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________________ स्तुतिविद्या ...३६ - भावार्थ--इस श्लोक में चन्द्रप्रभ इस श्लिष्ट विशेषणसे पहले तो अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभ और चन्द्रमामें सादृश्य बतलाया गया है परन्तु बाद में अन्य विशेषणोंकेद्वारा चन्द्रमाकी अपेक्षा अष्टमतीर्थकरमें वैशिष्ट्य सिद्ध किया गया है ॥३०॥ . ( मुरजः ) प्रकाशयन् खमुद्भूतस्त्वमुद्घांककलालयः। । विकासयन् समुद्भूतः कुमुदं कमलाप्रियः ॥३१॥ प्रकाशेति-चन्द्रप्रभः प्रभादिति सम्बन्धः । किं विशिष्टः प्रकाशयन् तिमिरं प्रपाटयन् । खं आकाशं । उद्भूतः उद्गतः । त्वं । उद्घः महान् अंकः चिह्न यस्यासौ उद्घांकः, कलानां कलागुणविज्ञानानां लेखानां वा प्रालयः श्राधारः कलालयः,उद्घांकश्चासौकलालयश्च उद्घांककलालयः । विकासयन् प्रबोधयन् । समुद्भूतः। कुमुदं पृथ्वीहर्षम् । अन्यत्र कुमुद पुष्पम् । कमलायाः लक्ष्म्याः प्रिय इष्टः। अन्यत्र कमलानां पद्मानां अप्रियः अनिष्टः कमलाप्रियः। एतदुक्तं भवति-वं. चन्द्रप्रभोऽभात् एतत् कुर्वन् एवं गुणविशिष्टः चन्द्रेण समानः । श्लेषालंकारोऽयम् ॥३१॥ . अर्थ-हे विभो ! आप चन्द्ररूप हैं, क्योंकि जिस तरह चन्द्रमा उदय होते ही आकाशको प्रकाशित करता है उसी तरह आप भी ( केवल ज्ञानके प्राप्त होनेपर ) समस्त लोकाकाश और अलोकाशको प्रकाशित करते हैं । चन्द्रमा जिस तरह हरिणके मनोहर चिह्नसे युक्त है उसी तरह आप भी मनोहर चिह्न जो 'अर्धचन्द्र' उससे युक्त हैं । चन्द्रमा जिस तरह सोलह कलाओंका आलय (गृह) है उसी तरह आप भी केवलज्ञान आदि अनेक कलाओंके आलय-स्थानहैं । चन्द्रमा जिस तरह कुमुदों-नीलकमलोंको विकसित करता हुआ उदित होता है उसी तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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