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समन्तभद्र-भारती
उदार विशेषणोंसे होजाता है । यथा-हे भगवन् ! आप इता धीर और स्थिर है--इतने शक्तिशाली हैं--कि उत्पन्न होते है। निन्यानवे हज़ार योजन ऊँचे मेरुपर्वत पर एक हजार पार कलशोंसे अभिषेक होने पर भी आपमें किसी प्रकारका विका उत्पन्न नहीं हो पाया। आपका अतुल्य बल प्रशंसनीय है।। प्रभो ! आप इतने उदार हैं महान हैं-कि अल्पज्ञोंके द्वारा के हुई निःसार क्रियाओंसे आपको रोष नहीं आता--आप अपने अगाध क्षमतासे सबको क्षमा कर देते हैं ।। ६३ ॥
(अनन्तरपादमुरजः ) तिरीटघटनिष्ठ्य तं हारीन्द्रौघविनिर्मितम् । पदे स्नातः स्म गोक्षीरं तदेडित भगो'श्विरम् ॥६४॥ तिरीटेति-तिरीटानि मुकुटानि तान्येव घटाः कुम्भाः तिरोटघटा तैर्निष्ठ्य तं निर्गमितं तिरीटघटनिष्ठय तम् । देवेन्द्रचक्रधरादिमुकुट घटनिर्गतम् । हारि शोभनम् । इन्द्रौघविनिर्मितं देवेन्द्रसमितिविर चितम् । इन्द्राणामोघः इन्द्रौघः तेन विनिम्मितं कृतं इन्द्रौघविनिम्मितम् । पदे णदौ । स्नातः स्म स्नातवन्तौ । गोक्षीरं रश्मिपयः । अथवा पदे पदनिमित्तं स्नातः स्म स्नातबन्तौ गोक्षीरम् । तदा स्नानानन्तरं सुरेन्द्रः प्रणामकाले । ईडित पूजित । भगोः भगवन् । चिरं प्रत्यर्थ सुष्ठु इत्यर्थः । किमुक्तं भवति-हे भगवन् ईडित स्नानकाले ते पदे गोक्षीरं स्नातः स्म । किं विशिष्टं गोक्षीरं तिरीटघटनिष्ठ्य तं हारीन्द्रौघविनिर्मितम् ॥६॥
अर्थ-हे पूज्य ! अभिषेकके बाद इन्द्रोंके समूहने जब आपके चरणकमलोंको नमस्कार किया था, तब उनके मुकुटुरूपी घटसे मनोहर किरणरूपी दुग्ध प्रकट हुआ था, उसमें आपके चरण. कमलोंने मानो चिरकालतक स्नान किया था।
१ भगोस्' इति सम्बुद्धयर्थकोऽव्ययः ।
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