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________________ स्तुतिविद्या और दूसरे अनेक पद्यों में भी जिनस्तुतिसे पापोंके जीते जानेका भाव व्यक्त किया है। परन्तु जिनस्तुतिसे पाप कैसे जीते जाते हैं यह एक बड़ा ही रहस्य पूर्ण विषय है। यहां उसके स्पष्टीकर. एका विशेष अवसर नहीं है, फिर भी संक्षेपमें इतना जरूर बतला देना होगा कि जिन तीर्थङ्करोंकी स्तुति की गई है वे सब पाप-विजेता हुए हैं-उन्होंने अज्ञान-मोह तथा काम-क्रोधादि पापप्रकृतियोंपर पूर्णत: विजय प्राप्त की है। उनके चिन्तन और अाराधनसे अथवा हृदयमन्दिरमें उनके प्रतिधित (विराजमान) होनेसे पाप खड़े नहीं रह सकते-पापोंके दृढ बन्धन उसी प्रकार ढीले पड़जाते हैं जिस प्रकार कि चन्दनके वृक्षपर मोरके आनेसे उससे लिपटे हुए सांप ढीले पड़ जाते हैं और वे अपने विजेतासे घबराकर कहीं भाग निकलनेकी सोचने लगते हैं।' अथवा यों कहिये कि उन पुण्यपुरुषोंके ध्यानादिकसे आत्माका वर निष्पाप शुद्ध स्वरूप सामने आता है जो सभी जीवोंकी सामान्य सम्पत्ति है और जिसे प्राप्त करनेके सभी भव्यजीव अधिकारी हैं। उस शुद्ध स्वरूपके सामने आते ही अपनी उस भूली हुई निधिका स्मरण हो उठता है, उसकी प्राप्तिके लिये प्रेम तथा अनुराग जागृत हो जाता है और पाप-परिणति सहज ही छूट जाती है। अतः जिन पूतात्माओंमें वह शुद्धस्वरूप पूर्णत: विकसित हुआ है उनकी उपासना करता हुआ भव्यजीव अपनेमें उस शुद्धस्वरूपको विकसित करने के लिये उसी तरह समर्थ होता है जिस तरह कि तैलादिकसे सुसज्जित बत्ती ! "हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलोभवन्ति जन्तोः क्षणेण निविडा अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ॥" -कल्याबमन्दिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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