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म्तुतिविद्या 'जन्मारल्यशिखी' (११५)-भवभ्रमणरूप संसार-वनको दहनकरने वाली अग्नि-तक बनकर आत्माके पूर्ण विकासमें सहायक हो सकती है।
___और इसलिये स्तुत्यकी प्रशंसामें अनेक चिकनी-चुपड़ी बातें बनाकर उसे प्रसन्न करना और उसकी उस प्रसन्नताद्वारा अपने लौकिक कार्योंको सिद्धकरना-कराना जैसा कोई उद्देश्य यहां अभीष्ट ही नहीं है। परमवीतराग देवके साथ वह घटित भी नहीं हो सकता, क्योंकि सच्चिदानन्दरूप होनेसे वह सदा. ही ज्ञान तथा आनन्दमय है, उसमें रागका कोई अंश भी विद्य. मान नहीं है, और इसलिये किसीकी पूजा-वन्दना या स्तुतिसे उसमें नवीन प्रसन्नताका कोई संचार नहीं होता और न वह अपनी स्तुति-पूजा करनेवालेको पुरस्कार में कुछ देता दिलाता ही है । इसी तरह आत्मामें द्वषांशके न रहनेसे वह किसीकी निन्दा या अवज्ञापर कभी अप्रसन्न नहीं होता, कोप नहीं करता
और न दण्ड देने-दिलानेका कोई भाव ही मनमें लाता है। निन्दा और स्तुति दोनों ही उसके लिये समान हैं, वह दोनोंके प्रति उदासीन है, और इसलिये उनसे उसका कुछ भी बनता या बिगड़ता नहीं है। फिर भी उसका एक निन्दक स्वतः दण्ड पा जाता है और एक प्रशंसक अभ्युदयको प्राप्त होता है, यह सब कर्मों और उनकी फल-प्रदान-शक्तिका बड़ा ही वैचित्र्य है, जिसे कर्मसिद्धान्तके अध्ययनसे भले प्रकार जाना जा सकता है। इसी कर्म-फल-वैचित्र्यको ध्यानमें रखते हुए स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें कहा है -
सुहृत्त्वयि श्रीसुभगत्वमश्नुते, द्विप॑स्त्वयि प्रत्यय-वत्प्रलीयते।
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