________________
४०
समन्तभद्र-भारती
आप भी कु- पृथिवी गत समस्त जीवों के श्रानन्दको बढ़ाते हुए उदित हुए हैं - उत्पन्न हुए हैं और चन्द्रमा जिस प्रकार कमला प्रिय है - ( कमल + अप्रिय ) कमलोंका शत्रु है— उन्हें निमीलिय कर देता है उसी प्रकार आप भी कमलाप्रिय हैं— केवलज्ञानादि लक्ष्मीके प्रिय हैं।
इस श्लोक में विशेषण सादृश्यसे अष्टम तीर्थ करको चन्द्रमा बतलाया गया है। यह श्लेषालंकार है ।
नोट - श्लोकगत समस्त विशेषणोंसे जैसे अष्टम तीर्थकर और चन्द्रमा में सादृश्य सिद्ध किया गया है वैसे ही उन दोनों में वैसादृश्य - व्यतिरेक भी सिद्ध होता है । इस पक्ष में श्लोकक अथ इस प्रकार होगा
हे भगवन् ! आप चन्द्रमाकी तरह शोभायमान हैं अवश्य परन्तु आपमें उसकी अपेक्षा नीचे लिखी हुई विशेषतायें हैं -- चन्द्रमा सिर्फ आकाश-विवरको प्रकाशित करता हुआ उदि होता है, परन्तु आप अखिल विश्वको प्रकाशित करते हुए ( द्रव्यार्थिकनकी अपेक्षा ) अनादिकाल से उदित ही हैं चन्द्रमाका चिह्न कृष्ण है— कलङ्करूप है, जिससे वह कलडी कहलाने लगा है परन्तु आपका चिह्न अर्धचन्द्र अत्यन्त मनोहर है अथवा आपके शरीर में जो १००८ सामुद्रिक चिह्न हैं वे भी अत्यन्त सुन्दर हैं । चन्द्रमा कलालय है - अपनी कलाओं क लय- विनाश लिए हुए है परन्तु आप केवलज्ञान आदि कलाओं आलय - घर हैं । चन्द्रमा कुमुद - कुत्सित वैषयिक मुद् - हर्षको अथवा दुर्जन पुरुषोंके हर्षको ( पक्ष में कुमुद पुष्पको ) वृद्धिंग करता है परन्तु आप उत्कृष्ट आत्मीय आनन्दको अथवा समस् पृथ्वीगत जीवधारियोंके आनन्दको वृद्धिंगत करते हैं - बढ़ाते हैं। चन्द्रमा उदित होकर अस्त होजाता है परन्तु आप हमेशा उदि ही रहते हैं - आप कभी अस्तमित नहीं होते । चन्द्रमा कमलों क
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org