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प्रस्तावना
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भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो ! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥६६॥ 'हे भगवन् ! आप मित्र और शत्रु दोनोंके प्रति अत्यन्त उदासीन हैं-मित्रसे कोई अनुराग और शत्रसे कोई प्रकारका द्वेषभाव नहीं रखते, इसीसे मित्र के कार्योंसे प्रसन्न होकर उसका भला नहीं चाहते और न शत्र के कार्योंसे अप्रसन्न होकर उसका बुरा ही मनाते हैं-,फिर भी आपका मित्र (अपने गुणानुराग, प्रेम और भक्तिभावके द्वारा श्रीविशिष्ट सौभाग्यको अर्थात् ज्ञानादि- लक्ष्मीके आधिपत्यरूप अभ्युदयको प्राप्त होता है और एक शत्र ( अपने गुणद्वेषी परिणामके द्वारा ) 'किप' प्रत्यया. दिकी तरह विनाशको-अपकर्षको-प्राप्त हो जाता है, यह श्रापका ईहित-चरित्र बड़ा ही विचित्र है !!
ऐसी स्थिति में 'स्तुति' सचमुच ही एक विद्या है। जिसे यह विद्या सिद्ध होती है वह सहज ही पापोंको जीतने और अपना
आत्मविकास सिद्ध करने में समर्थ होता है । इस विद्याकी सिद्धिके लिये स्तुत्यके गुणोंका परिचय चाहिये, गुणोंमें वर्द्धमान अनुराग चाहिये, स्तुत्यके गुण ही आत्म-गुण हैं और उनका विकास अपने आत्मामें हो सकता है ऐसी दृढ श्रद्धा चाहिये। साथ ही मन-वचन-कायरूप योगको स्तुत्य के प्रति एकाग्र करनेकी कला पानी चाहिये । इसी योग-साधनारूप कलाके द्वारा स्तुत्य में स्थित प्रकाशसे अपनी स्नेहसे- भक्तिरससे-भीगी हुई श्रात्मबत्ती को प्रकाशित और प्रज्वलित किया जाता है।
इसीसे टाकाहारने स्तुतिविद्याको 'धन-कठिन-घातिकर्मेन्धन. दहन समर्था' लिखा है- अर्थात् यह बतलाया है कि वह घने कठोर घातियाकर्मरूपो ईन्धनको भस्म करनेवाली समर्थ अग्नि है, और इससे पाठक प्रन्थ के अध्यात्मक महत्वका कितना ही अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।
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