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स्तुतित्रिया
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बारी, उच्चकुली अथवा उत्तम यशसहित हो जावे तो इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि आप गुरु हैं - सर्वश्रेष्ठ, महान् या स्वामी हैं । अथवा आपकी संगति से सचेतन शिष्य सद्वर्णकोउत्कृष्ट अक्षर परिज्ञानको — प्राप्त हो जायें तो क्या आश्चर्य हैं ? क्योंकि आप गुरु हैं - उपाध्याय हैं। गुरुकी संमतिसे शिष्यको क्या नहीं प्राप्त हो जाता ?
( अनन्तरपादमुरज: )
हृदि येन धृतोसीनः स दिव्यो न कुतो जनः । त्वयारूढो यतो मेरुः श्रिया रूढो मतो गुरुः ॥ ६६ ॥
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हृदीति - हृदि हृदये । येन जनेन धृतो विधृतः । असि भवसि । इनः स्वामी इति कृत्वा । सः पूर्वोक्तः प्रतिपादकः । दिव्यः पुण्यवान् कृतार्थं इत्यर्थः । न कुतः न कस्मात् । जनः भव्यलोकः । त्वया भट्टारकेण । श्रारूढः श्रधिष्ठितः । यतो यस्मात् । मेरुः गिरिराजः । श्रिया लक्ष्म्या । रूढः प्रख्यातः श्रीमान् जात: । मतः ज्ञातः । गुरुः महान् । एवं सम्बन्धः कर्त्तव्यः— हे • भट्टारक स्वं येन जनेन हृदि घृतो भवसि इन इति कृत्वा स जनः कुतो न दिव्यः किन्तु दिव्य एव । यतो मेरुरपि स्वयारूढः सन् श्रिया रूढः मतः गुरुश्च मतः ॥ ६६॥
अर्थ - हे भगवन् ! जिस भव्य जीवने आपको स्वामी मान कर अपने हृदय में धारण किया है वह पुण्यवान् क्यों न होगा ? अवश्य होगा। क्योंकि मेरुपर्वत, आपके द्वारा अधिष्ठित होनेसेही श्रीसम्पन्न और महान् होगया था ।
भावार्थ - सुवर्ण और रत्नोंसे खचित होने के कारण मेरुपर्वत श्रीमान् – लक्ष्मी सम्पन्न अथवा शोभासे युक्त - कहा जाता है और एक लाख योजन ऊँचा होने के कारण गुरु- महान् कहा जाता है। यहां कविका विश्वास है कि मेरुपर्वतको जो असीम श्री — लक्ष्मी अथवा शोभा और महत्ता - प्राप्त हुई है वह आपके
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