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________________ ७४ समन्तभद्र-भारती mamiwwwmmmmmmmmmm न ममाश्रयंम् । हे देवदेव देवानां देवः देवदेवः तस्य सम्बोधनं हे देवदे परमेश्वर । पुरा पूर्वमेव । धन्या पुण्या। प्रोद्यास्यति प्रोद्गमिष्यति प्रम विष्यति । भुवि अस्मिन् लोके । श्रिये श्रीनिमित्तम् । समुदायेनार्थः कथ्यते । हे देवदेव सूद्याति भवति भगवति धरा मान्या भवतीति न विस्मये ऽहम् । यत: प्रोद्यास्यति भगवति पुरैव धन्या भुवि श्रीनिमित्तम् ॥ ६२ अर्थ-हे देवोंके देव ! यह पृथिवी आपके जन्म लेनेसे ही पूज्य मानी जाती है-इस विषय में मुझे कुछ भी आश्चर्य नहीं है; क्योंकि आपके जन्म लेनेसे पहले ही यह पृथ्वी रत्नवर्षा आदिके द्वारा धन्य गिनी जाने लगती है तथा लक्ष्मीसे सम्पन्न हो जाती है। भावार्थ--जब तीर्थकर भगवान् गर्भ में आते हैं उसके छह मास पहलेसे ही कुबेर सुन्दर नगरीकी रचना करता है, उसे धन धान्य सुवर्ण रजत आदिसे सम्पन्न करता है और जन्म-समय तक अर्थात् पन्द्रह मास तक प्रतिदिन रत्नों की वर्षा किया करता है। हे प्रभो! जब आपके उत्पन्न होने के पहले हो यह पृथ्वी उत्तम हो जाती है तब आपके जन्म लेनेसे क्यों न उत्तम मानी जावेगी ? अवश्य मानी जावेगी ॥ ६२ ॥ (मुरजः) एतच्चित्रं पुरो धीर स्नपितो मन्दरे शरैः। जातमात्रः स्थिरोदार क्वापि त्वममरेश्वरैः ॥६३॥ एतदिति--एतत् प्रत्यक्षवचनम् । चित्रं आश्चर्यम् । पुरः पूर्वस्मिन् काले । धीर गभीर | स्नपितः अभिषेकितः । मन्दरे मेरुमस्तके। शरैः पानीयैः । जातमात्र: उत्पत्तिक्षणे । स्थिर सावष्टम्भ । उदार दानशील महन् । क्वापि एकस्मिन्नपि काले । त्वं युष्मदो रूपम् । अमरेश्वरै देवदेवेन्द्रः । समुदायार्थः-हे धीर मन्दरे शरैः त्वं स्नपितः जातमात्र सन् हे स्थिरोदार अमरेश्वरैः पुरः क्वापि । चित्रमेतत् । कथं चित्रम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002677
Book TitleStutividya
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
Author
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1912
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, Worship, P000, & P015
File Size9 MB
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