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समन्तभद्र-भारती
(मुरजबन्धः) कुत एतो नु सन्वर्णो मेरोस्तेपि च संगतेः । उत क्रीतोथ संकीर्णो गुरोरपि तु संमतेः ॥६५॥ कुत इति-कुतः कस्मात् । एतः पागतः । नु वित।। शोभनः । वर्णः रूपं दीप्तिस्तेजः । मेरोः मन्दरस्य । ते तव । अपि ननु इत्यर्थः । संगतेः सङ्गमात् मेलापकात् । उत वितर्के । क्रीत: द्रन गृहीतः । अथ श्राहोस्वित् । संकीर्णः वर्णसंकरः । गुरोः भतु ।। तु उताहो । सम्मतेः प्राज्ञायाः। किमुक्तं भवति---मेरोर्योऽयं सन वर्ण, कुतः पागतः किं ते संगतेः उत क्रीत: अथ सङ्कीर्णः । अपितु संमतेः । ननु निश्चितोस्माभिस्तव संमतेः ॥६॥ ... अर्थ-हे भगवन् ! हम लोगोंको अब तक सन्देह था कि में पर्वतका ऐसा सुन्दररूप कहांसे आया ? क्या आपकी संगी अथवा आपका वहां जन्माभिषेक होनेसे उसका वैसा सुन्दरी होगया ? या मूल्य देकर खरीदा गया अथवा किसी भी सुन्दर वस्तुका रूप उसमें संर्कीण कर दिया गया-मिला दि गया ? परन्तु अब हमें निश्चय होगया कि मेरुका वह मुन्दर श्रापकी संमतिसे-आज्ञामात्रसे-होगया है, किसी दूस जगहसे नहीं आया है।
भावार्थ-जिस मेरु पर्वतपर जिस बालकका अमि होता है वह पर्वत सुवर्ण और रत्नोंकी कान्तिसे अत्यन्त म हर होता है। यहां प्राचार्यने भक्ति में तल्लीन होकर बतलाया है मेरु-पर्वतका वह अत्यन्त सुन्दररूप भगवान् धर्मनार्थको संमा ही हुआ था। हे प्रभो! जब आपकी संमतिसे-आज्ञासेअचेतन पदार्थ भी सद्वर्ण-सुवर्ण या उत्तम रूपको पा सकता है। आपको आज्ञासे-आपके सम्यग्ज्ञानसे अथवा आपके सम्म मनन ध्यान या अनुभवनसे सचेतन प्राणी सद्वर्ण-उत्तमा
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