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स्तुतिविद्या
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निजके सब मनोरथ पूर्ण होचुके थे फिर भी इन्होंने जो अनेक आर्य देशों में विहारकर सब जीवोंको हितका उपदेश देनेकी चेष्टा की थी उसमें उनका निजी प्रयोजन कुछ भी नहीं था । केवल संसार के पथभ्रान्त पुरुषोंको सुपथ पर लाना ही उनका प्रयोजन था। इस श्लोक में 'सर्वार्थसिद्धि' 'कल्याण' 'स्व' और 'अपूवर्थ' ये पद श्लिष्ट है - द्विश्रर्थक हैं, जिनका समन्वय ऊपर प्रकट किया गया है।
इस श्लोक की रचनाके पहले आचार्यके सामने अव्यक्त रूपसे एक प्रश्न उपस्थित होता है कि - जिनेन्द्रदेव जब मोहनीय कर्मका क्षय कर चुकते हैं - अपनी सब इच्छाओंका लय कर चुकते हैं - तब बिना इच्छाके उनका विहार और उपदेश कैसे होता है ? इस प्रश्नका उत्तर भी आचार्य समन्तभद्रने अव्यक्त रूपसे इसी श्लोकमें दिया है अर्थात् निजका कुछ प्रयोजन न रहते हुए भी जिनेन्द्रदेवका विहार आदि होता हैं- सिर्फ परोपकार के लिये । यद्यपि वास्तव में भगवान् के परोपकार करनेकी भी इच्छा नहीं रहती; क्योंकि वे इच्छाओंके मूलभूत मोहनीय कर्मका क्षय कर चुकते हैं-उनकी समस्त क्रियाए मेघोंकी तरह, सिर्फ भव्य जीवोंके सौभाग्य से ही होती हैं। आचार्यने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्वयं कहा है कि 'अनात्मार्थ विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शामुरजः किमपेक्षते' |
(मुरज :) भवत्येव धरा मान्या सूद्यातीति न विस्मये । देवदेव पुरा धन्या प्रोद्यास्यति भुवि श्रिये ॥ ६२ ॥
भवतीति - भवति भट्टारके त्वयि । एव अवधारणम् । धरा पृथिवी । मान्या पूज्या । सूचाति उद्गच्छति प्रभवति । इति यस्मात् । न विस्मयेहं
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