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स्तुतिविद्या
जन्माभिषेक हो चुकने के बाद इन्द्र-समुदाय जिस अभिषिक्त पालक के चरणों में मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं,नमस्कारके मय इन्द्रोंके मुकुटोंकी शुक्ल किरणें उस भगवान्के चरणोंपर हती हैं उससे ऐसा मालूम होता है मानों भगवान्के चरण इन्द्रोंमुकुटुरूपी घटोंसे भरते हुए किरणरूप दूधमें स्नान कर रहे । यहां रूपक और उत्प्रेक्षा अलंकारसे वर्णन किया गया है। लोकमें आये हुए 'पदे' शब्दको 'पद' शब्दसे चतुर्थ्यन्त मानकर नः आवृत्ति करने और 'चिरं' शब्दपर अधिक लक्ष्य देनेसे क और विचित्रभाव प्रतीत होने लगता है।] | भवार्थ--'इन्द्रोंने भगवानका अभिषेक क्षीरसमुद्रके जलसे हो कि क्षीरके समान था, किया था। उससे उनका शरीर क्षीरजैसा धवल होगया था । अभिषेक पूर्ण हो चुकने पर इन्द्रने त्तम वस्त्रसे जब उनके शरीरको पोंछ लिया तब उसपरम खीरकी प्रभा दूर होगई थी । परन्तु चरणकमलों पर नमस्कारक समय इन्द्रोंके मुकुटोंकी सफेद किरणें फिर भी पड़ रही थीं इसलिये चरण-कमल वस्त्रसे पोंछे जाने पर भी सफेद सफेद दिख रहे थे । उससे ऐसा मालूम होता था कि भगवानके पदे-चरण, पदे ( चतुर्थ्यन्त ) किसी उत्तम पदको पानेके लिये शरीर के अन्य अवयवोंकी अपेक्षा चिर काल तक नान करते रहे हों। जो इतरजनोंकी अपेक्षा अपने आपको किसी अधिक उत्कर्षको प्राप्त कराना चाहता है उसको दूसरे जनोंकी अपेक्षा अधिक तल्लीनताके साथ उस कामको करना पड़ता है-यह स्वाभाविक बात है। चरणोंने चिरकाल तक क्षीरस्नानके द्वारा अपने आपको अत्यन्त पवित्र बना लिया था इसीलिये मानों इन्द्र आदि लोकोत्तर पुरुष उनके घरणोंको नमस्कार करते थे-हस्त, उदर और मस्तक आदिको नहीं ॥१४॥
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