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प्रस्तावना
दीपककी उपासना करती हुई उसके चरणों में जब तन्मयताकी दृष्टिसे अपना मस्तक रखती है तो तद्रप होजाती है - स्वयं दीपक बनकर जगमगा उठती है । यह सब भक्तियोगका माहात्म्य है, स्तुति-पूजा और प्रार्थना जिसके प्रधान अंग हैं । साधु स्तोताकी स्तुति कुशल परिणामोंकी - पुण्य प्रसाधक शुभ भावोंकी - निमित्तभूत होती है और अशुभ अथवा पापकी निवृतिरूप वे कुशल - परिणाम ही आत्माके विकास में सहायक होते हैं। इसी से स्वामी समन्तभद्रने, अपने स्वयम्भूस्तोत्र में, परमा त्माकी - वीतराग सर्वज्ञ जिनदेवकी-स्तुतिको कुशल - परिणामोंकी हेतु बतलाकर उसके द्वारा कल्याणमार्गको सुलभ और स्वाधीन बतलाया है' । साथही, यह भी बतलाया है कि पुण्यगुणों का स्मरण आत्मासे पापमलको दूर करके उसे पवित्र बनाताहै । और स्तुतिविद्या (११४) में जिनदेवकी ऐसी सेवाको अपने 'तेजस्वी' तथा 'सुकृती' होने आदिका कारण निर्दिष्ट किया है।
परन्तु स्तुति कोरी स्तुति, तोता रटन्त अथवा रूढिका पालन मात्र न होकर सच्ची स्तुति होनी चाहिये -स्तुतिकर्ता स्तुत्य के गुणोंकी अनुभूति करता हुआ उनमें अनुरागी होकर तद्रूप होने अथवा उन आत्मीय गुणों को अपने में विकसित करने की शुद्ध भावनासे सम्पन्न होना चाहिये, तभी स्तुतिका ठीक उद्देश्य एवं फल (पापों को जीतना ) घटित हो सकता है और वह ग्रन्थकारके शब्दों में
१ " स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा
भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान्न स्वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ॥ ११६ ॥” २ तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः पुनाति चित्त दुरिवाऽअनेभ्यः ॥२७॥”
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