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समन्तभद्र-भारती
कलुषित भावसे आपकी निन्दा कर अन्य देव या राजा महाराजाकी सेवा करता है उसे अशुभास्रव होने से अनेक मं गल एवं दुःख प्राप्त होते हैं जब कि आप स्तुति और निन्दा करनेवाले दोनोंपर ही एकसमान दृष्टि रखते हैं - एक को अच्छा तथा दूसरे को बुरा नहीं मानते । '
( गतप्रत्यागताद्ध: २ )
भासते विभुताऽस्तोना ना स्तोता भुवि ते सभाः ।
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याः श्रिताः स्तुत ! गीत्या नु नुत्या गीतस्तुताः श्रिया ॥१०॥ भासते इति । श्रस्य श्लोकस्याद्ध पंक्त्याकारेण विलिख्य क्रमेण १ सुहृत्वयि श्री सुभगत्वमश्नुते द्विषं स्त्वयि प्रत्ययवत्प्रलीयते । भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो ! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥ ६६ ॥ — बृहत्स्व यंभू स्तोत्र | स्वभावाद्विमुखश्च दुःखम् । इवावभासि ॥७॥
- विषापहारस्तोत्र |
'उपैति भक्त्या सुमुखः सुखानि त्वयि सदावदातच तिरेकरूपस्तयोस्त्वमादर्श
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२ श्लोकके अर्ध भागको पंक्त्याकार से लिखकर क्रमपूर्वक पढ़ना चाहिये । इस अलंकार में विशेषता यह है कि क्रम से पढ़नेमें जो श्रचर आते हैं वे ही अक्षर विपरीत क्रम - दूसरी तरफ से पढ़ने में भी आते हैं । इसी प्रकार श्लोकके उत्तरार्ध भागको भी लिख कर पढ़ना चाहिये यहां यह गतप्रत्यागत विधि अर्धश्लोक में है इसलिये इसे गतप्रत्या तालंकार कहते है। जहां सम्पूर्ण श्लोक में गतप्रत्यागत विभि होती है वहां गतप्रत्यागत अथवा अनुलोम-प्रतिलोम अलंकार कह लाता है । कहीं कहीं गत- प्रत्यागतविधि श्लोकके एक एक पादमें होती है ।
३ नाऽनुस्वार विसौं च चित्रभङ्गाय संमतौ' । अर्थात् अनुस्वार श्री विसर्गकी होनाधिकतासे चित्रालङ्कार भग्न नहीं होता ।
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