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________________ समन्तभद्र-भारती साथ छोड़ दिया था वे ही निधियां अन्य रक्षक न देखकर भगवान्को ही सबका (सबके साथ अपना भो) स्वामी समझा मानों उन्हें नहीं छोड़ना चाहतीं परन्तु उनके द्वारा किये। अपमानको याद कर वे गोपुरके बाह्य द्वारपर ही सहम कर के गई जान पड़ती थी-वेभगवानके दिव्य तेजसे मानों डरगई। इसलिये उनसे दूर ही निवास कर रही थीं। जो पदार्थ जिस रक्षामें बहुत समय तक रहा हो और उसके द्वारा उसका का उपकार भी हुआ हो यदि वह आदमी वैराग्यभावसे स्नेह घटा के लिये उसे छोड़ देवे-उसको रक्षा करना स्वीकार न करे, कि बाद में वही पुरुष किन्हीं अन्य पदार्थों की रक्षा करना स्वीक करले और उनकी रक्षा करने भी लगे तो पहले छोड़ा हु पदार्थ विचार करेगा कि 'इस आदमीका हृदय अमी रक्षक का मार लेनेसे विरक्त नहीं हुआ है। यदि सचमुच में वित हुआ होता तो मुझे छोड़ अन्य पदार्थों की रक्षा क्यों कर लगता' । इस तरह वह छोड़ा हुआ पदार्थ अपने रक्षकके हृद में अपने लिये गुंजाइश देखकर फिरसे उसके पास पहुंचता परन्तु अपने साथ किये हुए उसके रूखे व्यवहारसे वह सह जाता है। प्रकृतमें-शान्तिनाथस्वामीने दीक्षा कालमें उन निधियोंको छोड़ा था जिनके बल बूतेपर उन्होंने अप साम्राज्य षट्खण्ड भरतक्षेत्र में विस्तृत किया था परन्तु इ छोड़कर इनकी रक्षा का भार त्यागकर-वे सर्वथा उस अनुरा से रहित हो गये थे यह बात नहीं कि तु अन्यको-निधियों अतिरिक्त दूसरे पदार्थों की रक्षा करने लगे थे ( पक्षमें से जीवोंकोमोक्षमार्गका उपदेशदेकर जन्ममरणकेदुःखोंसे बचाने के थे)।रक्षा ही नहीं करने लगे थे किन्तु रक्षाकी सामर्थ्यसे सहित थे इन दोनों बातों को प्राचार्यने 'परान् पातुः' और 'अधोशः' । विशेषणोंसे निर्दिष्ट किया है । नौ निधियां सोचती हैं कि "भगवान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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