं रूपम् । प्रणताः प्रकर्षण मताः । जना भक्तमव्यलोकाः । क्रमयुगे चरणद्वन्द्व । देवानामधिदेवः परमात्मा देवाधिदेवः तस्य देवाधिदेवस्य । ते तव । स्तुत्यवसाने कृत. कृत्यः सन् प्राचार्यः समन्तभद्रस्वामी उपसंहारकं करोति । किमुक्त भवति-भट्टारक सैव प्रज्ञा या त्वा स्मरति । शिरश्च तदेव यन्नतं ते पदे इत्येवमादि योज्यम् ॥११३॥ । ___अर्थ हे देवाधिदेव ! बुद्धि वही है जो कि आपका स्मरण करे-आपका ध्यानकरे, मस्तक वही है जो कि आपके चरणों में नत रहे-भुका रहे, जन्म वही सफल और श्रेष्ठ है जिसमें संसार परिभ्रमणको नष्ट करनेवाले आपके चरणोंका आश्रय लियागया हो, पवित्र वही है जो कि आपके मतमें अनुरक्त हो, वाणो वही है जो कि आपकी स्तुति करे, और बुद्धिमान् - पंडितजन वे ही हैं जो कि आपके दोनों चरणों में नत रहें। . [ यहां परिसंख्याऽलंकार' है] (चक्रवृत्तम् ) सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वचच्चनं चापि ते हस्तावंजलये कथाश्र तिरतः कणों-क्षि संप्रेक्षते । सुस्तुत्यां व्यसनं शिरो नतिपर सेवेशी येन ते तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥११४॥ सुश्रद्धति-~सुश्रद्धा सुरुचिः । मम अस्मदः प्रयोगः । ते तव । १ सर्वत्र संभवद्वस्तु पत्र के युगपत्पुनः । एकत्र व नियम्येत परिसंख्या तु सा यया ॥ - अलंकारचिन्तामणि । सर्वत्र (सबमें) संभव होनेवाली वस्तुका किसी एकमें हो नियम करदेना परिसंख्या अलंकार कहलाता है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ समन्तभद्र- भारती ७ मते विषये । स्मृतिरपि स्मरणमधि । त्वयि युष्मदः ईवन्तस्य रूपम् । श्रर्चनं चापि पूजन ं चापि त्वय्येवेति सम्बन्धः । च शब्दः समुच्चयार्थः । ते तव । हस्तौ करौ । श्रञ्जलये श्रञ्जलिनिमित्तं ते इत्यनेन सम्बन्धः । कथा गुणस्तवन । कथायाः श्रुतिः श्रवणं कथाश्र तिः । तस्यां रतः रक्तः कथाश्रु तिरतः । कर्णः श्रवणम् । श्रति चक्षुः । सम्प्रेक्षते संपश्यति ते रूपमिति सम्बन्धः सामर्थ्याल्लभ्यते । सुस्तुत्यां शोभनस्तवने । व्यसनं तत्परत्वम् । शिरः मस्तकम् । नतिपर प्रणामतत्परम् । सेवा सेवनम् | ईदृशी ईदृग्भूता । प्रत्यक्षवचनमेतत् । येन यदो भान्तस्य रूपं येन कारणेनेत्यर्थः । ते तव । तेजस्वी भास्वान् । सुजनः शोभनजनः । श्रहं अस्मदो वान्तस्य रूपम् । एव अवधारणार्थः । श्रहमेव नाऽन्यः । सुकृती. पुण्यवान् । तेनैव तदो भान्तस्य रूपं । तेनैव कारणेनेत्यर्थः । हे तेज:पते केवलज्ञानस्वामिन् । समुदायार्थः - मम श्रद्धा या मम स्मृतिश्च या सा तचैव मते, ममार्चनमपि यत्तत् त्वय्येव, मम हस्तौ यौ त्वत्प्रणाम - अलि निमित्तम्, कर्णश्च मम ते कथा तिरतः श्रचि च मम तव रूपदर्शननिमित्तम् मम व्यसनमपि तव स्तुत्याम्, शिरश्च मम तव नतिपरम । येन कारणेन ईद्दशी सेवा मम हे तेजःपते तेनैव कारणेन श्रहमेव तेजस्वी सुजनः सुकृती नान्य इत्युक्त ं भवति ॥ ११४॥ 1 अर्थ - हे भगवन् ! मेरी श्रद्धा केवल आपके ही मत में है, मैं स्मरण भी आपका ही करता हूँ, पूजन भी आपका ही करता हूं, मेरे हाथ भी आपको अंजलि बांधने ( हाथ जोड़ने ) के लिये ही हैं, मेरे कान भी आपकी कथा सुनने में आसक्त हैं, मेरी आँखें केवल आपके रूपको देखती हैं - आपके दर्शन करती हैं, मुझे व्यसन आपकी स्तुति करने का ही है- मैं हमेशा आपकी स्तुतिमें ही लगा रहता हूँ और मेरा मस्तक भी आपको नमस्कार करनेमें तत्पर रहता है । है तेजःपते ! - हे केवलज्ञानके स्वामी ! इस तरह मैं आपकी सेवा करता हूं इसीलिये संसार में मैं तेजस्वी सुजन और पुण्यवान् ही हूं । " 7 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या भावार्थ-जिनेन्द्रकी आराधना करनेवाले मनुष्य की आत्मा आत्मीय तेजसे जगमगा उटती है,वह सर्वोत्कृष्ट पुरुष गिनाजाने लगता है तथा उसके महान पुण्यका बन्ध होता है। यहां प्राचार्य समन्तभद्रने भगवान्की आराधना कर अपने आपको उसके फल का अधिकारी बतलाया है। यहां परिसंख्याके साथ काव्यलिङ्ग' अलंकार भी है ।।११४|| (चक्रवृत्तम् ) जन्मारण्यशिखी स्तवः स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधेनौं : पदे । भक्तानां परमौ निधी प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा । वन्दीभूतवतोपि' नोन्नतिहतिर्नन्तुश्च येषां मुदा । दातारो जयिनो भवन्तु वरदा देवेश्वरास्ते सदा ॥११॥ जन्मेति-जन्म संसारः, अरण्यं अटवी, शिखी अग्निः, जन्मेवा. रण्यं जन्मारण्यम्,जन्मारण्यस्य शिखी जन्मारण्यशिखी । स्तवः गुणस्तवनम् । स्मृतिरपि स्मरणमपि । क्लेशाम्बुधेः दुःखसमुद्रस्य नौः पोतः । पदे पादौ । भक्तानामनुरक्तानां । परमौ श्रेष्ठो । निधी द्रव्यानिधाने । प्रतिकृति: प्रतिबिम्बम् । सर्वार्थानां सकलकार्याणां सिद्धि : निष्पत्तिः सर्वार्थसिद्धिः । परा प्रकृष्टा । वन्दीभूतबतोपि मंगलपाठकीभूतवतोपि नग्नाचार्यरूपेण भवतोपि ममेत्यर्थः । न प्रतिषेधवचनम् । उन्नतः माहात्म्यस्य हतिः हननं उन्नतिहतिः । नन्तुश्च स्तोतुश्च । येषां यदः १ 'हे तोक्यपदार्थत्वे काव्यलिंगं निगद्यते' -साहित्यदर्पण जहां हेतु ब्राय अथवा पदार्थगत होता है उसे 'काव्यलिङ्ग' कहते हैं। वाक्यगत २ ममेति योजनीयम् । ३ जायमानस्यापि मम । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० समन्तभद्र-भारती श्रमन्तस्य रूपम् । मुदा हर्षेण । दातारो दानशीलाः । जयोस्ति येषां ते जयिनः । भवन्तु सन्तु । वरं ददत इति वरदाः स्वेष्टदायिनः । देवानां सुराणां ईश्वराः स्वामिनः देवेश्वराः । ते तदो जसन्तस्य रूपम् | सदा सर्वकालम् । एतदुकं भवति - येषां स्तवः जन्मारण्यशिखी भवति, येषां स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधेश्च नौ भवति, येषां च पदे भक्तानां परमौ निधी येषां च प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा, येषां नन्तुमुदा वन्दीभूततोपि नोन्नतिहतिः, ते देवेश्वरा: दातारः जयिनः वरदाः भवन्तु सदा सर्वकालम् ॥११५॥ भवतः, अर्थ - जिनका स्तवन संसाररूप अटवीको नष्ट करनेके लिये अग्नि के समान है, जिनका स्मरण दुःखरूप समुद्रसे पार होनेके लिये नौका के समान है, जिनके चरण भक्त पुरूषोंके लिये उत्कृष्ट निधान- खजाने के समान हैं, जिनकी श्रेष्ठ प्रतिकृतिप्रतिमा की सिद्धि करने वाली है और जिन्हें हर्षपूर्वक प्रणाम करनेवाले एवं जिनका मङ्गलगान करनेवाले - नग्नाचार्यरूपसे (पक्ष में स्तुतिपाठक - चारण - रूप से) रहते हुए भी मुझ - समन्तभद्रकी उन्नति में कुछ बाधा नहीं होती वे देवोंके देव जिनेन्द्र भगवान् दानशील, कर्मशत्रु पर विजय पानेवाले और सबके मनोरथों को पूर्ण करनेवाले हों । Manag भावार्थ - यहां पूर्वार्ध के दो चरणों में रूपकालंकार है परन्तु तृतीय चरण में विरोधालंकार प्रदर्शित किया गया है। वह इस प्रकार है - 'जो किसीका बन्दी स्तुतिपाठक या चारण होकर उसे नमस्कार तथा उसका गुणगान करता है वह लोक में बहुत ही अवनत कहलाता हैं परन्तु श्रीजिनेद्रदेवकी स्तुतिकरने- उनका बन्दी - चारण बननेपर भी आचार्य समन्तभद्रकी महत्ता नष्ट नहीं हुई, बल्कि सातिशय पुण्य बन्धकर उन्होंने पहले से भी अधिक उत्कृष्टताको प्राप्त किया ।' विरोधका परिहार यही है कि 'महापुरुषोंके संसर्गसे सब विरोध दूर हो जाते हैं ||११५ || ---- Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविधा rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr rrrrrrrrror ( कविकाव्यनामगर्भचक्रवृत्तम् ') गत्वैकस्तुतमेव वासमधुना तं येच्युतं स्वीशते यन्नत्यति सुशर्म पूर्णमधिकां शान्ति वजित्वाध्वना । यद्भक्त्या शमिताकृशाघमरुजं तिष्ठेज्जनः स्वालये ये सद्भोगकदायतीव' यजते ते मे जिनाः सुश्रिये ॥११६॥ गत्वेति-पडरं नववनयं चक्रमालिख्य सप्तमवलये शान्तिवर्म: कृतं इति भवति । चतुर्थवलये जिनस्तुतिशतं इति च भवति अतः कवि-काव्यनामगर्भचक्रवृत्तं भवति ।। __ गत्वा यात्वा । एकः प्रधानः, स्तुतः पूज्पः, एकश्चासौ स्तुतश्च एकस्तुतः तं एकस्तुतम् । एवकारोवधारणार्थः। वासं मोक्षस्थानम् । अधुना साम्प्रतम् । तं तदः इवन्तस्यरूपम् । ये यदो जसन्तस्यरूपम् । अच्युतं अक्षयम् । स्वीशते सुऐश्वर्य कुर्वत । येषां नति: स्तुतिः यन्नतिः तया यन्नत्या । एति आगच्छति । सुशर्म अनन्तसुखम् । पूर्ण सम्पूर्णम् । अधिकां महतीं प्रधानां । शान्ति शमनम् । बजिस्वा गत्वा । अध्वना सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमार्गेण । येषां भक्तिः सेवा यद्भक्तिः तया यद्भक्त्या । शमितं शान्तं नष्ट अकृषाघ, अकृशं महत् अघं पापं, अकृशं च तदघंच अकृषाघ, शमितं च तत् अकृषाधं च शमिताकृषाघम् क्रिया छह अरों तथा नव वलयोंसे युक्त चक्राकार रचना बनाकर उसमें श्लोकको पूर्वोक्त विधिमे लिखना चाहिये । इस श्लोकके सातवें वलयमें 'शान्तिवर्मकृतं' और चौथे वलयमें 'जिनस्तुतिशतं' निकलता है। अत: यह श्लोक 'कविकाव्य नामगर्भचक्रवृत्त' कहलाता है। २ 'सु+आलये' 'स्व+आलये' इति वा सन्धिः । ३ सद्भागकदा:+अतीव' इति सन्धिः । ४ यजते इति शत्रन्तस्य यजधातोश्चतुर्छा रूपम् । पूजकायेस्यर्थः । 'यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' इति यजधातोराः । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ समन्तभद्र-भारती विशेषणमेतत् । रुजा रोगः न विद्यते रुजा यस्मिन् तत् अरुजम् । तिष्ठेतू अास्येत । जनः भव्यलोकः । स्वालये शोभनस्थाने । ये यदो जसन्तस्य रूपम् । भोगः सुखांगं सन् शोभनो भोगः सद्भोगः सद् भोग एव सद्भोगकः तं सद्भोगकं ददत. इति सद्भोगकदाः शोभनभोगदातारः इत्यर्थः। अतीव अत्यर्थम् । यजते पूजकाय यज देवपूजा. संगतिकरणदानेषु इत्यस्य धोः शत्रन्तस्य रूपम् । ते तदो जसन्तस्य रूपं परोक्षवाचि । मे मम | जिनाः श्रीमदहन्तः । शोभना श्रीः सुश्री: तस्यै सुश्रिये । भवन्त्वित्यध्याहार्यम् । किमुक्तं भवति–एवंगुणविशिष्टाः जिनाः ते मे भवन्तु सुश्रिये मोक्षायेत्यर्थः ॥११६॥ अर्थ-जो इस समय परम पूज्य और विनाशरहित मोक्षस्थानको पाकर परमऐश्वर्यका अनुभव कररहे है, जिनको नमस्कार करने मात्रसे पूर्ण-अनन्त सुख प्राप्त हो जाता है, जिनकी भक्तिसे यह जीव अधिक शान्तिको पाकर सम्यग्दर्शन सम्य. रज्ञान और सम्यक्चरित्ररूप मार्गके द्वारा स्वालय में-उत्तम आलय अथवा आत्मआलयमोक्ष-मन्दिरमें जाकर निवास करता है और इसके बड़ेसे बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं तथा सब रोग दूर हो जाते हैं। और जो अपने पूजकों-भक्तोंके लिये उत्तम भोग प्रदान करते हैं वे देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् मेरे-समन्तभद्र के-लिये भी मोक्षरूप लक्ष्मी प्रदान करें। अर्थात् मेरी मुक्तिश्रीकी प्राप्तिमें प्रधान सहायक बनें। इति कवि गमकि-वादि-वाग्मित्व-गुणालंकृवस्य श्रीसमन्तभद्रस्य कृतिरिय स्तुतिविद्या जिनशतालङ्कारापरनाम समाप्ता । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्याके पद्योंका वर्णाऽनुक्रम पद्य पृष्ठ । पद्य पृष्ठ अतमः स्वनतारक्षी ग्लानं चैनश्च नः स्येन ११२ अपराग समाश्रयन् चक्रपाणेर्दिशामूढा अपराग समाश्रेयन् चन्द्रप्रभो दयोजेयो अपापापदमेयश्री. ३४ | चारुश्रीशुभदौ नौमि अभिषिक्तः सुरैलोकै- ५७ चावस्यैव क्रमेज़स्य ५८ अभीत्यावई मानेनः १२८ जन्मारण्यशिखी स्तवः १३६ अविवे को न वा जातु ५४ जयतस्तव पार्श्वस्य पालोक्य चारु लावण्यं ५५ ततोतितातु तेतीतआसते सततं ये च ७ ततोमतिमतामीमं पास यो नतजाती- १११ तनुतात्सद्यशोमेय ११६ एतच्चित्र क्षितेरेव ५० तमोत्तु ममतातीत १२१ एतच्चित्र पुरोधीर | तावदास्व त्वमारूढो काममेत्य जगत्सारं तिरीटघटनिष्ठय तं ७६ कुत एतो नु सन्वर्णो ७८ त्रयोलोकाः स्थिताः स्वैरं कुन्थवे सुमृजायते १०१ त्रिलोकीमन्वशास्संगं. ८१ केवलाङ्गसमाश्लेष- २ त्वमवाध दमेनर्द्ध ६७ को विदो भवतोपीड्यः १२६ / दिव्यैर्ध्वनिसितच्छत्र- १० कोविदो भवतोपीड्यः १२८ देहिनो जयिनः श्रेयः ३२ क्रमतामक्रम क्षेमं ६० धाम त्विषां तिरोधान- ४१ खलोलूकस्य गोत्रात- ४३ धाम स्वय ममेयात्मा २ गत्वैकस्तुतमेव १४१ । धिया ये श्रितयेता] . ६ गायतो महिमायते २१ धीमत्सुवन्धमान्याय . १२२ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १४४ समन्तभद्र-भारती न चेनो न च रागादि- २५ | भवत्येव धग मान्या ७३ नतपाल महाराज ६८ भामते विभुताऽस्तोना १६ नतपीलासनाशोक मानसादर्शसंक्रान्तं ६६ नतयात विदामीश १०३ मानोनामनूनानां ११६ नन्दनश्रीजिन त्वा न ३० यतः कोपि गुणानुक्त्या ६६ नन्दनं त्वाप्यनष्टो न ३१ यतः श्रितोपि कान्ताभि- १३ नन्धनन्तद्धर्थ नन्तेन २८ यत्तु खेदकर ध्वान्तं ४२ नमेमान नमामेन- ११४ यमराज विनम्रन १०७ न मे मामनमामेन येयायायाययेयाय २० नयमानक्षमामान यो लोके त्वा नतः सोति-१०१ नय मा स्वर्य वामेश १०६ रक्षमाक्षर वामेश १०७ नयसत्त्वर्तवः सर्वे रम्याशरगुणारजनर्दयाभर्त्तवागोद्य रुचं बिभर्तिना धीरं नष्टाज्ञान मलोन रोग-पात-विनाशाय नागसे त इनाजेय रोगपात-विनाशाय नानानन्तनुतान्त लोकत्रयमहामेयनुन्नानृतोन्नतानन्त ६६ लोकस्य धोर ते वाढं नेतानतनुते नेनो- ६२ वरगौरतनु देव परान्पातुस्तवाधीशो ८५ वर्णभार्यातिनन्द्याव पारावाररवारापा- १०३ वंदारुप्रबलाजवंजव. १३१ पावनाजितगोतेजो ११३ वंदे चारुरुचां देव ३५ पूतस्वनवमाचारं २५ वामदेव क्षमाजेय १२३ प्रकाशयन् खमुद्भूतः ३६ विश्वमेको रुचामाको १४ प्रज्ञायां तन्वृतं गत्वा १२५ | वीरं मा रक्ष रक्षार ११० प्रज्ञा सा स्मरतीतिया १३६ | वीरावारर वारावी १०६ प्रयत्येमान स्तवान्वश्मि १७ शंसनाय कनिष्ठाया- ४६ प्राप्य सर्वार्थसिद्धिं गां ७१ शं स नायक निष्ठाया- ४७ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्याका पद्यानुक्रम शोकक्षयकृदव्याधे ४८ | स्तुवाने कोपने चैव श्रितः श्रेयोप्युदासीने १५ स्नात स्वमलगम्भीरं २ | स्वचित्तपटयालिख्य श्रीमज्जिनपदाभ्याशं सदक्षराऽजराऽजित २३ | स्वयं शमयितुं नाशं सदक्ष-राज-राजित २४ स्वयं शमयितुं नाऽशं समस्तपतिभावस्ते समस्तवस्तुमानाय सिद्धस्त्वमिह संस्थानं सुश्रद्धा मम ते मते ५ १२२ १७ १७ ८८ स्वसमान समानन्द्या ६५ १२४ हतभीः स्वय मेध्याशु ११८ ६ | हरती ज्याहिता तान्तिं १३७ | हृदि येन धृतोसीन: ५३ ७६ १४५ ३६ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट यहाँ काव्य-चित्रोंके कुछ उदाहरण अपने-अपने काव्य के साथ दिये जाते हैं, जिससे उनके विषय का यथेष्ट परिज्ञान हो सके। साथमें चित्रोंका ठीक परिचय प्राप्त करनेके लिये जरूरी सूचनाएँ मी दी जा रही हैं । इन सबको देनेसे पहले चित्रालङ्कार-सम्बन्धी कतिपय सामान्य नियमोंका उल्लेख कर देना आवश्यक है, जिससे किसी प्रकार के भ्रमको अथवा चित्रभङ्गकी कल्पनाको कहीं कोई अवकाश न रहे । चित्रालङ्कारोंके सामान्य नियम(१) "नाऽनुस्वार-विसर्गौ च चित्रभङ्गाय संमतौ।" _ 'अनुस्वार और विसर्गका अन्तर होनेसे चित्राऽलङ्कार भंग नहीं होता। (२) “यमकादौ भवेदैक्यं डलो रलो वोस्तथा ।" 'यमकादि अलङ्कारों में ड-ल, र-ल और व-ब में अभेद होता है। (३) यमकादि चित्रालङ्कारों में कहीं कहीं श-ष और न-ण में भी अभेद होता है; जैसा कि निम्न संग्रह श्लोकसे जाना जाता है "यमकादो भवेदेक्यं डलयो रलयोर्वबोः । शपयोनणयोश्चान्ते सविसर्गाऽविसर्गयोः सविन्दुकाऽविन्दुकयोः म्यादभेद-प्रकल्पनम् ॥" Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या काव्य-चित्रोंके कुछ उदाहरण (१) मुरजबन्धः श्रीमज्जिनपदाभ्याशं प्रतिपद्यागसां जये। कामस्थानप्रदानेशं स्तुतिविद्यां प्रसाधये ॥१॥ साध्या शं प्र विप घा ग सा मज्जिन १ दाम्या काम स्थान प्र दा - म स्थान .. ये सामान्य मुरजवन्धके दो चित्र हैं। इनमें पूर्वार्धके वि. षमसंख्याङ्क (१, ३, ५, ७, ६, ११, १३, १५) अक्षरोंको उत्तरार्ध के समसंख्याङ्क (२, ४, ६, ८, १,१२,१४, १६) अक्षरोंके साथ क्रमशः मिलाकर पढ़नेसे श्लोकका पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के विषमसंख्याङ्क अक्षरोंको पूर्वार्ध के सम संख्याङ्क अक्षरों के साथ क्रमश Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या पढ़नेसे क्रमशः द्वितीय-चतुर्थ चरण बन जाते हैं। इसी प्रकारके श्लोक नं०८३, ८, ६५ हैं। .. (४) गर्भ महादिशि चैकादरश्चतुरक्षरश्चक्रश्लोकः . नन्धनन्तद्धर्थ नन्तेन नन्तेनस्तेभिनन्दन । नन्दनर्द्धिरनम्रो न नम्रो नष्टोभिनन्ध न ॥२२॥ a ... एवं २३, २४ श्लोको यह श्लोकके प्रथमाक्षरको गर्भमें रखकर बनाया हुआ चार आरोंवाला वह चक्रवृत्त है जिसकी चार महादिशाओं में स्थित चारों आरोंके अन्तमें भी वही अक्षर पड़ता है। अन्त और उपान्त्यके अक्षर दो दो बार पढ़े जाते हैं। २३, २४ नम्बरके श्लोक भी ऐसे ही चक्रवृत्त है। . . Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (५) चकश्लोकः वरगौरतनुन्देव वन्दे नु त्वाक्षयाजव। वर्जयात्तिं त्वमार्याव वर्यामानोरुगौरव ॥२६॥ त्वा एवं ५३, १४ श्लोको यह श्लोकके प्रथमाक्षरको गर्भमें रखकर बनाया हुआ चार प्रारोंवाला चक्रवृत्त है। इसके प्रथमादि कोई कोई अक्षर चक्र में एक बार लिखे जाकर भी अनेक वार पढ़ने में आते हैं। ५३, १४ नम्बरके श्लोक भी ऐसे ही चक्रवृत्त हैं। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 契 मि स्त्रि भि अभिषिक्तः सुरैर्लोकैस्त्रिभिर्भक्तः परैकैः । वासुपूज्य मयीशेशस्त्वं सुपूज्यः कीदृशः ॥ ४८ ॥ . स्तुतिविद्या (६) अनन्तरपाद-मुरजबन्धः tr X ta+ षि བྷ་ fo ज्य: ន + इस चित्र में श्लोकका एक चरण अपने उत्तरवर्ती चरणके साथ मुरजबन्धको लिये हुए है। ऐसे दूसरे श्लोक नं० ६४, ६६, १०० पर स्थित हैं । : ७) यथेष्टका चरान्तरित - मुरजबन्धः । क्रमतामक्रमं क्षेमं धीमतामर्यमश्रमम् । श्रीमद्विमलमर्चेमं वामकामं नम क्षमम् ॥ ५० ॥ + की X ल •++. १४१ श: मं 7. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट मुरजबन्धके इस चित्र में ऊपरके चित्रसे यह विशेषता है कि इसमें अपना इष्ट अक्षर (म) एक एक अक्षरके अन्तरसे पचके चारों ही चरणों में बराबर प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है। इस प्रकारके दूसरे श्लोक ८६ और ६१ हैं। (८) अनुलोमप्रतिलोमैकश्लोकः नतपाल महाराज गीत्यानुत ममाक्षर । रक्ष मामतनुत्यागी जराहा मलपातन ॥१७॥ इस कोष्ठकमें स्थित पूर्वाधको उल्टा पढ़नेसे उत्तरार्द्ध बन जाता है। इसी प्रकार श्लोक नं०६६, ६८ भी अनुलोम-प्रतिलोमक्रमको लिए हुए हैं। (१) बहुक्रियापद-द्वितीयपादमध्य-यमकाऽतालुव्यञ्जना ऽवर्णस्वर-गूढद्वितीयपाद-सर्वतोभद्रः पारावाररवारापारा क्षमाक्ष क्षमाक्षरा । वामानाममनामावारक्ष मद्धद्ध मक्षर ॥८४॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविधा | र र वा रा पा राक्ष मा २ मा न रा वा मा नाम। म ना मा वा वा मा ना म म ना मा | वा रात मा त । क्ष क्ष मा क्ष | पा रा वा र र वा रा पा इस कोष्ठकमें ऊपरका श्लोक चारों ओरसे पढ़ा जाता है। (१०) गतप्रत्यागतपाद-पादाभ्यासयमक श्लोकः वीरावारर वारावी वररोरुरुरोरव । वीरावाररवारावी वारिवारिरि वार वा ॥८५॥ | वीरा वा र इस कोष्टक में स्थित प्रत्येक चरण के पूर्वार्धको उल्टा पढ़नेसे उसका उत्तराधे बन जाता है। यह श्लोक दो अक्षरों (व, र) से बना |वी रा वा र | वा. रि वारि एवं १३,२४ श्लोको। . Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (११) अनुलोम-प्रतिलोम-श्लोकयुगलम् रक्ष माक्षर वामेश शमी चारुरुचानतः । भो विभोनशनाजोरुनम्रन विजरामय ॥८६॥ - इस कोष्ठकमें स्थित श्लोकको उलटा पढ़नेसे नीचे लिखा ८७ वां श्लोक बन जाता है : यमराज विनम्रन रुजोनाशन भो विभो । तनु चारुरुचामीश शमेवारक्ष माक्षर ॥८७॥ रु इस कोष्ठकमें स्थित श्लोकको उलटा पढ़नेसे पूर्वका ८६ वाँ श्लोक बन जाता है। इसीसे श्लोकका यह जाड़ा अनुलोम-प्रतिलोम कहलाता है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्या. १५५ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwxxxmmmmm (१२) इष्टपादवलय-प्रथमचतुर्थसप्तमवलय काक्षर चक्रवृत्तम् नष्टाज्ञान मलोन शासनगुरो नम्र जनं पानिन नष्टंग्लान सुमान पावन रिपूनप्यालुनन्भासन । नत्येकेन रुजोन सज्जनपते नन्दन्ननन्तावन नन्दन्हानविहीनधामनयनो नः स्तात्पुनन्सज्जिन ॥११॥ .. न 8 इस चक्रवृत्तके गर्भ में जो अक्षर है वही छहों आरोंके प्रथम, चतुर्थ और सप्तम वलयमें भी स्थित है अतः १६ वार लिखा जाकर २८ वार पढ़ा जाता है। ११२ वाँ पद्य भी ऐसा ही है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (१३) कवि-काव्य नामगर्म चामृतम् गत्वैकस्तुतमेव वासमधुना तं येच्युतं स्वीशते यन्नत्यति सुशर्म पूर्णमधिका शान्ति वजित्वाध्वना । यद्भक्त्या शमिताकृशाधमरुजं तिष्ठेज्जनः स्वालये ये सद्भोगकदायतीव यजते ते मे जिनाः सुश्रिये ॥११६॥ बा ARJD इस चक्रवृत्तके बाहरसे ७वें वलयमें 'शान्तिवर्मकृतं' और चौथे वलयमें 'जिनस्तुतिशतं' पदों की उपलब्धि होती है, जो कवि और काव्यके नामको लिये हुए हैं। कवि और काव्यके नाम विना इस प्रकारके दूसरे चक्रवृत्त ११०, ११३, ११४, ११५२० के हैं। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ૪ A ४६ ५१ ५४ ५५ ५६ ५६ ६१ ६१ ६१ ६१ ६१ ६३ 34 19 ६४ >> 37. 99 ६५ ७१ ७२ ८२ Το da ૦ पंक्ति २१ २४ १४ १७ A tec ५ १२ १५ १६ २१ २२ २२ २२ २१ २२ २६-२७ १७ २१ 99 २६ १० १५ १ २३ २० ३-६ अशुद्ध गोपव स्ववत्पने द्विषेभृतम् अग्नि वेशा होते श्रेयन्नननामय दिखादे-ईगा तमितां अमुत्तमः अक्रमः प्रणामादिक्रमः स्तोतृणाम् गोपदं स्वपत्पते द्विषेमृतम् शुद्ध मा अयन पादेपु कल्याणरणतः पावक (अग्नि) - वेषा लेते जातेरूदाहरण पुमानन्न सम्बुद्धिः नयमान क्षमामान नमामार्या श्रेयन्ननामय दिखाई देगा तमिता प्रतिमुत्तमः अक्रमम् प्रणामादक्रमं स्तोतॄणाम् २-३ १-२ इत्यस्य दैवादिकस्य इत्यस्यदैवादिकस्य जातेरुदाहरण पुमानन्नसम्बुद्धिः नयमानक्षमामान न मामार्या मा । श्रयन पादेषु कल्याणतः कल्प कल्य शामाधरम् शमाधर म् मुरजबन्धश्चक्रवृत्तैः मुरजबन्धैश्चक्रवृत्तैः दिव्यर्ध्या दिव्यद्ध र्या Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ६५ ६७ १०४ १०६ " १०६ " ११४ पंक्ति ३ २२ १५ १३२ १३३ १३३ २३ १७ २४ "" ११६. ११ १२२ २२ ३ १६ १८ १२६ १७ १३१ १२ १६ १५ १४ x = x ma 93 १३४ ४ १३५ २३ १३६ २१ श्रशुद्ध श्रभोच्छिन् प्रयत्नपूर्वक पारावाररबार वरोरुरोरव वत् रीति शुद्ध श्रमोच्छिन् प्रयत्नपूर्वक तत् राति आसमन्ता' द्रक्षेति य समन्ताद्रक्षेति एकशि एकविंश पारावाररवार वररोरुरोरव अमनामः नुनीनां श्रीभते नूतीनेग वर्यैकद्याभव अनमामः मुनीनां श्रीमते नूतीनेन वयैकवद्याभव प्रध्वंसि गोप्राभवं प्रध्वंसिगोप्राभवं नन्तृन नन्तॄन् नन्दन्नननन्तावन नन्दन्ननन्तावन न नः नन्तृन् स्तोतृन नन्तृन् स्तोत्न् ज्ञानवरणादि ज्ञानावरणादि वाक्य वाक्यगत Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरके अन्य प्रकाशन १ प्राप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका और अनुवादादि-सहितसजिल्द "E २ बनारसी-नाममाला-हिन्दी शब्दकोश, शब्दानुक्रमससित ...। ३ श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र-हिन्दी अनुवादादिसहित ४ अनित्य-भावना-हिन्दी-पद्यानुवाद और भावार्थ-सहित ५ उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा-ऐतिहासिक प्रस्तावना-सहित । ६ प्रभाचन्द्रिका तत्त्वार्थसूत्र- अनुवाद तथा व्याख्या-सहित ...। ७ सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर-बद्ध मान और उनके बादके २१ महान् प्राचार्योंके १३७ पुण्य म्मरणोंका महत्वका संग्रह, हिन्दी-अनुवादादि-सहित ......" ८ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड-हिन्दी-अनुवादादि-सहित ... १| है शासन-चतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय)-हिन्दी अनुवादादि-सहित ॥ १० विवाह-समुद्दश्य-विवाहका मार्मिक और तात्विक विवेचन, उसके अनेक विरोधी विधि-विधानों एवं विचार-प्रवृत्तियोंसे उत्पन्न हुई कठिन और जटिल समस्याओंको सुलझाता हुआ ११ न्याय-दीपका-संस्कृत टिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्ता चना अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, सजिल्द १२ पुरातन जैनवाक्य-सूची (जैनप्राकृत पद्यानुकमणी)-अनेक उपयोगी परिशिष्टोंके साथ ६४ मूलग्रन्थों और अन्धकारों के परिचयको लिये हुये विस्तृत प्रस्तावनासे अलंकृत, सजिल्द ... १५) १३ स्वयंभूस्तोत्र-समन्तभद्र भारतीका प्रथम ग्रन्थ, विशिष्ट हिन्दी ___अनुवाद, छन्दपरिचय और महत्वकी प्रस्तावना सहित १४ जैनग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह-संस्कृत और प्राकृतके कोई १५. अप्रकाशित ग्रंथोंकी प्रशतियोंका मंगलाचरण-सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी परिशिष्टों तथा अंग्रेजी-हिन्दी प्रस्तावनात्रोंसे युक्त ४) १५ अनेकान्तरस-लहरी-अनेकान्तको अतीव सरतासे समझनेकी कुम्जी।) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतिविद्यां समाश्रित्य श्रेयः किं नाडभिजायते / स्वामि-समन्तभद्रेण विहिता याडडगसां जये // - युगवीरा www. a brary.org.