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________________ स्तुतिविद्या wwanmmmmmmmmmm बालस्य अस्माभिर्मन्दरे [गमनं स्नपनं वा] क्वापि न दृष्टं यतः ततः पाश्चर्यम् । अथवा एवं चित्रमेतत् भट्टारके तीर्थे सपि प्राणिनः स्नान्ति, कथं पुरः देवैर्मन्दरे स्नपितश्चोद्यमेतत् । अथवा यो भवादृशः शरैः स कथं स्नाप्यते तथापि भवान् देवैः शरैः पानीयैः स्नपितः चित्रमेतत् ॥६३॥ ___ अर्थ हे धीर ! हे स्थिर ! हे उदार ! आपके उत्पन्न होते ही सबसे पहले, समस्त देव और इन्द्रोंने अद्भुत-अत्यन्तउत्तुङ्ग एवं शोभा-सम्पन्न मेरु पर्वतपर क्षीरसागरके जलसे आपका अभिषेक किया था यह आश्चर्य की बात है। भावार्थ --यहां आश्चर्य निम्न बातोंसे हो सकता हैतत्कालमें उत्पन्न हुआ बालक मेरुपर्वतपर पहुँच जावे यह बात कभी देखने में नहीं आई इसलिये यह बात आश्चर्यजनक है अथवा तत्काल में उत्पन्न हुए बालकका योजनों प्रमाण एक हजार आठ कलशोंसे अभिषेक किये जाने पर भी वह ज्योंका त्यो स्थिर रहा श्रावे यह आश्चर्यकी बात है। अथवा जिसके तीर्थमें--उपदिष्ट धर्म में संसारके समस्त प्राणी स्नान करते हैंतदनुकूल आचरणकर आत्मकल्याण करते हैं--उसका किसी दूसरेके द्वार। अभिषेक किया जाना आश्चर्य की बात है । अथवा लोकोत्तर--सर्वश्रेष्ठ-प्रभावशाली-प्रभुका अभिषेक इन्द्रोंने जल-जैसे न-कुछ-तुच्छ पदार्थसे किया यह आश्चर्यकी बात है। अथवा जो स्वयं शुद्ध है और अपनी पवित्रतासे दूसरोंको पवित्र करनेवाला है उसको भी इन्द्र-जैसे बुद्धिमान् पुरुषोंने अभिषेक-द्वारा शुद्ध करने की व्यर्थ चेष्टा की यह बात आश्चर्य करनेवाली है। अथवा इन्द्रने शरसे-तृण अथवा बाणसे आपका अभिषेक किया जोकि असंभव होनेसे आश्चर्यकारी है ( परिहार पक्षमें शरका अर्थ जल लिया जावेगा)। इस श्लोकमें कविने जिन बातोंसे आश्चर्य प्रकट करते हुए विरोध प्रकट किया है उन सबका परिहार 'धीर' 'स्थिर' और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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