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समन्तभद्र-भारती
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ही अधिष्ठान हुई है। यदि आपका उसपर जन्माभिषे होता तो वह कभी भी इतना श्रीमान् और महान नहीं सकता। यहां मेरुपर्वतके उदाहरण से यह बात ध्वनित की ग कि जब आपके आश्रय से अचेतन - पर्वत भी श्रीसम्पन्न महान् हो सकता है तब सचेतन - भक्तिभाव से परिप्लुत-भ प्राणी आपको हृदय में धारणकर - आपका ध्यान स्मरण कर यदि दिव्य - पुण्यवान् इन्द्र अहमिन्द्र आदि - हो और क अनन्तचतुष्ट्यरूप श्री से सम्पन्न होकर समस्त विश्वसे गुरु श्रेष्ठ हो जावे तो क्या आश्चर्य है ? || ६६ ||
शान्ति - जिन - स्तुतिः ( मुरजः )
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चक्रपाणेर्दिशामूढा भवतो गुणमन्दरम् । के क्रमेणेदृशा रूढाः स्तुवन्तो गुरुमक्षरम् ॥६७॥
चक्रेति - चक्रपाणेः चक्रवर्तिनः पूर्वराज्यावस्थाविशेषणमेत दिशामूढा दिग्मूढा श्रविज्ञातदिशः । भवतः भट्टारकस्य । गुणमन्दरं गुरु पर्वतम् | के किमो रूपम् । क्रमेण न्यायेन परिपाटमा । ईदशा ईदृग्भूते रूढाः प्रख्याताः । स्तुवन्तो वन्द्यमानाः । गुरु महान्तम् । श्रक्षरं न रम् । किमुक्त भवति - चक्रपाणभवतः गुणमन्दरं ईदशा क्रमेण मुर बन्धैश्चकवृत्तः स्तुवन्तः रूढाः के नाम दिशामूढाः अपि तु भवन्त्येव । किं विशिष्टं गुणमन्दरं गुरुं अक्षरम् ॥ ६७ ॥
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अर्थ - हे प्रभो ! आप चक्रवर्ती हैं- राज्य अवस्थामें आपने रत्न हाथ में लेकर षट्खण्ड भरत क्षेत्रकी दिग्विजय की थी इस क्रम से - मुरजबन्ध चक्रवृत्त आदि चित्रबद्ध स्तोत्रों से आप
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