________________
स्तुतिविद्या
८७
wwnwrmanen
का राग यदि वास्तव में घटा होता तो ये ह... समान किसी अन्यके भी रक्षक न होते परन्तु ये अन्य समस्त प्राणियोंकी रक्षा कर रहे हैं और उसमें समर्थ भी हैं-हमारे रहते हुए भी ये अपने वैराग्यभावको सुस्थिर रख सकते हैं, क्योंकि बाह्य पदार्थ ही तो वैराग्यभावको लोपनेवाले नहीं है। हमारे सिवाय छत्रत्रय, चमर, सिंहासन, भामण्डल आदि विभूतियां भी तो इनके पास हैं, इन सबके रहते हुए भी इनके वैराग्यभावका लोप क्यों नहीं होता ? इससे स्पष्ट मालूम होता है कि ये हर एक तरहसे अधीश हैं-अपने भावोंके नियन्त्रण करने में समर्थ हैं। फिर हमें क्यों छोड़ा ? इनके सिवाय दूसरा और रक्षक भी नहीं है । यदि हम पुनः इनकी शरणमें जावें तो हमें ये अपनालेंगे, क्यों कि अभी इनके हृदयसे अनुराग नष्ट नहीं हुआ है" बस यही सोचकर और अपने लिये गुजाइश देखकर निधियां समवसरणमें उनके पास पहुँचना चाहती हैं परन्तु ज्यों ही उन्हें पूर्वकृत अना. दरका खयाल आजाता है-'फिर भी वही हाल न हो' ऐसा भाव उत्पन्न हो जाता है-त्यों ही वे गोपुरद्वार पर ठहर जाती है। कितनी गम्भीर है उत्प्रेक्षा और कविकी सूझ ? ( अभी इनका अनुराग नष्ट नहीं हुआ है इत्यादि उद्धरणोंसे भगवानको सरागी मत समझलेना। क्योंकि उत्प्रेक्षालंकारके कारण वैसी कल्पना करनी पड़ी है। उत्प्रेना हमेशा कल्पित होती है-उसमें सत्यांश नहीं होता)। समवसरणमें निधियोंका सद्भाव अन्य शास्त्रोंसे भी स्पष्ट हैं। ||७||
' बाह्याभ्यन्तरदेशे षट्त्रिंशद्गोपुराः सन्ति । द्वारोभयभागस्था मङ्गलनिधयः समस्तास्तु ॥१०॥ संवाटकमृङ्गारच्छत्राब्द-व्यजन-शक्ति-चामर कलशाः । मङ्गलमष्टविध
स्यादेकैकस्याष्टशतसंख्या ॥५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org