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स्तुतिविद्या
(मुरजबन्धः ) परान् पातुस्तवाधीशो बुधदेव भियोषिताः । दूराद्धातुमिवानीशो निधयोवज्ञयोज्झिताः ॥७॥ परेति-परान् पातुः अन्यान् रक्षकस्य । तव ते । अधीशः स्वामिनः बुधानां पण्डितानां देवः परमात्मा बुधदेवः तस्य सम्बोधनं हे बुधदेव सत्यपरमात्मन् । भिया भयेन । उषिता स्थिताः 'वस निवासे इत्यस्य धोः क्तान्तस्य कृताजित्वस्य रूपम् । दूरात् दूरेण हातुमिव त्यक्तुमिव । अनीशाः असमर्थाः निधयः निधानानि । अवज्ञयोज्झिता: अनादरेण स्यक्ताः । अस्य एवं सम्बन्धः कर्तव्यः-हे देवदेव परान् पातु: तवाधीश: त्वया निधयोऽवज्ञया उज्झिता: भिया दूरेण उषिताः त्वा हातुमिव अनीशाः ॥७॥ __ अर्थ हे विद्वानोंके देव-सर्व श्रेष्ठ ज्ञाता-सर्वज्ञ ! आप अन्य समस्त प्राणियोंके रक्षक और स्वामी हैं। आपने जिन नौ निधियोंको तुच्छ समझकर अनादरके साथ छोड़ दिया या वे निधियां आपको छोड़नेके लिये असमर्थ होकर मानों भयसे ही दूर दूर निवास कर रही हैं। ___ भावार्थ-भगवान् शान्तिनाथ तीर्थंकर और कामदेवपदके सिवाय चक्रवर्ती पदके भी धारक थे-राज्य-अवस्थामें वे निधियों और १४ रत्नोंके स्वामी थे। जब वे संसारसे उदास होकर दीक्षा लेने लगे तब उन्होंने निधियों और रत्नोंको अत्यन्त तुच्छ समझकर अनादरके साथ छोड़ दिया था। तीर्थ करके समवसरणमें जो गोपुर द्वार होते हैं उनके दोनों तरफ अष्ट मङ्गल द्रव्य और नौ निधियां रखी होती हैं । गोपुरद्वार भगवान्के सिंहासनसे काफी दूर होते हैं इसलिये उनके पास रखो हुई निधियां भी भगवानसे दूर कहलाई। यहां आचार्य समन्तभद्र उत्प्रेक्षा करते हैं कि भगवान्ने जिन निधियोंको अनादरके
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