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स्तुतिविधा
पंकर । प्रामयः व्याधिः, न विद्यते प्रामयो यस्यासावनामयः & अनामयं, मा इति सम्बन्धः । इतः इतः प्रभृति । अभियं अभयम् । विद् ज्ञानम्, प्रायः साधवः; ते सहितः युक्तः विदार्यसहितः तस्य विदः शानिनः सम्बोधनं हे विदार्यसहित । अव रक्ष । पार्य पूज्य । समुत्सनजव । प्राजितः संग्रामात् कलहात् प्रणयसंधाभावाकिमुक भवतिस एवं विशिष्टः त्वं हे श्रेयन् इतः प्रभृति अनाभयं अभियं मा रच भाजितः समुत्सन्नजव अपराग ॥ ४ ॥ __ अर्थ-हेवीतराग ! हे सर्वज्ञ ! आप सुर, असुर, किन्नर आदि सभीके लिये आश्रयणीय हैं-सेव्य हैं-सभी आपका ध्यान करते हैं, आप सबका हित करने वाले हैं अतः हिताभिलाषीजन सदा आपको घेरे रहते हैं आपकी भक्ति वन्दना आदि किया करते हैं। आपकी शरणको प्राप्त हुए भक्त पुरुष भयको नष्ट कर-निर्भय हो, हर्षसे रोमाञ्चित हो जाते हैं। आप परागसे-कषाय-रजसे-रहित हैं। ज्ञानवान्-श्रेष्ठ पुरुषों से सहित हैं, पूज्य हैं, तथा रागद्वेषरूप संग्रामसे आपका वेग नष्ट होगया है-आप रागद्वेषसे रहित हैं। मैं आपके दर्शन मात्रसे ही आरोग्यता और निर्भयताको प्राप्त हो गया हूं। हे श्रेयान्स देव ! मेरी रक्षा कीजिये ॥ ४६॥४७॥
वासुपूज्य-जिन-स्तुतिः
( अनन्तरपादमुरजबन्धः) अभिषिक्तः सुरैर्लोकैस्त्रिभिभक्तः परैर्न कैः । वासुपूज्य मयीशेशस्त्वं सुपूज्यः क ईदृशः ॥४८॥ अभीति-प्रथमद्वितीययोस्तृतीयचतुर्थयोः पादयोः मुरजबन्धो
हरव्यः ।
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: मिषितः मेरुमस्तके स्नापितः । सुरैः देवैः । सोकैस्त्रिमिः भवन
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