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________________ ६४ समन्तभद्र-भारती ( मुरजबन्धः ). त्रयोलोकाः स्थिताः स्वैर योजनेधिष्ठिते' त्वया । भूयोन्तिकाः श्रितास्तेरं राजन्तेधिपते श्रिया ॥७०॥ त्रय इति-त्रयोलोकाः भवनवासिव्यन्तरज्योतिप्ककल्पवा सिमनुष्यतियञ्चः । स्थिताः स्वैरं स्वेच्छया योजने सगम्यूतियोज नचतुष्टये। अधिष्ठिते अध्यासिते । त्वया युष्मदो भान्तस्य रूपम् । भूब बाहुल्येन पुनरपि वा। अन्तिकाः समीपस्थाः। श्रिताः आश्रिताः ।। तव । अरं प्रत्यर्थम् । राजन्ते शोभन्ते । अधिपते परमात्मन् । त्रिय लक्षम्या । समुच्चयार्थ:-हे भट्टारक त्वया अधिष्ठिते योजनमा त्रयो लोकाः स्वैरं स्थिताः भूयोऽन्तिकाः श्रिताः सन्तः ते अधिपते भिया । राजन्ते ॥ ७० ॥ अर्थ-हे स्वामिन् ! आप जिस समवसरणमें विराजमान हुए थे उसका विस्तार यद्यपि साढ़े चार योजनमात्र था तथा उसमें भवनवासी ब्यन्तर ज्योतिषी कल्पवासी मनुष्य तिर्य आदि तीनों लोकोंके जीव बहुत ही स्वच्छन्दताके साथ बैठ जाते थे। और जो आपके समीप आकर आपका आश्रय लेते हैंआपका ध्यान करते हैं-वे शीघ्र ही आप जैसी उत्कृष्ट लक्ष्मी सुशोभित होते हैं-आपके समान परमात्मपदको पा ले। हैं ।। ७०॥ १ यद्यपि श्लोकंमें 'योजने' यह सामान्य पद है तथापि 'द्वादशयो जनतस्ताः क्रमेण चाद्धार्धयोजनन्यूनाः । तावद्यावन्नेमिश्चतुर्थभागोनिता परतः' (समवसरण स्तोत्रे, विष्णुसेनः ) श्रादि प्रसिद्ध उल्लेखोंसे सा पार योजन अर्थ लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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