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स्तुतिविद्या
अविनाशी और महान् गुणरूपी मेरुपर्वतकी स्तुति करनेवाले कौन प्रसिद्ध पुरुष दिशाभूल हुए हैं ? अर्थात् कोई भी नहीं।
भावार्थ- मेरुपर्वत हर एक जगहसे उत्तर दिशामें पड़ता है इसलिए जो मेरुपर्वतको प्रत्येक क्षण देखता रहता है वह कभी दिशा नहीं भूल सकता-वह मेरुको देखकर अपनी इष्टदिशाको पहुँच सकता है। यहां आचार्यने भगवान शान्तिनाथ के गुणोंको मेरुपर्वतका रूपक दिया है । उससे यह अर्थ स्पष्ट होता है कि जो पुरुष भगवान् शान्तिनाथके गुणरूप मेरुपर्वतकी स्तुति करेगा वह संसारकी अन्य उलझनोंमें उलझ जानेपर भी अपने कर्तव्य-मार्गको नहीं भूलेगा । वह अपने सबसे उत्तर-सबसे श्रेष्ठ-मार्गको अनायास ही पा जावेगा । अब भी तो रास्ता भूल जानेपर मनुष्य किसी ऊँचे पहाड़ या पेड़ वगैरह को लक्ष्यकर अपने इष्ट स्थान पर पहुंचते हैं। ॥६७।
(मुरजबन्धः ) त्रिलोकीमन्वशास्संगं हित्वा गामपि दीक्षितः । त्वं लोभमप्यशान्त्यंग जित्वा श्रीमद्विदीशितः ॥६॥
त्रिलोकीति-त्रिलोकी त्रयाणां लोकानां समाहारः त्रिलोकी "रादितिडीविधिः” तां त्रिलोकीम् । अन्वशाः अनुशास्तिस्म अनुशासितवान् । संगं परिग्रहम् । हित्वा त्यक्त्वा । गामपि पृथिवीमपि । दीक्षितः प्रबजितः । स्वं युष्मदोरूपम् । लोभमपि सङ्गगतचित्तमपि । तृष्णामपि । अशान्त्यङ्ग अनु प्रशमनिमित्तम् । शान्तः अङ्ग कारणं शान्त्यङ्ग न शान्त्यङ्ग प्रशान्त्यङ्गम् । जित्वा विजित्य । श्रीमद्विदीशितः लक्ष्मीमद्ज्ञानीश्वरः । विदामीशितः विदीशितः श्रीमांश्चासौ विदोशितन श्रीमद्विदीशितः। किमुक्त भवति- हे शान्तिभट्टारक स्वं संगं हित्वा गामपि दीक्षितः सन् त्रिलोकीमन्वशाः लोभमपि प्रशान्त्यंग जित्वा श्रीमद्विदोशितः सन् ॥६॥
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