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समन्तभद्र भारती
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मण्डले मण्डलमिति वृत्तप्रदेशस्य संज्ञा । रुन्द्रा र श्रमन्दा महती श दीप्तिर्यस्यासौ रून्द्रशोभः । न चीयत इत्यतयः । श्रमेयः अपरिमेय रुचिरे दीप्ते । भानूनां प्रभाणां मण्डलं संघातः भानुमण्डल ति भानुमंडले सति । चन्द्रेण सह श्लेषः । कानिचित्साधम्र्येण विशेषण कानिचि धर्म्येण । एतदुक्तं भवति - चन्द्रप्रभस्त्वं कुमण्डले विि श्रमात् रुचिरे भानुमंडले सति । श्रन्यानि चन्द्रप्रभभट्टारकस्यैव विशे यानि । दयः श्रजेयः रुद्रशोभः श्रचयः श्रमेयः चन्द्रप्रभचन्द्रयोः स नत्थं, किन्तु एतावान् विशेषः । स जेयो राहुणा श्रयमजेयः । स स श्रयमक्षयः । स भेयः श्रयममेयः । स पृथ्वीमण्डले श्रयं पुनस्त्रैलो अलोके च । श्रयं व्यक्तिरेकः ॥ ३० ॥
अर्थ - हे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! आप चन्द्रमा जैसी प्रभा सम्पन्न हैं परन्तु चन्द्रमा और आपमें निम्नलिखित व्यतिरेव विशेषताएं हैं। आप सबके रक्षक हैं - सबको सुख देनेवाले परन्तु चन्द्रमा चकवा-चक्रवी आदिको दुःख देनेवाला है। अजेय हैं - किसीके द्वारा नहीं जीते जा सकते -- परन्तु चन्द्र राहुके द्वारा जीत लिया जाता है। आप तीनों लोकों तथा अलो में भी प्रकाशमान रहते हैं— सब जगह के पदार्थोंको जानते परन्तु चन्द्रमा सिर्फ पृथ्वी- मण्डलमें ही प्रकाशमान रहता है आपकी शोभा रुन्द्र है- अतिविशाल है - परन्तु चन्द्रमा की शोभ सीमित है । आप क्षय रहित हैं, किन्तु चन्द्रमा क्षय सहि है— कृष्णपक्ष में क्रम क्रम से क्षीण होता जाता है। आप अमे - अपरिमित है अर्थात् आपके गुणों का कोई परिमाण नहीं। अथवा आप प्रमाणके विषय नहीं हैं; परन्तु चन्द्रमा मेय हैपरिमित है -- उसके १६ कलायें हैं तथा प्रमाणका विषय है, आ सूर्यमण्डलके दैदीप्यमान रहते हुए भी शोभायमान रहते परन्तु चन्द्रमा सूर्यमण्डल के सामने शोभा-रहित होजाता है।
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१. रुन्द्रो विपुलम् ।
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