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परिशिष्ट
मुरजबन्धके इस चित्र में ऊपरके चित्रसे यह विशेषता है कि इसमें अपना इष्ट अक्षर (म) एक एक अक्षरके अन्तरसे पचके चारों ही चरणों में बराबर प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है। इस प्रकारके दूसरे श्लोक ८६ और ६१ हैं।
(८) अनुलोमप्रतिलोमैकश्लोकः नतपाल महाराज गीत्यानुत ममाक्षर । रक्ष मामतनुत्यागी जराहा मलपातन ॥१७॥
इस कोष्ठकमें स्थित पूर्वाधको उल्टा पढ़नेसे उत्तरार्द्ध बन जाता है। इसी प्रकार श्लोक नं०६६, ६८ भी अनुलोम-प्रतिलोमक्रमको लिए हुए हैं।
(१) बहुक्रियापद-द्वितीयपादमध्य-यमकाऽतालुव्यञ्जना
ऽवर्णस्वर-गूढद्वितीयपाद-सर्वतोभद्रः
पारावाररवारापारा क्षमाक्ष क्षमाक्षरा । वामानाममनामावारक्ष मद्धद्ध मक्षर ॥८४॥
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